मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

चर्चा ये आम है आज कल....


कौं रे कलुआ ऐसी का खबर छपी है, जो घूर घूर कै अख़बार मैं घुसो जा रो है.

कुछ न दद्दा.... वे हे न अपने चचा कलमाडी, उनके ताईं पुलिस पकड़ कै लै गयी.

कौन वो कॉमनवेल्थ करोडपति कलमाडी

हाँ दद्दा वोई

फिर अब?

अब का दद्दा पार्टी वारे भी किनारा कर गए हैं. मैडम ने लिकाड़ दओ  पार्टी सै.

बताओ मुसीबत मैं सब संग छोड़ जाए हैं.

अरे कैसे मुसीबत दद्दा... करोड़ों डकारते बखत सोचनी चहिए ही न. मुसीबत तो खुद की बुलाई भई है.

अरे तौ का बिचारे नै अकेले डकारे हे. और भी तो हे संग मैं. उनको नाम कोई न लै रओ. 
 
नाम तौ दद्दा कई के आ रए हैं। शीला चाची कौ भी अंदर करान की मांग उठ रई हैगी। विपच्छ वारे बड़ो हो-हल्ला मचा रए हैं।

देखौ तो एक तौ बिचारन नै अपने यहां खेल कराए और अब जेल भी जानो पड़ रौ है।

जेल-वेल तौ कोई ना जा रौ दद्दा। सब बाहर है जांगे। जे तो लोगन के ताईं फुद्दू बनान के नाटक हैं। जा सै पहलै भी तो कितने नेता पकड़े गए हे, पर काई कौ जेल भई। सब खुल्ले घूम रये हैंगे सांडन के तरह।

पर मोय तो तरस आबै बिचारे कलमाडी पै। बिचारे को अकेले को नाम खराब है रओ है, घी तो औरन नै भी पियो हो।

पियो तो हो दद्दा, पर सबसै ऊपर तो कलमाडी ही हो। जो चाहतो तो सबको रोक लेतो। पर चुपचाप तमाशो देखतो रओ और सबके संग अपनी बैंकैं भरतो रओ। तौ इत्ती फजीहत होनी ही चहिए।

हम्म्! चलौ अब का कर सकै हैं। लगै अब भ्रष्टन की हजामत को समय आ गओ है। जे सब हजारे को कमाल है।

अरे दद्दा कमाल काई को न है। जे सब दिखावो है। कुछ दिनन की बात है खुलो सांड की तरह घूमैगो सड़कन पै, कुछ न होने वारो। बाद में करोड़न की मलाई खाएगो।

पर जौ सजा है गई तौ खेलन की आफत आ जाएगी।

सो क्यौं दद्दा?

सब नेतन की हवा खराब है जाऐगी। फिर कोई अपने यहां खेल न कराने वारो। सब मनै कर दिंगे, जी हमें कोई खेल न कराने।

सुन तो रये हैं कि शीला चाची की घबराई फिर रई हैं। गर कलमाडी नै उनको नाम लै लओ तौ फिर समझो दद्दा बिगड़ गई बात।

अरे वो कलमाडी है कलमाडी! नाम न लेन के भी रुपया खा लैगो कांग्रेस सै।

ही ही ही!!! तुम भी दद्दा क्यौं मजा लै रे हो बुढ़ापे मै।

अरे मैं का मजा ले रौं हौं। मजा तो दिल्ली वारे लै रे हैं।

पर दद्दा जो अगली फेरै सबनै अपने यहां खेल कराने सै मनै कर दई तौ?

न सब न मनै करंगे। वो जो है न मोदी गुजरात वारो, वो करा दैगो नैक देर मैं अपने यहां। बाकी बातन में दम सो लगै।

का पते दद्दा वानै भी मनै कर दई तौ?

तौ फिर कलुआ अपने गांव मै ही करा लिंगे।

जो बात सई है, दद्दा। उनको खर्चा बच जाएगो।

खर्चा कैसे बचैगो कलुआ?

अरे, खेलन के ताईं खेल गांव बनानो पड़ै न। गांव तौ जो पहले सै है बस खेल-खेल कराने हैं।

हा हा हा हा। अरे कलुआ तू तौ समझदार है गओ है अखबार पढ़-पढ़ कै।

सब तुम्हारो आसिरबाद है दद्दा।

जीतो रै जीतो रै! चल अब खेतन पर घूम आऐं।

चलौ दद्दा!!!!!!!!

रविवार, 10 अप्रैल 2011

संस्कृत भाषा को बचाने के लिए पिछले चार दिन से अनशन पर बैठी एक संस्कृत टीचर


भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे का अनशन रंग लाया और सरकार झुक गई। एक व्यवस्थित ढंग से चलाए गए अभियान के सामने सरकार को घुटने टेकने पड़े। लेकिन हर आंदोलन सफलता के अंजाम तक नहीं पहुंचा करता। कई बार व्यवस्था इतनी ढीठ होती है कि अनशन पर बैठे व्यक्ति के प्राण हर कर ही बाज आती है। दिल्ली में रोहिणी के सेक्टर 15 स्थित सेंट एंजेल्स स्कूल के बाहर भी एक ऐसा ही अनशन चल रहा है। गत 7 अप्रैल से स्कूल की संस्कृत शिक्षिका श्रीमति आशा रानी पाठ्यक्रम से संस्कृत हटाने के विरोध में अनशन पर बैठी हैं। दरअसल स्कूल ने कक्षा पांच से कक्षा नौ तक संस्कृत का सूपड़ा साफ करके जर्मन और फ्रेंच भाषा को लगाने का फैसला किया है। इस फैसले से न केवल संस्कृत टीचर नाराज हैं बल्कि स्कूल के स्टूडेंट्स और पैरेंट्स भी परेशान हैं। आशा रानी की मांग है कि कम से कम बच्चों को विषय चुनने का मौका तो दिया जाना चाहिए। लेकिन स्कूल प्रबंधन एक सुनने को तैयार नहीं है। पिछले चार दिन से आशा रानी आमरण अनशन पर बैठी हैं।

जड़ में भ्रष्टाचार

दरअसल स्कूल की इस मनमानी की जड़ में भी भ्रष्टाचार ही है। स्कूल प्रबंधन अपने स्टाफ को कम सैलरी देकर कागजों में ज्यादा पर दस्तखत करवाता है। इस भ्रष्ट चलन का आशा रानी कई बार विरोध कर चुकी थीं। यहां तक कि स्कूल प्रबंधन की उनके साथ खासी तनातनी भी हो चुकी थी। अब स्कूल प्रबंधन आशा रानी से निजात पाना चाहता है। इसके लिए प्रबंधन ने फैसला किया कि स्कूल से संस्कृत विषय ही हटा दिया जाए। न रहेगी संस्कृत और न रहेगी उसको पढ़ाने वाली आशा रानी। लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान संस्कृत भाषा को हटाने का निर्णय न तो बच्चों को रास आ रहा है और न अभिभावकों को। इसलिए इसके विरोध में आशा रानी स्कूल के गेट पर अनशन पर बैठ गई हैं।

कोई सुनवाई नहीं

आशा रानी के इस अभियान से स्कूल प्रबंधन पर कोई खास असर पड़ता नहीं दिख रहा है। दरअसल मीडिया ने भी इस मामले अभी उस तरह नहीं दिखाया है, बल्कि ये कहें कि मीडिया में अभी ये मामला आया ही नहीं है। आशा रानी ने बस अपने दम पर बिना किसी सोची-समझी रणनीति के अभियान छेड़ दिया है। लेकिन रोहिणी सेक्टर 15 के निवासियों के बीच आशा रानी की ये मांग और विरोध प्रदर्शन लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। वैसे इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात कोई क्या होगी कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर और देव वाणी संस्कृत को जर्मन और फ्रेंच की भेंट चढ़ाया जा रहा है। उम्मीद है कि आशा रानी का ये अनशन जरूर रंग लाएगा।



अधिक जानकारी के लिए संपर्क सूत्र

आशा रानीः 8826050123
सेंट एंजल्स स्कूलः 27291521, 27294021, 27298621



सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दुकानदारी के नुस्खे!!!




दिल्ली से लेकर देहरादून तक और बीकानेर से लेकर बाराबंकी तक दुकानदारों के पास अपना सामान बेचने और दुकानदारी का तकरीबन एक सा ही पैटर्न है। अपना सामान बेचने के लिए न जाने उनको क्या-क्या तरीके आते हैं। ये तरीके उन्होंने किसी स्कूल या एमबीए की क्लास में नहीं सीखे। बस पापी पेट की जरूरतों ने उनको सबकुछ सिखा दिया। पहले वे धर्म का आचरण करते हुए दुकानदारी करते थे। फिर देखा कि बहुत ज्यादा धर्म का आचरण करने से मुनाफा नहीं हो रहा तो उन्होंने थोड़ा साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाई। फिर देखा कि दूसरे की दुकानदारी कुछ ज्यादा ही चल रही है तो मिलावट यानि झूठ का सहारा लिया। मिलावट ये कहकर शुरू की कि आटे में नमक के बराबर मिलावट करनी ही पड़ेगी, तभी व्यवहार चलेगा। देश की एक प्रसिद्ध धार्मिक नगरी का सच्चा प्रसंग है, वहां का नाम जानबूझकर नहीं लिखना चाहता। वहीं के एक बड़े संत ने मुझे बताया था। उस नगरी में आने वाले तीर्थ यात्री वहां से तुलसी की माला बहुत खरीदते हैं। लेकिन उस पूरी नगरी में तुलसी के नाम पर सब नकली मालाएं मिलती हैं। लेकिन उस माला का सबसे ऊपर वाला मनका असली तुलसी का होता है। महाराज जी ने बताया कि नगरी के दुकानदार तुलसी के उस एक मनके को पकड़कर नगरी के ईष्ट देव की कसम खाते हैं और ग्राहक को विश्वास दिलाते हैं कि माला तुलसी की ही है। इसे कहते हैं स्मार्ट मार्केटिंग। ऐसा ही हाल अमूमन पूरे देश का है। शुद्धता केवल लिखने और दिखाने के लिए है। नकली और दोयम दर्जे के माल को भी दुकानदार खूबसूरती के साथ बेच रहे हैं। मिट्टी से लेकर सोने तक सबमें मिलावट है। अब तो लगता है जहर में भी मिलावट आ रही है। पिछले दिनों मेरठ के एक गांव में जाना हुआ तो वहां के लोग आपस में बात कर रहे थे कि फलां की बहू ने सेलफाॅस की पूरी शीशी गटक ली, अस्पताल ले गए और वो बच गई। गांव के लोग तो इसे डाॅक्टरों की कुशलता बता रहे थे, लेकिन मुझे लगता है कि जहर में ही मिलावट होगी। अब तो न जीना आसान रह गया है और न मरना।

मिलावटी सामान को मिलावटी बातों के साथ दुकानदार किस तरह बेचते हैं, इसका नमूना हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते ही हैं। दुकानदारों के कई फेवरेट डायलाॅग हैं जो वे हर ग्राहक के सामने मारते मसलन- ‘‘ये तो आपके लिए ही इतने कम रेट लगा दिए हैं वरना तो ये महंगा आइटम है’’, क्यों जी हम आपके दामाद लगते हैं क्या?, ‘‘अरे भाई साहब इतना मार्जिन कहां है जितना आप सोच रहे हो, बस एक आध रुपया कमाना है’’ क्यों यहां बैठकर आप तीर्थाटन कर रहे हो क्या?, ‘‘अरे साहब इसमें कोई प्राॅफिट नहीं है, जितने का आया है उतने का ही दे रहे हैं’’ क्यों आपने बाबा जी का लंगर खोल रखा है क्या?

इस तरह के जुमले दुकानदार अपने यहां आने वाले हर ग्राहक पर इस्तेमाल करते हैं। मार्केटिंग वालों के बीच तो ये कहावत भी है कि आपका हुनर तब है जब आप गंजे को कंघा बेच दो। लेकिन अगर इतनी बातें न बनाकर सीधे-सीधे ईमानदारी से अपना माल बेचें तो कहीं ज्यादा ठीक है। इस तरह की करतूतों से तो लोगों का आपसी विश्वास की कम होता है। ईमादारी की दुकानदारी को जमने में थोड़ा वक्त जरूर लगेगा लेकिन अगर एक बार जम गई तो लंबी चलेगी। इस बात को वे लोग अच्छी तरह जानते हैं जो खानदानी बिजनेसमैन हैं। जो नौसिखिए हैं वो जल्दी से जल्दी दो और दो पांच करने में लगे रहते हैं।

रविवार, 3 अप्रैल 2011

कमऑन इंडिया! यूँ ही जारी रखो बड़े सपने देखने का सिलसिला



‘‘ये हौसले की कमी ही तो थी जो हमको ले डूबी, वरना भंवर से किनारे का फासला ही क्या था...’’ विश्व कप के फाइनल मैच में भारतीय क्रिकेट टीम ने ये बात सिद्ध कर दी कि अगर हौसले बुलंद हों तो नामुमकिन को भी मुमकिन किया जा सकता है। 1983 में विश्वकप जीतने के बाद से भारत लगातार वो इतिहास दोहराने की कोशिश कर रहा था, लेकिन लगातार उसको असफलता ही मिल रही थी। लेकिन उन असफलताओं का न तो हमारी टीम पर और न हमारे देश के लोगों पर कोई असर पड़ा। हर हार के बाद हम झल्लाते थे, गाली बकते थे, अपनी टीम को कोसते थे और फिर नाॅर्मल हो जाते थे। हमने कभी अपने जोश को कम नहीं होने दिया। वल्र्ड कप न जीत पाने के बावजूद देश में क्रिकेट के प्रति दीवानगी लगातार बढ़ती रही। और इस हद तक बढ़ी कि क्रिकेट एक अलग धर्म बन गया। हर विश्वकप में हम अपनी टीम का जोश बढ़ाते थे, उम्मीदें जगाते थे कि इस बार सपना साकार कर दो और देश को विश्वकप दिला दो। ये उम्मीदें भी लोगों में यूं ही नहीं जगी थीं। 1983 के वल्र्ड कप में उस अप्रत्याश्ति जीत के बाद लोगों में ये विश्वास आ गया था कि हम में पूरे विश्व से लोहा लेने का दम है। बस हमें अपने हौसले बुलंद रखने की जरूरत है।

और हमारे बुलंद हौसले आखिरकार कल रंग लाए जब 2 अप्रैल 2011 को भारत ने फिर से 1983 का इतिहास दोहरा दिया। 121 करोड़ भारतीयों का सपना आखिरकार साकार हो गया। इस सपने को साकार करने में भले ही हमें 28 सालों का संबा समय लगा, लेकिन हमारे धैर्य, हमारे जज्बे और हमारे हौसले की दादा देनी ही पड़ेगी। मेरे एक मित्र के मित्र ने उनको फोन किया और कहा कि अगर आज भारत नहीं जीतती तो मैं ये मान लेता कि मेरे जीते जी इस देश में विश्व कप नहीं आएगा। उनके इस वाक्य में आशा और निराशा एक साथ झलक रही थी। ऐसी ही आशा और निराशा प्रत्येक भारतीय मन में उठ रही थी। कल अगर विश्वकप भारत के पास नहीं आता तो लोगों को बहुत बड़ी निराशा हाथ लगती, हम फिर अपनी टीम को कोसते, लेकिन फिर से 2015 के लिए उम्मीदों बांध लेते।

इस जीत पर सचिन तेंदुलकर से ज्यादा खुशी शायद की किसी को हो रही हो। जिंदगी के 37वें पायदान पर खड़े सचिन का ये सातवां वल्र्ड कप था। सचिन का 2015 वाला विश्वकप खेलना मुश्किल माना जा रहा है। इस लिहाज से ये विश्वकप जीतना बेहद जरूरी था। इस जीत से सबसे बड़ा सबक यही मिलता है कि हमें कभी मन से हार नहीं माननी चाहिए। अपनी इच्छाओं और सपनों को कभी मरने नहीं देना चाहिए। किसी शायर ने कहा है न कि बहुत खतरनाक होता है सपनों का मर जाना... । सपने अगर जीवित हैं तो वे एक न एक दिन सच होकर ही रहेंगे। ये बात कल के फाइनल मैच में सिद्ध हो गई। इसलिए सपनों को नहीं मरने देना है। हारों से निराश नहीं होना है। जय हिंद!!!!  

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

खर्च करने का स्टाइल अपना-अपना !

भारतीय लोगों में आर्थिक व्यवहार दो दर्शन शास्त्रों पर आधारित है। पहला ये कि ‘‘जब तक जियो मौज से जियो, चाहे कर्जा लेकर घी पियो’’ और दूसरा ये कि ‘‘तेते पांव पसारिए जेती लंबी सैर’’

पहला दर्शन ईडीएम (ईट ड्रिंक एंड बी मेरी) सोसायटी पर फिट बैठता है। ईडीएम सोसायटी पांच दिन कमाती है और छठे-सातवें दिन पूरी कमाई को उड़ा देने में विश्वास रखती है। उनकी शान और रहन-सहन में कभी कोई बदलाव नहीं आता। वो कच्छा जाॅकी का ही पहनेंगे, चाहे लोन लेना पड़े। उनकी सलामी तोप से ही होनी चाहिए, छोटी-मोटी बंदूकें उनको रास नहीं आतीं। उनके मन में बड़ा बनने से ज्यादा बड़ा दिखने की चाह होती है। वे मानते हैं कि आप भले ही बड़े आदमी न हो, लेकिन हमेशा बड़े दिखो। वे मानते हैं कि ‘बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की’। और इस सबको मेनटेन करने के लिए उनके पास होता है केवल एक हथियार- ‘इसकी टोपी उसके सिर और उसकी टोपी इसके सिर’। आम आदमी भले ही इस हथियार का इस्तेमाल करना न जानता हो, लेकिन ईडीएम सोसायटी इस हथियार का सबसे खूबसूरती के साथ इस्तेमाल करती है। बड़े कर्ज के मामले में तो ये लोग तमाम बैंकों के कर्ज में डूबे ही होते हैं, लेकिन छोटे-मोटे कर्जे के लिए ये लोग अपने आसपास के लोगों पर निर्भर रहते हैं। अपने परिचितों से इस अंदाज में कर्जा मांगते हैं कि सामने वाले से न कहते बनता ही नहीं है। हाई प्रोफाइल लाइफ स्टाइल प्रदर्शित करने की इतनी मजबूरी होती है कि उसके लिए वे कर्ज की हर सीमा लांघ जाते हैं। आज के दौर में हाई प्रोफाइल दिखने के कुछ चिन्ह इस प्रकार हैं- एक गाड़ीः भले ही उसमें तेल डलवाने के पैसे जेब में न हों, एक महंगा मोबाइलः भले ही सेकेंड हैंड खरीदा हो, महंगी घड़ीः इम्पोर्टेड हो तो और बढि़या, एक लैपटाॅप (अब आईपैड)ः भले ही उसकी जरूरत न हो, बदन पर ब्रांडेड और डिजाइनर कपड़े, एक जोड़ी कपडे़ एक ही दिन पहने जाएं, सप्ताह के सात दिनों के लिए सात जोड़ी जूते आदि आदि हाई प्रोफाइल दिखने की बहुत ही बेसिक रिक्वायरमेंट हैं। कम से कम इतना तो होना जरूरी है। ईडीएम सोसायटी मानती है कि मौज-मस्ती में कोई कमी नहीं आनी चाहिए, चाहे कितना भी कर्ज क्यों न लेना पड़े। फिर जब आप के पास पैसा आ जाए तब भी सबसे पहले उसे मौज मस्ती पर खर्च करना है उसके बाद कर्जा उतारने की सोचनी है।

अर्थ व्यवहार का दूसरा दर्शन है ठेठ भारतीयों का, जो मौज-मस्ती के लिए कर्जा लेना बहुत बुरा समझते हैं। उनका मानना है कि उतने पांव फैलाए जाएं जितनी लंबी चादर है। जीवन का क्या है इसको कितना भी भोगों से भर लो, इसकी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकतीं। फिर अगर कर्जा लेना भी हो तो बहुत ही आपातकाल में लिया जाए जैसे किसी हारी-बीमारी में, बेटी की शादी में या फिर मकान को पूरा करने में। फिर उस कर्जे को हल्के में न लिया जाए। जैसे ही पैसा आए तो सबसे पहले उससे कर्जा उतारा जाए, बाकी सब काम बाद में। घर की आवश्यक जरूरतों को भी रोककर पहले कर्जा उतारने पर ध्यान दिया। अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखा जाए और बचत हर हाल में की जाए। कर्जा लेकर कोई शौक पूरा करने से बेहतर बचत करके पैसा इकट्ठा करके उस शौक को पूरा करें। ऐसी सोसायटी को ‘डाउन टू अर्थ सोसायटी’ (मिट्टी से जुड़े लोग) कहकर पुकारा जाता है। गांधी जी और डाॅ. कलाम को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। ये लोग वे होते हैं जो अपने बच्चों को भी कम खर्च करने की सलाह देते हैं। अपनी जरूरतें न्यूनतम रखते हैं। फिजूलखर्ची उनके पास से होकर नहीं फटकती। ये लोग मानते हैं कि रईस बनो तो ठोस रईस बनो, खोखले रईस बनने से कोई फायदा नहीं। ठोस रईसों को ही खानदानी रईस कहा जाता है। अधजल गगरी छलकत जाए वाला हिसाब नहीं होना चाहिए। ऐसे ही लोगों में एक सब कैटेगरी होती है दानियों, जो अपने बचे हुए धन को अपने ऊपर खर्च न करके दान करना बेहतर समझते हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बाद वे अपने धन को परोपकार में लगाना बेहतर समझते हैं। इन्हीं लोगों में एक और सब कैटेगरी होती है कंजूसों की, जो पैसे को इस तरह जोड़ते हैं कि उनकी बीवी, बच्चे सभी दुःखी रहते हैं। बच्चे छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी तरसते रह जाते हैं। लेकिन इस कैटेगरी का जो मध्यम मार्ग है वह काफी हद तक श्रेष्ठ बताया जाता है यानि- ईमानदारी व मेहनत से कमाओ और उदारता के साथ खर्च करो।

मजेदार बात ये है कि दोनों ही कैटेगरी के लोग एक-दूसरे को गलत बताते हैं। मौज-मस्ती वाली सोसायटी मानती है कि वो भी कोई जिंदगी है जिसमें कोई रंग न हो, मस्ती न हो! हाऊ बोरिंग। दूसरी सोसायटी के लोग मानते हैं कि मौज-मस्ती के दिन ज्यादा दिन नहीं चलते, आखिरकार जिंदगी ऐसी जगह लाकर खड़ा कर देती है कि कोई पूछने वाला भी नहीं होता। इन दोनों ही क्लास के लोगों में इतना बैर है कि जब बेटे-बेटियों के रिश्ते की बात आती है तब भी अपने से मिलते हुए अर्थ व्यवहार वालों के यहां रिश्ता जोड़ते हैं। ईडीएम सोसायटी नहीं चाहती कि उसका दामाद या बहू बोरिंग और पुराने ख्यालों की हो। और दूसरे किस्म के लोग भी नहीं चाहते कि उनका दामाद या बहू को मौज-मस्ती पसंद हो।

भारत में पूरा का पूरा मिडिल और हायर क्लास इन्हीं दो खर्च व्यवहार के आधार पर बंटा हुआ है। वैसे तो भारतीय अर्थ व्यवहार में फिजूलखर्ची, बचत न करना और कर्जा लेना हमेशा ही गलत माना जाता रहा है। लेकिन नई अर्थव्यवस्था लोगों को अधिक से अधिक खर्च करने को प्रेरित करती है। लोगों की जेब में खर्च करने के दो हथियार ठूंस दिए गए हैं। पहला डेबिट कार्डः इससे अपना पैसा खर्च करो और दूसरा क्रेडिट कार्डः जब अपना खत्म हो जाए तो कर्ज लेकर खर्च करो। जैसे प्रभाष जोशी ने वनडे क्रिकेट को फआफट क्रिकेट कहा उसी तरह क्रेडिट कार्ड भी फटाफट लोन की व्यवस्था है। कुछ दिनों पहले एक कवि सम्मेलन में गया तो देश के वर्तमान महाकवि अशोक चक्रधर काव्यपाठ कर रहे थे। उन्होंने भी अपनी कविता में लोन का संधि विच्छेदन करके बताया कि लोन अपने आप में ही कह रहा है कि ‘लो-न’। 

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

100वां शतक किसी दूसरे वनडे में पूरा कर लेना, अभी वर्ल्ड कप लाओ!


भारत-पाक के बीच मैच शुरू होने से पहले बातचीज चल रही थी। बात शुरू हुई तो इस बात पर जाकर खत्म हुई कि अगर आज सचिन ने शतक लगाया तो भारत हारेगा और अगर नहीं लगाया तो भारत जीतेगा। जब किसी ने अंधविश्वास बताया तो कहा गया कि टोने-टोटके कहीं चलते हों या न चलते हों, लेकिन क्रिकेट में चलते हैं। बात को पुष्ट करने के लिए सचिन के इतिहास को उजागर करते दो-तीन उदाहरण भी दे दिए गए। फिर मैच शुरू हुआ। सचिन 85 रन बनाकर आउट और भारत का स्कोर भी कुछ ज्यादा नहीं था। लेकिन सब को उम्मीद थी कि बाॅलिंग और फील्डिंग की बदौलत मैच जीत लिया जाएगा। आखिरकार मैच जीत लिया गया और टोने-टोटके मानने वालों की बात सच साबित हुई। लेकिन सचिन के फैन्स को उसका 100वां शतक पूरा न होने का मलाल रह गया। हालांकि भारत की शानदार जीत के सामने ये मलाल काफी नीचे दब गया।

अब फाइनल की बारी है। सामने लंका खड़ी है। लंका को फतेह करना टेढ़ी खीर होगी। लेकिन अब सचिन के फैन्स भी मानने लगे हैं कि 100वां शतक किसी और वनडे में पूरा हो जाएगा। अभी देश को वर्ल्ड कप दिलाना जरूरी है। जो कुछ ज्यादा आशावादी हैं वे दुआ कर रहे हैं कि 100वां शतक भी पूरा हो जाए और वर्ल्ड कप भी भारत में आ जाए। क्योंकि सबको पूरी उम्मीद है कि ये सचिन का आखिरी वर्ल्ड कप होगा। 37 साल के पायदान पर खड़े सचिन अगले वर्ल्ड कप से पहले ही संन्यास ले लेंगे। उनके फैन्स तो यही चाहते हैं कि लंका के खिलाफ सचिन 100वां शतक भी लगाएं और हम वर्ल्ड कप भी जीत जाएं। लेकिन टोने-टोटकों की बात मानें तो सचिन का शतक भारत के फेवर में नहीं जा पाता। उस दिन भारत हार जाता है। ऐसे में सचिन के कुछ फैन्स दिल पर पत्थर रखकर ये दुआ कर रहे हैं कि भले ही सचिन 90 और 100 के बीच आउट हो जाएं पर भारत वल्र्ड कप जीत जाए। सचिन जैसे महान बल्लेबाज के रहते भारत में वल्र्ड कप आना जरूरी है। वरना आने वाली पीढ़ी यही कहेंगी कि भारत में वो कैसा क्रिकेट का भगवान था जो अपने रहते वर्ल्ड कप भी न दिला पाया। इसलिए 100वां शतक आगे किसी वनडे में पूरा कर लिया जाएगा। अभी जरूरी है वल्र्ड कप। लेकिन अगर दोनों हाथों में लड्डू मिल जाएं तो कहने ही क्या।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...