जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को गद्दी ज्यादा रास आ रही है। रास आए भी क्यूं न ये उनकी खानदानी गद्दी है जिस पर कभी उनके पिता और उससे पहले उनके दादा विराजमान थे। और भारतीय लोकतंत्र अगर इसी पैटर्न पर चलता रहा तो आगे चलकर उमर की संतानें इस गद्दी की शोभा बढ़ाएंगी। ये वही अब्दुल्ला परिवार है जिसने कभी सत्ता से बाहर रहना नहीं सीखा। जब ये परिवार दिल्ली में होता है तो इसके सुर कोई और होते हैं और जब ये कश्मीर में होता है तो दूसरे। सत्ता की लोलुपता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उसका सुख भोगने के लिए ये परिवार उनका भी दामन थाम सकता है जिनको ये अपना दुश्मन कहता है, जिनके साथ इनका न विचार मेल खाता है और न विचारधारा। जिस भाजपा को सुबह से शाम तक गरियाने में जो पार्टी कभी पीछे नहीं रहती उसी पार्टी के मुखिया भाजपा को समर्थन देकर वाजपेयी मंत्रीमंडल में मंत्री भी बन जाते हैं। किसी भी कीमत पर सत्तासुख भोगने वाले लोग क्या कभी राष्ट्रहित में निर्णय ले सकते हैं? उनकी नजरों में सदैव कुर्सी प्रथम होती है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की जो मांग कर रहे हैं उसको उनकी सत्ता की महत्वाकांक्षा और इमोशनल वोट बैंक पाॅलिटिक्स के नजरिए से क्यों न देखा जाए? खैर बात हो रही है गद्दी पर रासलीला की। उमर ने शिगूफा छेड़ा है कि जम्मू-कश्मीर में प्रयोग के तौर पर कुछ इलाकों से सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून हटा दिया जाए।
मुख्यमंत्री के इस बयान से देश में एक बहस छिड़ गई है। तमाम तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार संगठनों ने लामबंद होकर उनका समर्थन करना शुरू कर दिया है। पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर की समस्या को एक ही चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है। जबकि दोनों जगह ये कानून लगाने के पीछे अलग-अलग कारण हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला का उदाहरण देकर कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मांग की जा रही है। कल एनडीटीवी पर प्राइमटाइम में इस विषय पर एक बहस दिखाई जा रही थी, जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता कम पत्रकार राहुल पंडिता भारतीय सेना को समाज का शत्रु बताने पर तुले थे। उनकी बातों में झलक रहा था मानो भारतीय सेना विश्व की समस्त सेनाओं में मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन कर रही है। और अपने इन्हीं कुतर्कों के आधार पर वे कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मां कर रहे थे। बहस में मौजूद आर्मी के रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी ने तो उनकी अच्छी खबर ली और जमकर सुनाया। बहस के दौरान जनरल बख्शी को इतना गुस्सा आ गया कि पंडिता का चेहरा पीला पड़ गया।
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जनरल बख्शी का गुस्सा लाजमी था। मानवाधिकार के दो-चार कानून पढ़कर और उसके नाम पर विदेशों से फंड इकट्ठा करके मलाई मारने वाले चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने छिछले ज्ञान से भारतीय सेना पर उंगली उठाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। ऐसी हरकत करते हुए वे ये भूल जाते हैं कि अगर जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में सेना की मौजूदगी न होती तो आज देश के गई टुकड़े हो गए होते। वे भूल जाते हैं कि कितने जवानों ने देश को अखंड रखने के लिए अपने प्राणों की आहुतियां दीं।
खुद को लीग से हटकर दिखाना और नाॅर्मल चीजों पर एब्नाॅर्मल राय देना या तो फैशन बन गया है या फिर उसमें कोई न कोई फायदा निहित होता है। लेकिन दुखद पक्ष ये है कि इस ट्रेंड में हमने अपनी सेना को भी टार्गेट करना शुरू कर दिया है। इससे हमारे उन सैनिकों पर जो देश के लिए अपना खून बहाते हैं क्या असर पड़ेगा इसका अंदाजा लगाना कठिन है। हो सकता है कि इस कानून की वजह से एक-दो घटनाएं ऐसी घटित हुई हों जिसमें मानवाधिकारों का हनन हुआ हो। लेकिन अगर इस कानून का आधार न होता तो कश्मीर के अलगाववादी संगठन कब का उसे निगल गए होते। इस कानून का ही डर है कि आतंकी अपना सिर उठाने से घबराते हैं। यही कानून का सहारा है कि फौज हर साल अपने दम पर अमरनाथ यात्रा संपन्न कराती है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के भरोसे अमरनाथ यात्रा कभी नहीं पूरी की जा सकती। आज जिस कश्मीर में जिस शांति की दुहाई दी जा रही है वो भी फौज के दम पर ही है। एक दिन के लिए भी अगर फौज को वहां से बुला लिया जाए तो उमर अब्दुल्ला अपनी लाड़ली कुर्सी ढूंढते रह जाएंगे। लाखों विस्थापित कश्मीरी पंडितों के मसले पर आज तक जम्मू-कश्मीर सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई, वो सरकार अगर मानवाधिकार की बात करती है तो समझ से परे है। ताली एक हाथ से नहीं बजती। अच्छा हुआ होता अगर एफ्सपा हटाने से पहले विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाने के बारे में कोई कदम उठाया होता।
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