जिन्दगी में गपरचौथ का बड़ा महत्व होता है. हर कोई कहीं न कहीं गपरचौथ जरूर करता है. चाहे ऑफिस में या चाय की दुकान पर, गाँव हो तो किसी पेड़ के नीचे, कॉलेज में हो तो कैंटीन में, यानि सबके पास गपरचौथ के अपने अपने अड्डे हैं. अब आप पूछेंगे गपरचौथ क्या? तो जी हमारे यहाँ गपरचौथ यानि बातों के बतोले फोड़ना, खाली वक़्त की पंचायत या बैठकी. अमूमन इस तरह की गपरचौथ में इधर-उधर की बुराई और एक-दूसरे की टांग खिंचाई होती है. लेकिन अगर गंभीर विषय छिड़ जाये तो कई बार अच्छे अच्छे विचारों का भी आदान प्रदान हो जाता है. मेरठ में पत्रकारिता के दौरान इस गपरचौथ का आनंद लिया जाता था रात को अखबार निकालने के बाद. ऑफिस के पास चाय की दुकान पर. अमूमन १२-१ बजे से शुरू होकर ये गपरचौथ २-३ बजे तक चलती. इस गपरचौथ के मुखिया होते हमारे मकेश सर. इस बैठकी के सबसे बड़े रसिया थे अनुराग और कपिल जी. अन्य लोग जो साथ निभाते उनमें सुशील, संतोष, सचिन त्यागी, कुशल जी, मैं और विवेक जी. इस गपरचौथ की संख्या ५ से कम कभी नहीं घटी. सबकी चाय का प्रबंध हर रोज मुकेश सर की ओर से रहता. इस बैठकी में मुख्य मुद्दा होता आज के दौर की पत्रकारिता और पत्रकार. इसके बाद नम्बर था समसामयिक मुद्दों और देश की अन्य समस्याओं का. हलकी-फुलकी चुहलें और थोड़ी टांग खिंचाई.
दिल्ली आकर एनजीओ से जुड़ने के बाद अब मुझे इस गपरचौथ के लिए नयी जगह मिल गयी. अब हमारी बैठकी अक्सर आंटी के घर जुटती है. अक्सर रात के खाने के बाद सबका उनके घर हालचाल जानने के बहाने आना होता है. और अगर बहस का मुद्दा गर्म हो तो समझो जम गयी पंचायत. अलग-अलग टेस्ट के लोग होने के कारण इस बहस में पक्ष और विपक्ष भी बन जाता है. आंटी के घर की गपरचौथ में भाग लेने वालों में हमारे अंकल जोकि डॉक्टर हैं और आंटी के अलावा, भगवन अंकल, तेजेश मामा, मैं और टीनू भैया. जिस दिन की बहस में टीनू भैया शामिल होते हैं उस दिन समझो रात को तीन बजने ही बजने हैं. बुधवार के दिन मेरी छुट्टी होती है तो मंगलवार रात को अगर बहस छिड़ जाए तो फिर मत पूछो. एक दिन मंगलवार को मृगांक भी आया हुआ था उस दिन फिल्मों से लेकर खाने-पीने तक के मुद्दों पर ऐसी चर्चा छिड़ी कि जब मैं रात को वहां से उठ कर अपने रूम की तरफ बढ़ा तो बहार पेड़ों पर चिड़ियाँ बोल रही थीं. घर जाकर समय देखा तो तडके के ४:३० बजे थे. चद्दर तान के ऐसा सोया कि सुबह १० बजे आँख खुली.
चलती बहस में से बार बार उठने की कोशिश भी करो लेकिन फिर सबका अनुग्रह- "अरे बैठो अभी...", "घर जाकर सोना ही तो है...", "चले जाना, थोड़ी देर और रुको ज़रा....", ऐसा दबाव होता है कि उठ-उठ कर बैठना पड़ता है. टीनू भैया तो ऐसे चटकारे छोड़ते हैं कि बीच में छोड़ भी नहीं सकते. और फिर थोड़ी-थोड़ी देर के अंतर पर आंटी की चाय, साथ में उनकी रसोई के नए- नए प्रयोग. रात का खाली समय, चाय, नाश्ता और बातें करने के लिए रोचक लोगों की बैठक और भला क्या चाहिए. क्लीनिक से आकर अंकल भी फुल चर्चा करने के मूड में होते हैं. बस कोई कह दे एक बार ज़रा. अंकल के जो भी तर्क होते हैं वो विज्ञान और अध्यात्म का मिला-जुला मिश्रण होते हैं. मेरा पक्ष पूरी तरह अध्यात्मिक, आंटी का भावनात्मक और टीनू भैया का एकदम व्यावहारिक. जब भगवन अंकल होते हैं तो वे गरमा गर्मी हो जाने पर बीच-बचाव करते हैं, खासतौर से जब बात शाकाहार बनाम मांसाहार पर चल रही हो. मैं और भगवन अंकल शाकाहार का पक्ष लेते हैं और टीनू भैया और डॉक्टर अंकल मांसाहार के पक्ष में एक से बढ़कर एक तर्क पेश करते हैं. लेकिन जब बात राष्ट्रीय समस्याओं पर चल रही हो तो सबका व्यू-पॉइंट तकरीबन एक सा ही है. विचारधारा की दृष्टि से देखा जाए तो मोटे तौर पर इस बैठकी में सब दक्षिणपंथी ही हैं, मेरठ गपरचौथ में एक-दो वामपंथी भी थे तो बहस में छौंक ज्यादा तगड़ा लगता था.
खैर कल आंटी के घर आजकल के सबसे गर्म मुद्दे पर हलकी सी चर्चा छिड़ी- यानि कॉमनवेल्थ खेलों पर. टीनू भैया नहीं थे वरना कल पूरी रात कम पड़ जाती. मामला था कि ऑस्कार के लिए इस बार भी जो फिल्म "पीपली लाइव" भेजी गयी है उसमें भी भारत की निगेटिव इमेज विश्व के सामने जाएगी. बाकी की इमेज पर कॉमनवेल्थ का आयोजन पानी फेर ही रहा है. हलकी सी बहस छिड़ी सबकी यही राय कि ऐसी फिल्मों को भेजने से बचा जाये जो भारत को पिछड़ा, गरीब और बेकार देश होने की छाप छोड़ती हों. इतने में आंटी ने एक बेहद तार्किक और व्यावहारिक बात कह डाली. उसी बात को लिखने के लिए मैंने ये पूरी पोस्ट लिखी है.
बात थी विश्व में ख़राब तस्वीर पेश करने वाली चीज़ों की. आंटी ने इसके लिए सबसे बड़ा दोष रेलवे के सर मढ़ा और वो भी पर्याप्त कारणों के साथ. उन्होंने कहा कि बाहरी लोगों के सामने देश की ख़राब तस्वीर पेश करने में यहाँ के रेलवे स्टेशनों का सबसे बड़ा हाथ है. वैसे तो रेलवे भारत की पूरी जी-जान से सेवा कर रहा है. उसकी सेवाओं में दिन-प्रतिदिन सुधार भी हो रहा है, लेकिन हर शहर में रेलवे स्टेशन से दो-तीन किलोमीटर पहले और बाद में ट्रैक के दोनों तरफ का एरिया इतना गन्दा और भद्दा होता है कि चाहकर भी आप उस शहर के बारे में अच्छा तो सोच ही नहीं सकते. भारत की राजधानी के मुख्य स्टेशन से लेकर छोटे से कसबे के हॉल्ट तक हर जगह पटरियों के आस-पास गंदगी का अटम्बार, झुग्गियां और अपने पेट को हल्का करते हुए भारतीय नज़र आएंगे. भला ऐसे में उस शहर के बारे में अच्छी इमेज कैसे बने. तमाम विदेशी पर्यटक भरता में ट्रेन से सफ़र करते हैं. रेल खिडकियों पर बैठे-बैठे अपने कैमरे से यही तसवीरें खींचकर वो अपने ब्लॉग पर, अपनी किताबों में या फिर प्रदर्शनियों में लगते हैं.
रेलवे अपनी पटरियों के आसपास से अवैध कब्जों को हटाने की तमाम दफै नाकाम कोशिश कर चुका है. लेकिन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं इन अवैध कब्जों की. हटायें तो हटाये भी कैसे? किसी को इन कब्जों में वोट नज़र आते हैं, किसी को सर्वहारा, किसी को अपनी कौम, तो किसी को बहुजन समाज. तमाम रेलवे स्टेशनों पर आपको पटरियों के बीचों-बीच मंदिर और मस्जिद भी मिल जायेंगे. इस सबके चक्कर में रेलवे का मनोबल इस दिशा में क्षीण पड़ जाता है. अब तो दिल्ली की मेट्रो ट्रेन ने इस मामले में भारतीय रेल के सामने एक नजीर भी पेश कर दी है. उससे भी गाइडलाइन ली जा सकती है. वैसे साफ़ सफाई के मामले में कुछ रेलवे स्टेशनों की भी स्थिति बेहतर है. रेलवे अपने ट्रैक के किनारे जट्रोफा के पेड़ उगाने का भी एक असफल प्रयास कर चुका है. लेकिन मुख्य बात है स्टेशन से कुछ किलोमीटर पहले और बाद में पसरी गंदगी और अवैध कब्जों की. अगर इसका कोई उपाय खोज लिया जाए तो लोगों के मन में अपने शहर और अपने देश के बारे में नकारात्मक छवि न बने. किसी भी स्टेशन पर ट्रेन का स्वागत ग्रीनरी और अच्छी लाइटिंग से हो तो तस्वीर कुछ सुधरे.
खैर ऊषा आंटी की ये चिंता कब तक दूर होगी ये तो नहीं कह सकते, फिलहाल तो रेलवे के ही सिपहसलार रेलवे स्टेशनों की दीवारों पर नारे लिख रहे हैं और दीवारों पर पीक मार रहे हैं.