बुधवार, 31 मार्च 2010

बातें ज्यादा, काम कम!


बताया जाता है कि अपने देश में इमरजेंसी के दौरान एक नारा बहुत चला था- "बातें कम, काम ज्यादा!"। इमरजेंसी के डंडे का असर इतना व्यापक था कि सरकारी दफ्तरों में काम-काज का ढर्रा सुधर गया था। कर्मचारियों की सारी नेतागिरी फुर्र हो गयी थी। खैर अपन तो उस समय थे ही नहीं लेकिन इतना जरूर लगता है कि सही मायने में आज इमरजेंसी के इतने सालों बाद भी इस नारे की आवश्यकता है। पूरे देश में चाहे सरकारी विभाग हों या फिर निजी संस्थान, हर जगह बातें ज्यादा हैं ओर काम कम।

जहाँ जाइये वहां बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं, लेकिन धरातल पर अधिकांश फुस्स हैं। जिसे देखो खुद को नंबर-१ होने का दावा कर रहा है। लेकिन असलियत उनको परखने के बाद ही पता चलती है। हर कंपनी के विज्ञापन वाले दावे कुछ और होते हैं और असलियत कुछ और। मिसाल के तौर पर बीमा कंपनियों को लें, बीमा करते वक़्त एकदम गाय की तरह बात करते हैं। और जो अगर क्लेम लेने की नौबत आ जाये तो आपको नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं।

किसी कंपनी की वेबसाइट या विज्ञापन देख कर तो ऐसा लगता है मानो इस कंपनी से आदर्श कंपनी कोई नहीं हो सकती, लेकिन असलियत उसके कर्मचारियों को ही पता होती है। वे बेचारे अपनी नौकरी बचने के चक्कर में मुह बंद करे रखते हैं। बाज़ार का इतना बुरा हाल हो चुका है कि मुंह माँगा पैसा देकर भी आपके प्रोडक्ट की कोई गारंटी नहीं। या तो आपकी जान-पहचान हो, या फिर आपके डंडे में दम हो। तभी आप सही चीज़ के हक़दार हैं। चार रूपए के सामान से लेकर चार करोड़ के सामान तक किसी की कोई गारंटी नहीं। ठेले वाले से लेकर ठेकेदार तक सब धोखा देने पर आमादा हैं। पैंठ से लेकर माल तक, गाँव से लेकर महानगरों तक, ऑटो वाले से लेकर दूध वाले तक, डॉक्टर से लेकर इंजिनियर तक, समाज सेवक से लेकर स्वयंसेवक तक कब कौन आपको दिन के उजाले में ठग ले कोई भरोसा नहीं। हर शख्स ने झूठ का आवरण पहन रखा लगता है। सच्चे लोग हिरण्यलोक सिधार गए लगता है।

हम सब जानते हैं कि ऐसा क्यों है, लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि इस परिस्थिति के लिए थोडा बहुत हम सब भी जिम्मेदार हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये स्थिति सुधर नहीं सकती। सुधार हो सकता है, ये आसान भी है और जरूरी भी। दिक्कत बस ऊपर बैठे लोगों की नियत के साथ है। उसका इलाज मुश्किल है।

एक कदम स्वदेशी लोकतंत्र की ओर

बाबा रामदेव ने आख़िरकार राजनीती में दखल देने की घोषणा कर ही दी। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वह खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे, ये कदम केवल राजनीती की सफाई के लिए उठाया गया है।

बाबा का ये कदम भारत की प्राचीन ऋषि परंपरा की तरफ इशारा करता है, जहाँ शासन के पीछे ऋषियों का मार्गदर्शन होता था। हालाँकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भाजपा को आगे करके ऐसा ही प्रयोग करने की कोशिश की थी। लेकिन भाजपा के हाथ में जैसे ही सत्ता आई वह न केवल संघ के सिद्धांतों को भूल गयी, बल्कि सत्ता लोलुपता की पराकाष्ठा को लाँघ गयी। पार्टी के इस रूप परिवर्तन से संघ का भाजपा से मोह भंग हो गया। संघ ने अपनी तरफ से भरसक प्रयास कर के देख लिए लेकिन पार्टी में पद का लोभ इस कदर बढ़ चूका है कि उसका उबर पाना मुश्किल लगता है।

अब ऐसा ही कुछ प्रयास बाबा रामदेव करने जा रहे हैं। अपने कार्यकर्ताओं को संसद तक पंहुचा कर वे इंडिया में भारत का निर्माण करने का सपना देख रहे हैं। बाबा का सपना तो अच्छा है, उनके पास दूरदर्शिता भी है, विकास के भारतीय मॉडल का ब्लूप्रिंट भी है, लेकिन देखने वाली बात ये है कि २०१४ में लोग उनके संगठन को कितना स्वीकारते हैं। और अगर स्वीकार भी लिया तो बाबा के कार्यकर्ता संसद पहुचकर कहीं भाजपा की तरह अपना रूप तो नहीं बदल लेंगे।

वैसे बाबा के मैदान में आने की खबर से बाकी पार्टियों का तो पता नहीं, सबसे ज्यादा भाजपा की ही हवा ख़राब है। क्योंकि बाबा ने मोटे तौर पर वही लाइन पकड़ी है, जिसको भाजपा ने सत्ता मिलने पड़ने पर भुला दिया था। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बाबा की पार्टी सबसे ज्यादा भाजपा को ही नुकसान पहुंचाने वाली है।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

वह कौन है जो सच में सुखी है?


महाभारत के यक्ष प्रश्नों से हम सभी परिचित हैं। वही प्रश्न जिनके उत्तर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों की जान बचाने के लिए यक्ष को दिए थे। उनमें से एक प्रश्न और उसका उत्तर बड़ा कमाल का था।
यक्ष ने पूछा :
वह कौन है जो सच में सुखी है?
युधिष्ठिर ने इसका जवाब कुछ इस प्रकार दिया:
सच्चा सुखी वही है जो अपना खाना स्वयं पकाता है (यानि किसी दुसरे पर आश्रित नहीं है)। जो कर्जदार नहीं है (यानि जिसके खर्च उसकी कमाई से अधिक नहीं हैं )। और जिसे अपनी जीविका के लिए घर छोड़कर बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है (यानि भौतिक सुखों के लिए जो जरुरत से ज्यादा श्रम नहीं करता)।

अब मज़ेदार बात ये है कि इस आधार पर देखा जाए तो आज संसार का कोई भी प्राणी सुखी नहीं हैक्योंकि महानगरीय जीवन शैली में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपना खाना स्वयं पकाता हो (होटल, रेस्तरां, टिफिन सिस्टम, पैकेट फ़ूड जिंदाबाद ), जिसके ऊपर कर्जा न हो (क्रेडिट कार्ड, ईजी लोन जिंदाबाद ) और जो धनवान बन ने के लिए अपना घर छोड़ने कि ख्वाइश न रखता हो। यानी न्यूनतम लोग अपना खाना खुद पकाते हैं, हर व्यक्ति कर्जदार है और अधिकांश लोगों की संतानें धन कमाने के लिए घर से बहार पड़ी हैं। चाहे अपने देश में हों या फिर विदेश में।
युधिष्ठिर की बात मानें तो फिर संसार में अधिकांश लोग दुखी हैं। जो सुख उनके चेहरे और रहन-सहन से झलकता है वह वास्तविक सुख न होकर एक छद्म सुख है, जो अंततः उनको दुःख की ओर ले जा रहा है। शास्त्रों में कई बातें सहज ढंग से समझा दी गयी हैं। लेकिन विकास के अमरीकी मॉडल के सामने इन महत्वपूर्ण बातों को नज़रंदाज़ किया जा रहा है।

युधिष्ठिर के जवाब में खुशियों के तीन सूत्र छिपे हैं:-
१: इन्सान को आत्मनिर्भर होना चाहिए। पराधीनता में दुःख है।
२: आय से ज्यादा खर्च करने वाला जीवन में सुख का अनुभव नहीं कर सकता।
३: भौतिक सुखों के पीछे इतना मत दौड़ो कि अपने पीछे छूट जाएँ।
महात्मा गाँधी ने जब स्वतंत्र भारत की कल्पना की थी तो इन बातों का ख्याल किया था। उन्होंने ने ग्राम स्वराज का नारा दिया था। वो चाहते थे कि देश का विकास गाँव से शुरू हो। देश का हर गाँव अगर सशक्त होगा तो देश कि जडें मजबूत होंगी। उन्होंने सादा जीवन शैली अपना ने पर बल दिया था। लेकिन आज़ादी के बाद गाँधी के सिद्धांतों को सब भूल गए और उलटे विकास की गंगा बहाई गयी। पूरा ध्यान शहरों के विकास पर दे दिया गया। गाँव पिछड़ते चले गए। जिसका नतीजा पलायन के रूप में आज हमारे सामने है। गाँव खाली हो रहे हैं और शहर भरते चले जा रहे हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री को ये तक कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों का भार नहीं झेल सकती। ये बिना सोचे समझे शुरू किये गए विकास का नतीजा है। हमने पश्चिम का अन्धानुकरण किया। बिना अपने देश की परिस्थितियों पर विचार किये। अपने देश में भरे ज्ञान को हमने जान-बूझकर नज़रंदाज़ किया। इसके परिणाम स्वरुप आज पूरा देश बाज़ार बन गया है। पैसे की अंधी दौड़ में हम केवल जीने का अभिनय कर रहे हैं। हम कितने खुश हैं ये तो हमारा दिल जानता है।

रविवार, 21 मार्च 2010

दाल मुरादाबादी



आज अचानक पुष्पेश से बातचीत के दौरान मुरादाबादी दाल का जिक्र चल गया। दिल्ली कि दौड़ धूप में बहुत कम ही ऐसा होता है जब पुरानी यादों को ताज़ा किया जाये। सो साहब मन हुआ कि इस करामाती दाल के बारे में कुछ लिखा जाए। मैंने इन्टरनेट पर जब सर्च किया तो मुरादाबादी दाल के बारे में कुछ खास नहीं मिला। केवल एक फोटो और एक छोटा सा लेख। अरे जनाब ये दाल इससे जयादा तवज्जो चाहती है। तो आइये शुरू करते हैं मुरादाबाद कि सुबह से- मुरादाबाद में बसने वाला हर खास-ओ-आम मुरादाबाद की इस मूंग की दाल का मुरीद है। तमाम लोगों का सुबह का नाश्ता इसी मूंग की दाल से होता है। सुबह होते ही शहर की संकरी गलियों में ठेले वाले अपना ठेला सजा कर मुख्य मार्गों पर निकल पड़ते हैं। इसका प्रचलन इतना ज्यादा है कि लगभग पूरे मुरादाबाद में आपको जगह-जगह इस दाल के ठेले दिख जायेंगे। इस दाल को खाने का मज़ा केवल सुबह और शाम को ही है। यानी एक अल्पाहार के तौर पर। दोपहर में अगर आप खोजेंगे तो मुश्किल से ही कोई ठेला ढूंढ पाएंगे। मुरादाबाद के गुरहट्टी, चौमुखा पुल, अमरोहा गेट, टाउन हॉल, बुध बाज़ार, ताड़ीखाना, गुलज़ारिमल की धरमशाला, स्टेशन रोड, साईं मंदिर रोड जैसे इलाकों में इस दाल की तूती बोलती है। मुरादाबाद सुबह को काफी जल्दी उठता है, दिल्ली कि तरह नहीं है। गर्मियों में तो छः बजे ही हलवाइयों की भट्ठी से धुआं उठने लगता है। पहले तो गर्मियों में नौ बजते बजते ये दाल सड़क से साफ़ हो जाती थी। लेकिन अब कुछ-एक जगह पूरे दिन इसकी व्यवस्था रहती है। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम रिक्शे से स्कूल जाते थे तो सात बजे एक ठेले वाला अपना ठेला घर से लेकर निकलता था, दाल का एक दौना चौराहों वाली माता के मंदिर में चढ़ाता था और फिर आगे बढ़ जाता था। पीछे रह जाता था उसकी भट्ठी से उठता धुआं और दाल की खुशबु। वैसे पुराने लोग कहते हैं कि मूंग की दाल बनियों का भोजन है, मुरादाबाद में बनियों की जनसँख्या भी काफी ज्यादा है ( हो सकता है कि यही कारण रहा हो इस दाल के प्रचलित होने का ) लेकिन आज तो मुरादाबाद का हर शख्स इस दाल को पसंद करता है। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी इस दाल का पूरा असर है।

इसका नाम मुरादाबादी दाल इसीलिए पड़ा कि मुरादाबाद में ही इस दाल का चलन सबसे पहले शुरू हुआ और ये वहां बेहद प्रचलित है। मेरठ और दिल्ली जैसे कुछ शहरों में भी एक-दो चाट वालों ने प्रयोग के तौर पर इसको शुरू किया लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। शादियों और दूसरे समाहरोह में भी इस दाल ने जमकर अपनी पैठ बनाई है। मुरादाबाद के लोग जब दूसरे शहर से अपने बच्चों की शादी करते हैं तो खासतौर से ये फरमाइश रखते हैं की दावत में मुरादाबादी दाल का भी इंतजाम हो। दूसरी चाट की तरह पेट पर इस दाल का कोई बुरा असर नहीं और जेब पर भी भारी नहीं (वर्तमान रेट ५, ७ और 10 रूपए)। हर तरह से फायदा ही फायदा। बाबा रामदेव ने इस दाल के महत्व को समझा है और आप इस दाल का स्वाद उनके पतंजलि योगपीठ की कैंटीन में चख सकते हैं।

ये दाल बनाने में बेहद सरल है और खाने में पौष्टिक- मैं आपको थोडा से गाइड करने की कोशिश करता हूँ... मूंग की धुली दाल को नमक डाल कर प्रेशर कुकर में खूब गाढ़ा कर लीजिये। इतना गाढ़ा भी नहीं कि चम्मच से काटनी पड़े। मतलब नोर्मल डाल से गाढ़ी होनी चाहिए। फिर इस दाल को एक दौने या कटोरे में परोसिये। असली खेल इसमें मिलाये जाने वाली चीज़ों का है। अब इसमें एक चम्मच हरे धनिये या पोदीने की चटपटी चटनी मिलाइए, एक मक्खन की टिक्की डालिए, थोडा सा पनीर घिस कर डालिए, एक साबुत लाल मिर्च भूनने के बाद तोड़ कर डालिए, थोडा सा काला नमक और हींग-जीरे का भुना हुआ पावडर मिलाइए। चाहे तो मूली या गज़र भी घिस कर डाल सकते हैं। बस आपकी दाल तैयार है।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

ये प्यास (क्यों) है बड़ी...

लो जी, दिल्ली में सड़क किनारे मिलने वाला पानी भी इस बार से महंगा हो गया है। आज ही एक रेहड़ी पर नज़र पड़ी तो देखा कि ५० पैसे वाला गिलास अब एक रूपए का हो गया है। वैसे पहले भी रेहड़ी वाले आठ आने का बहाना करके जबरदस्ती दो गिलास पाने पिला ही देते थे। इस दो गिलास पाने को पेट में एडजस्ट करने में लोगों को ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी क्योंकि गिलास रेहड़ी वालों के गिलास का साइज़ छोटा ही है। लेकिन इस बार तो दो गिलास पानी के सीधे दो रूपए ठन्डे करने पड़ेंगे। अभी तो गर्मियों की शुरुआत है, दिल्ली के गर्मी में एक गिलास पानी से काम चलने वाला भी नहीं है।

इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जो बोतल का पाने पीते हैं, न ही उन लोगों को जो इस पाने को स्वस्थ्य के लिए अनहाईजिनिक मानते हैं। इसका असर तो फिर बेचारे कांग्रेस के आम आदमी पर ही पड़ेगा। कांग्रेस के लिए ये चिंतन का विषय हो सकता हाई क्योंकि "केवल" कांग्रेस को आम आदमी कि चिंता है।

तो भाई लोग प्याऊ परंपरा और नदियों के इस इस देश में पानी दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। दिल्ली के लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं हो रहा। हो भी कहाँ से थोड़े बहुत हों तो सरकार सोचे भी, यहाँ तो इंसानों कि सुनामी आई हुई है। वैसे कुछ ठेले वालों ने देश की परम्पराओं का भी ख्याल रखा है। देश का एक बड़ा हिस्सा है जहाँ खाली पानी पीना और पिलाना दोष समझा जाता है। वहां पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता है, यानी जल+पान। सो पानी कि रेहड़ी वालों ने अपनी रेहड़ी पर कुछ-कुछ खाने का भी सामान रख छोड़ा है। परंपरा की परंपरा और कमाई की कमाई। तो गला ठंडा करने के लिए खुद ही अपनी जेब ठंडी करें। सरकार और सामाजिक संस्थाओं से कोई उम्मीद न रखें। क्योंकि पानी पिलाने का काम उनको काफी महंगा पड़ सकता है।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...