
एक आम भारतीय रेल पूरे भारतीय समाज का प्रतिबिंब होती है। अगर भारत के आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक विविधता के बारे में जानना और सीखना है तो प्लेटफाॅर्म पर खड़ी किसी भी ट्रेन को आगे से पीछे तक देख लेना, तो सब समझ आ जाएगा। शताब्दी, राजधानी, एसी स्पेशल, गरीब रथ, दुरंतो आदि ट्रेनों को छोड़ दिया जाए तो बाकी किसी भी एक्सप्रेस ट्रेन से आप भारत को समझ सकते हैं। साधारणतयः एक एक्सप्रेस ट्रेन में सबसे आगे इंजन लगता है, उसके पीछे पार्सल यान (जिसमें आधा डिब्बा महिलाओं और विकलांगों के लिए आरक्षित होता है), उसके बाद होती हैं दो जनरल बोगी, फिर लगती हैं रिजव्र्ड स्लीपर क्लास बोगी, चार पांच स्लीपर क्लास के बाद फस्र्ट एसी-सेकेंड एसी-थर्ड एसी, इसके बाद फिर से बची हुई स्लीपर क्लास, अंत में फिर से दो जनरल बोगी और सबसे अंत गार्ड साहब का डिब्बा। कुल मिलाकर लंबी दूरी की एक नाॅर्मल ट्रेन तकरीबन 20 डिब्बों को जोड़कर बनती है।
इन एक्सप्रेस ट्रेनों में जुड़े डिब्बों के क्रम को देखकर ही आप भारतीय सामाजिक व्यवस्था को देख सकते हैं। टेªन के शुरुआत और अंत में लगे जनरल डिब्बे भारत के लोअर क्लास को प्रदर्शित करते हैं। उसके अंदर घमासान भीड़, दरवाजों पर टंगे लोग, पांव रखने की जगह नहीं, इंच भर स्थान के लिए जद्दोजहद, शोर-शराबा, गाली-गलौज, पसीने की महक, टीटी का यात्रियों को डपटना और उन पर ऐंठना, यात्रियों का एक-एक रुपए के लिए वेंडर्स से झगड़ना, जनरल डिब्बे का ये दृश्य देश के लोअर क्लास को दर्शाता है। इस क्लास को हर जगह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है। ट्रेन में जनरल डिब्बे सबसे डेंजरस जोन में जोड़े जाते हैं। यानि सबसे आगे और सबसे पीछे। अगर ट्रेन की आगे से टक्कर हुई तब भी और अगर किसी ने पीछे से किसी ने दे मारी तब भी, सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं डिब्बों में बैठे यात्रियों को होता है। उसी तरह आम जीवन में भी जो देश का गरीब तबका है वो हर क्षण डेंजरस जोन में ही जीता है।
उसके बाद होते हैं स्लीपर क्लास, इनकी संख्या सबसे ज्यादा होती है। अमूमन दस डिब्बे होते हैं। ये देश की मिडिल क्लास को प्रदर्शित करते हैं। इसमें सांस लेने के लिए जगह होती है, बहुत आरामदायक तो नहीं पर दरवाजों पर टंगने की नौबत नहीं होती, शोर-शराबा कम होता है, लोग किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बहस करते पाए जा सकते हैं, टीटी इस डिब्बे में ऐसे बात करता है जैसे अपने समकक्षों से बात कर रहा हो, लेकिन कोई चूं-चपड़ करे तो उसको डांट भी देता है। यहां वेंडर यात्रियों के साथ थोड़ा अदब से पेश आते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्लीपर क्लास न तो सेफ जोन में होता है और न डेंजरस जोन में। भारतीय मिडिल क्लास का आम जीवन देखा जाए तो आपको ऐसा ही मिलेगा, उसके घर बहुत बड़े तो नहीं पर उसमें पर्याप्त जगह होगी। उसे अपने आप से और देश से काफी उम्मीदें हैं। वो समाज में एक सम्मानित जीवन जीने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है।
स्लीपर क्लास के बाद होता है थर्ड एसी। इस डिब्बे में बाहर के कोलाहल और मौसम का कोई फर्क नहीं पड़ता। आप शांति से अपनी यात्रा कर सकते हैं। थर्ड एसी देश के हायर मिडिल क्लास को प्रदर्शित करता है। इसमें बैठे लोग थोड़ा साॅफिस्टिेकेटेड दिखने की कोशिश कर रहे होते हैं। लेकिन उनकी बनावट साफ दिख जाती है। वैसे तो लोग शांत बैठने की कोशिश करते हैं, लेकिन कुछ सीटों पर बैठे लोग कभी-कभी चिल्लाकर बात करके जता देते हैं कि अपन तो देसी लोग हैं, भले ही एसी में बैठे हों। यहां टीटी और वेंडर यात्रियों के साथ पूरी अदब के साथ बात करते हैं। किसी बात का उजड्ड जवाब नहीं देते। कुछ ऐसी ही हालत कमोबेश सेकेंड एसी की होती है। बस उसमें जगह थोड़ी ज्यादा होती है। लोग थोड़े ज्यादा खामोश होते हैं।
फिर होता है फस्र्ट ऐसी। भारतीय ट्रेन की सर्वोच्च क्लास जो देश की हाई सोसायटी को प्रदर्शित करता है। अलग-अलग चैंबर्स में चैड़ी-चैड़ी सीटें, हाइली इलीट क्लास लोग, कोई किसी कंपनी का सीईओ, कोई राजनेता, तो कोई बड़ा बिजनेसमैन, सब अपने-अपने में सीमित, बेहद शांत वातावरण, बात करने में अंग्रेजीदां अंदाज, कोई उजड्डई नहीं, अगर कोई उजड्डई दिखाए भी तो सब उसको ऐसे देखते हैं मानो किसी जानवर को देख रहे हो, टीटी इस डिब्बे के यात्रियों से बात करते वक्त कमर तक झुक सकता है, उनकी डांट भी खा सकता है, वेंडर को तो बात-बात पर डांट पड़ती ही है। तो इस डिब्बे में आप देश की हाई सोसायटी के दर्शन कर सकते हैं। एसी डिब्बे ट्रेन के बीचोंबीच सबसे सेफ जोन में लगाए जाते हैं। ताकि एक्सीडेंट की स्थिति में सबसे कम नुकसान हो। दूसरे ये डिब्बे बीच में होने के कारण हमेशा प्लेटफाॅर्म पर पुल के पास या दरवाजे के पास रुकते हैं, इससे इनमें बैठे यात्रियों को उतरने के बाद ज्यादा दूर चलना भी नहीं पड़ता।
इस संडे को आनंद विहार-काठगोदाम एसी एक्सप्रेस से मैंने गाजियाबाद से मुरादाबाद तक का सफर किया। मेरी साइड अपर बर्थ थी, सो मैं नीचे वाली बर्थ खाली देखकर उस पर लेट गया। संयोग से वो बर्थ स्टाफ सीट थी। कोच के अटेंडेंट ने बैठने की इच्छा जाहिर की तो मैंने उसको साथ में बैठा लिया और उससे बातचीत शुरू की। उसके जीवन व रेल के बारे में कई प्रश्न किए। तब उसने मुझे एक बड़ी रोचक जानकारी दी। बोला, ‘सर एसी कोच में बेडिंग के साथ तौलिया भी दी जाती है। लेकिन तौलिए की चोरी बहुत होती है। सो हम केवल फस्र्ट एसी में ही टाॅवल देते हैं। थर्ड और सेकेंड ऐसी में टाॅवल देनी बंद कर दी है। थर्ड एसी में 72 बर्थ होती हैं अगर मैं टाॅवल दे दूं तो कम से कम 35 टाॅवल गुम हो जाएंगी। अब मैं किसी के बैग तो नहीं चेक कर सकता न सर!’ तो आप कोच अटेंडेंट के इस खुलासे से भी भारतीय समाज के बारे में सीख, समझ और अंदाजा लगा सकते हैं।
कोच अटेंडेंट से बातचीत में मिली जानकारी पर अभी और लिखना बाकी है।
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