
लेकिन हम भारतीयों की सबसे अच्छी बात यही है कि हम हर परिस्थिति में एडजस्ट कर लेते हैं। हमने महंगाई के साथ भी एडजस्ट करना सीख लिया है। घर की गृहणी से लेकर बच्चों तक को समझ हो गई है कि महंगाई बहुत ज्यादा है माता-पिता के सामने नाजायज मांगें न रखें। अबकी दीवाली पर जब मैं मुरादाबाद में पटाखों के बाजार में गया तो देखा कि बच्चे नन्हीं-नन्हीं थैलियों में पटाखे खरीदकर ले जा रहे थे। किसी के पास पटाखों का जखीरा नहीं था, मानो केवल नेग करने के लिए पटाखे खरीद रहे हों। पटाखा बाजार में बैठे दुकानदार भी कुछ खास उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे। महंगाई के चलते दुकानदारों ने भी माल कम ही मंगवाया था। अब से तीन-चार साल पहले मैंने उसी शहर में लोगों को बोरे भर-भर कर पटाखे खरीदते देखा था।
लेकिन इस महंगाई का सबसे दुखद पक्ष यही है कि सबसे ज्यादा मार रोटी पर है। खाने-पीने की वस्तुओं के जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं, वह बेहद निराशाजनक है। इलेक्ट्राॅनिक्स आइटम हों या आॅटो बाजार यहां काॅम्पटीशन के चलते बहुत ज्यादा महंगाई की मार नजर नहीं आती। बल्कि कार और बाइक खरीदना तो कहीं आसान हो गया है, लेकिन पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के बीच उनको चलाना एक टेढ़ी खीर है। लेकिन रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़ी चीजों पर तो महंगाई ऐसे चढ़कर बैठ गई है जैसे मुर्गी अपने अंडों पर बैठती है। आटा, चावल, दालें, तेल, चीनी, सब्जियां, फल, दूध, दही, पनीर जैसी चीजों के दाम आम आदमी को चैन से सोने नहीं दे रहे। खाने की चीजों के दाम तब आसमान छू रहे हैं जब हम रिकाॅर्ड फसल उत्पादन का दावा करते हैं और हमारे भंडार भरे हुए हैं। लेकिन इस रिकाॅर्ड उत्पादन का लाभ न तो गांव के किसान को हो रहा है और न शहर के उस ग्राहक को हो रहा है जो परचून की दुकान से आटा खरीदता है। इन दोनों के बीच में कोई है जो बहुत मोटा कमा रहा है। वो कौन है, कैसा दिखता है, क्या करता है, ये किसी को नहीं पता। वो एकदम उस ब्रह्म के समान है, जो है लेकिन दिखता नहीं। उसकी लीला कुछ ऐसी है कि देश की पूरी जनता को कठपुतली के समान नचा रहा है। वो कोई बहुत गहरा और समझदार कलाकार है, जो बड़ी सफाई के साथ किसानों का पसीना पी रहा है और जनता का टैक्स हड़प रहा है। जैसे ब्रह्म को जानना बहुत कठिन है उसी प्रकार इस कलाकार को भी पहचानना बेहद मुश्किल है। जैसे कठिन साधना के उपरांत अगर कोई ब्रह्म को जान लेता है तो उसको जानने के बाद उसी के जैसा बन जाता है, उसी प्रकार इस कलाकार को जब कोई पहचान लेता है तो वो भी उसी के रंग में रंग जाता है। इसलिए आम लोगों की परिस्थिति जस की तस बनी रहती है।
विडंबना ये है कि अर्थव्यवस्था का ये हाल तब है जब देश का प्रधानमंत्री एक अर्थशास्त्री है। अर्थशास्त्री भी ऐसा-वैसा नहीं, जिसके अर्थज्ञान का की चर्चा दसों दिशाओं में होती रही है। देश के पास एक ऐसी सरकार है जो मंचों पर केवल आम आदमी की बात करती है। जिसके युवराज अपना फोटो खिंचवाने और रोटी खाने के लिए गरीब से गरीब की झोंपड़ी खोजते फिरते हैं। पता नहीं युवराज अपनी आंखों पर कौनसा चश्मा लगाकर जाते हैं कि उनको उन परिवारों की समस्याएं नहीं दिखतीं। क्योंकि ये भी हमारे समाज की संस्कृति का हिस्सा है कि हम अतिथि के सामने अपनी समस्याओं का रोना नहीं रोते। ये सामने वाले की पारखी नजर होती है जो बिना कहे चीजों को समझ लेती है।
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