बुधवार, 31 मार्च 2010
बातें ज्यादा, काम कम!
एक कदम स्वदेशी लोकतंत्र की ओर
बाबा रामदेव ने आख़िरकार राजनीती में दखल देने की घोषणा कर ही दी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वह खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे, ये कदम केवल राजनीती की सफाई के लिए उठाया गया है।
बाबा का ये कदम भारत की प्राचीन ऋषि परंपरा की तरफ इशारा करता है, जहाँ शासन के पीछे ऋषियों का मार्गदर्शन होता था। हालाँकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा को आगे करके ऐसा ही प्रयोग करने की कोशिश की थी। लेकिन भाजपा के हाथ में जैसे ही सत्ता आई वह न केवल संघ के सिद्धांतों को भूल गयी, बल्कि सत्ता लोलुपता की पराकाष्ठा को लाँघ गयी। पार्टी के इस रूप परिवर्तन से संघ का भाजपा से मोह भंग हो गया। संघ ने अपनी तरफ से भरसक प्रयास कर के देख लिए लेकिन पार्टी में पद का लोभ इस कदर बढ़ चूका है कि उसका उबर पाना मुश्किल लगता है।
अब ऐसा ही कुछ प्रयास बाबा रामदेव करने जा रहे हैं। अपने कार्यकर्ताओं को संसद तक पंहुचा कर वे इंडिया में भारत का निर्माण करने का सपना देख रहे हैं। बाबा का सपना तो अच्छा है, उनके पास दूरदर्शिता भी है, विकास के भारतीय मॉडल का ब्लूप्रिंट भी है, लेकिन देखने वाली बात ये है कि २०१४ में लोग उनके संगठन को कितना स्वीकारते हैं। और अगर स्वीकार भी लिया तो बाबा के कार्यकर्ता संसद पहुचकर कहीं भाजपा की तरह अपना रूप तो नहीं बदल लेंगे।
वैसे बाबा के मैदान में आने की खबर से बाकी पार्टियों का तो पता नहीं, सबसे ज्यादा भाजपा की ही हवा ख़राब है। क्योंकि बाबा ने मोटे तौर पर वही लाइन पकड़ी है, जिसको भाजपा ने सत्ता मिलने पड़ने पर भुला दिया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बाबा की पार्टी सबसे ज्यादा भाजपा को ही नुकसान पहुंचाने वाली है।
गुरुवार, 25 मार्च 2010
वह कौन है जो सच में सुखी है?
रविवार, 21 मार्च 2010
दाल मुरादाबादी
इसका नाम मुरादाबादी दाल इसीलिए पड़ा कि मुरादाबाद में ही इस दाल का चलन सबसे पहले शुरू हुआ और ये वहां बेहद प्रचलित है। मेरठ और दिल्ली जैसे कुछ शहरों में भी एक-दो चाट वालों ने प्रयोग के तौर पर इसको शुरू किया लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। शादियों और दूसरे समाहरोह में भी इस दाल ने जमकर अपनी पैठ बनाई है। मुरादाबाद के लोग जब दूसरे शहर से अपने बच्चों की शादी करते हैं तो खासतौर से ये फरमाइश रखते हैं की दावत में मुरादाबादी दाल का भी इंतजाम हो। दूसरी चाट की तरह पेट पर इस दाल का कोई बुरा असर नहीं और जेब पर भी भारी नहीं (वर्तमान रेट ५, ७ और 10 रूपए)। हर तरह से फायदा ही फायदा। बाबा रामदेव ने इस दाल के महत्व को समझा है और आप इस दाल का स्वाद उनके पतंजलि योगपीठ की कैंटीन में चख सकते हैं।
ये दाल बनाने में बेहद सरल है और खाने में पौष्टिक- मैं आपको थोडा से गाइड करने की कोशिश करता हूँ... मूंग की धुली दाल को नमक डाल कर प्रेशर कुकर में खूब गाढ़ा कर लीजिये। इतना गाढ़ा भी नहीं कि चम्मच से काटनी पड़े। मतलब नोर्मल डाल से गाढ़ी होनी चाहिए। फिर इस दाल को एक दौने या कटोरे में परोसिये। असली खेल इसमें मिलाये जाने वाली चीज़ों का है। अब इसमें एक चम्मच हरे धनिये या पोदीने की चटपटी चटनी मिलाइए, एक मक्खन की टिक्की डालिए, थोडा सा पनीर घिस कर डालिए, एक साबुत लाल मिर्च भूनने के बाद तोड़ कर डालिए, थोडा सा काला नमक और हींग-जीरे का भुना हुआ पावडर मिलाइए। चाहे तो मूली या गज़र भी घिस कर डाल सकते हैं। बस आपकी दाल तैयार है।
शुक्रवार, 19 मार्च 2010
ये प्यास (क्यों) है बड़ी...
इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जो बोतल का पाने पीते हैं, न ही उन लोगों को जो इस पाने को स्वस्थ्य के लिए अनहाईजिनिक मानते हैं। इसका असर तो फिर बेचारे कांग्रेस के आम आदमी पर ही पड़ेगा। कांग्रेस के लिए ये चिंतन का विषय हो सकता हाई क्योंकि "केवल" कांग्रेस को आम आदमी कि चिंता है।
तो भाई लोग प्याऊ परंपरा और नदियों के इस इस देश में पानी दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। दिल्ली के लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं हो रहा। हो भी कहाँ से थोड़े बहुत हों तो सरकार सोचे भी, यहाँ तो इंसानों कि सुनामी आई हुई है। वैसे कुछ ठेले वालों ने देश की परम्पराओं का भी ख्याल रखा है। देश का एक बड़ा हिस्सा है जहाँ खाली पानी पीना और पिलाना दोष समझा जाता है। वहां पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता है, यानी जल+पान। सो पानी कि रेहड़ी वालों ने अपनी रेहड़ी पर कुछ-कुछ खाने का भी सामान रख छोड़ा है। परंपरा की परंपरा और कमाई की कमाई। तो गला ठंडा करने के लिए खुद ही अपनी जेब ठंडी करें। सरकार और सामाजिक संस्थाओं से कोई उम्मीद न रखें। क्योंकि पानी पिलाने का काम उनको काफी महंगा पड़ सकता है।
कर्म फल
बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...
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अबकी आम चुनाव में अलग-अलग दिन घटी घटनाओं को मैंने फेसबुक पर दोहों के रूप में लिखा। 17 मार्च को शुरू हुआ सफर लिखते-लिखते आज 17 मई को आक...
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यूं तो गार्गी हर साल ही गांव जाती रही है, लेकिन अब वह चार बरस की हो गई है और हर चीज पर सवाल करने लगी है। इस बार होली पर जब वह हमारे गांव...
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दिल्ली से लेकर देहरादून तक और बीकानेर से लेकर बाराबंकी तक दुकानदारों के पास अपना सामान बेचने और दुकानदारी का तकरीबन एक सा ही पैटर्न है। अ...