सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

जगह-जगह से उठ रही हैं बदलाव की सुगबुगाहटें!

2012 की शुरुआत एक ऐसे समय में हुई है जब लीबिया में गद्दाफी की तानाशाही खत्म हो चुकी थी और विश्व के दूसरे कोनों से क्रांति की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। ज्यों-ज्यों 2012 आगे बढ़ रहा है अशांति बढ़ती जा रही है। अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया, मिस्र, इजराइल, ईरान, इराक और पाकिस्तान सरीखे देश युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। कोई दिन ऐसा जा रहा है जब इन इलाकों से खून बहने की खबरें नहीं आतीं। वहां की आवाम में आक्रोश है, जनमानस में और इन सभी क्षेत्रों में कहीं न कहीं अमेरीकी दखल है। और तिब्बत कुछ ऐसे देशों के नाम हैं जहां अशांति की सबसे ज्यादा सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। एक तरफ इजराइल-ईरान भिड़ने को तैयार हैं और अप्रैल या जून में युद्ध की बात कही जा रही है। सीरिया की तपिश भी थमने का नाम नहीं ले रही है। मिस्र में लोकतंत्र की बहाली के बावजूद हालात इतने तनावपूर्ण हैं कि फुटबाॅल मैच के बहाने लोग एक-दूसरे पर हमला कर बैठे। इराक से अमेरिका ने बाॅय-बाॅय कर दी है, लेकिन वहां से भी आए दिन धमाकों की खबरें आ रही हैं। इराक और अफगानिस्तान दोनों देशों में अमेरिका ने हिंसक युद्ध के दम पर जीत तो हासिल कर ली लेकिन शांति स्थापना अभी दूर की कौड़ी दिख रही है। इधर सालों से अहिंसा के मार्ग पर चलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे तिब्बत के लोगों का धैर्य भी अब जवाब दे रहा है और तिब्बत से भी हिंसा और आत्मदाह की खबरें मिल रही हैं। और जिस आतंकवाद के दम पर पाकिस्तान पिछले कई दशकों से भारत के साथ कायरतापूर्ण हरकतें करता आ रहा था, वही आतंकवाद अब पाकिस्तान के सिर पर चढ़कर नाच रहा है। वहां की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार आतंकी सरगनाओं के हाथ की ऐसी कठपुतली बन कर रह गई है जिसका कोई भविष्य नहीं। पाकिस्तान इस समय अभूतपूर्व अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। माली हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वहां की सेना ने इस बार सत्ता हथियाने का गोल्डन चांस हाथ से जाने दिया। क्योंकि फौज जानती थी कि वो लाख कोशिशों के बावजूद पाकिस्तानी खोखली अर्थव्यवस्था को नहीं संभाल पाएगी और आवाम को दो जून की रोटी नहीं मुहैया करा सकेगी। ऐसे में सारा ठीकरा अपने सिर फुड़वाने से अच्छा फौज ने बाहर बैठकर शासन चलाना बेहतर समझा।

कुल मिलाकर 2012 बड़े बदलावों के संकेत दे रहा है।

बदलाव के बादल इधर भारत पर भी मंडरा रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में अभूतपूर्व जनजागरूकता है। बड़े-बड़े दिग्गज कानून की गिरफ्त में हैं। आला पदों पर बैठे सत्तानशीनों के माथे से पसीने टपक रहे हैं। भारत की शांति प्रियता और दूसरे देशों पर हमले की पहल न करने की नीति का लाभ आज प्रत्यक्ष नजर आ रहा है। इस नीति पर चलकर देश ने न केवल बेहतरीन आर्थिक विकास किया है बल्कि मुल्क में लोकतंत्र भी मजबूत हुआ है। वो बात दीगर है कि भ्रष्टाचार के दम पर अरबों-खरबों में खेलते जनसेवक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का एक काला पक्ष है। लेकिन अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और डाॅ. सब्रमण्यम स्वामी की तिकड़ी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अनोखा सामाजिक युद्ध छेड़ रखा है। इस सामाजिक युद्ध में हार चाहे सरकार की हो या सामाजिक संगठनों की, लेकिन इसका परिणाम सिर्फ अच्छा ही होगा। क्योंकि जब तक इस सामाजिक युद्ध का फैसला होगा तब तक देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ गली-गली तक जागरुकता फैल जाएगी। और सरकार भले ही इन सामाजिक कार्यकर्ताओं को साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर हरा दे, लेकिन इस देश की सरकारों को अब बदलना ही होगा। रही बात देश की शांति प्रियता की तो भारत का इतिहास है कि कभी हमने किसी देश पर हमले की पहल नहीं की। लेकिन हर हमले के लिए हमने खुद को तैयार कर रखा है। हाल में हुए विश्व के सबसे बड़े रक्षा सौदे में भारत ने 50 हजार करोड़ रुपए की मोटी रकम खर्च करके फ्रांस से 126 राफेल विमान खरीदे हैं जो अगले कुछ सालों में भारत को मिलेंगे। इस रक्षा सौदे पर विश्व के तमाम हथियारों के सौदागर भारत के सामने अपनी लार टपका रहे थे। लेकिन सौदा फ्रांस की झोली में गिरते ही अमेरिका और ब्रिटेन सरीखे देश हाथ मलते रह गए। इस सौदे के बाद भारत ने विश्व के सामरिक बाजार में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है। पर हम अपनी नीतियों पर इसलिए ज्यादा खुश नहीं हो सकते क्योंकि इन्हीं नीतियों के चलते हम पाक अधिकृत कश्मीर, अक्साई चिन और अरुणाचल का काफी हिस्सा गंवा चुके हैं। जबकि 62 के युद्ध को भी हरगिज नहीं भुलाया जा सकता है।

फिर भी पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है कि 2012 में बदलावों बयार भारत के पक्ष में बहने वाली है।

इसे आप अटल जी की सरकार वाला फील-गुड फैक्टर भी समझ सकते हैं। लेकिन ये ‘‘फीलिंग’’ काफी मजबूत है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कल ही कहा है कि पाकिस्तान अब कश्मीर के नाम पर युद्ध नहीं झेल सकता। जबकि सच्चाई ये है कि पाकिस्तानी स्थिति इतनी नाजुक है कि वो इस समय अपने देश के अंदर का ही असंतोष नहीं झेल पा रहा है। अब वो अपनी आवाम को कश्मीर के नाम की अफीम नहीं सुंघा सकता। वहां की आवाम अब बेहतर जिंदगी चाहती है। पाकिस्तान में अमेरिका का बढ़ता दखल वहां की आवाम और कट्टरपंथियों को अब एक आंख नहीं सुहा रहा। जबकि अमेरिकी वहां से हटने को हरगिज तैयार नहीं और पाकिस्तान की जम्हूरियत वाॅशिंगटन से मिलने वाले डाॅलरों और अपनी जनता के बीच पिसने को मजबूर है। अफगानिस्तान और इराक में लगातार दो युद्ध लड़ने और उसके बाद दोनों देशों में अपनी सेना को युद्धक्षेत्र में बनाए रखने में अमेरिका को नुकसान भी बहुत हुआ है। और उसको पानी की तरह खरबों डाॅलर बहाने पड़ रहे हैं। जिसके चलते अमेरिका की आर्थिक स्थिति पर भी लगातार असर पड़ रहा है। ओबामा ने अमेरिकी आर्थिक नीतियों में कुछ फेरबदल जरूर किए लेकिन कोई करिश्माई निर्णय अभी तक सामने नहीं आया है। जबकि राष्ट्रपति पद के चुनाव जरूर सामने आ गए हैं। जिस तरह अमेरिका ईरान और पाकिस्तान में दखल दे रहा है, उसको देखते हुए अगर अमेरिका को एक और युद्ध लड़ना पड़ जाए तो क्या वो अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले रख पाएगा और फिर इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?

आने वाला समय बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन वो किस तरह करवट बदलेगा ये किसी को नहीं पता।

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