पांच राज्यों के चुनाव परिणाम देश के राजनीतिक व्यवस्था के लिए कई पाठ सिखाने वाले हैं। शह और मात के राजनीतिक खेल में कई पार्टियों के समीकरण बिगाड़ कर रख दिए हैं। सपा, बसपा, भाजपा, अकाली और कांग्रेस के लिए ये चुनाव कई सबक लेकर आए। सबसे अच्छी बात ये रही कि उत्तराखंड को छोड़कर हर जगह जनता ने एक पार्टी के पक्ष में बहुमत दिया है। न त्रिशंकु विधान सभा, न राष्ट्रपति शासन और न मध्यावधि चुनावों की गुंजाइश। उत्तराखंड में भी परिस्थितियां इतनी बुरी नहीं हैं। कांग्रस या भाजपा अन्यों के भरोसे अगर सरकार बनाती है तो वो स्थाई ही होगी। इन चुनावों के परिणामों ने साफ कर दिया है कि आवाम अब पहले से काफी जागरूक है। जनता ने तमाम गुंडों, दबंगों और बाहुबलियों को हराकर साफ संदेश दे दिया है कि उसे अपने ही जैसे साफ-सुथरे और सज्जन नेता चाहिए। पार्टियां इन चुनावों से क्या सबक ले सकती हैं, आइए डालते हैं एक नजरः
समाजवादी पार्टीः सबसे पहले बात सपा की करते हैं जिसके सिर पर जनता ने जीत का सेहरा बांधा है। इस जीत का श्रेय अगर अखिलेश यादव को दिया जा रहा है तो इसमें कोई गलत नहीं है। ये अखिलेश ही हैं जिन्होंने पार्टी में नए प्रयोग किए, खांटी नेताओं की जगह युवाओं को टिकट वितरित किए, जिनमें इंजीनियर, डाॅक्टर और मैनेजर शामिल हैं, पार्टी के दिग्गज नेताओं के खिलाफ जाकर डीपी यादव का टिकट कैंसिल कराया, गांव-गांव और गली-गली जाकर चुपचाप पार्टी के लिए काम किया। अखिलेश पिछले नौ साल से सपा के साथ राजनीति में सक्रिय हैं और दो बार से सांसद हैं। लेकिन नौ सालों में कभी अखिलेश ने मीडिया अटेंशन प्राप्त करने की कोशिश नहीं की। मीडिया को राहुल को युवराज-युवराज कहकर पुकार रही थी, लेकिन यूपी के असली युवराज अखिलेश साबित हुए। ऐसा नहीं है कि अखिलेश ने ग्रासरूट लेवल पर जाकर काम नहीं किया, उन्होंने कस्बाई स्तर तक जाकर जमकर काम किया लेकिन राहुल की तरह कभी कैमरे के सामने नहीं किया। शायद वो जानते थे कि दिखावे पर मत जाओ, अपनी अक्ल लगाओ। बेहद संयत भाषा में, बेहद विनम्र तरीके से वो जनता के बीच अपना काम करते रहे और छह मार्च को जनता ने उनके हक में परिणाम दे दिया। तब जाकर देश की मीडिया को एहसास हुआ कि देश में राहुल के अलावा भी एक और युवा नेता है। लेकिन अखिलेश ने अभी भी अपनी भाषा का संयम नहीं खोया, न माया के खिलाफ और न कांग्रेस के खिलाफ। चुनौतियाः लेकिन अखिलेश के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां इंतजार कर रही हैं। सपा के जिस गुंडाराज की बात हमेशा विपक्ष और मीडिया करता आया है, उसका एक ट्रेलर चुनावी नतीजे सामने आते ही दिखने लगा। शाम होते-होते यूपी के तमाम जिलों से हिंसा और मौतों की खबरें आने लगीं। अखिलेश में जो संमय और समझदारी है उस स्तर का संयम सपा के कार्यकताओं में ला पाना बेहद मुश्किल है, क्योंकि सपा का जनाधार समाज के बेहद निचले स्तर तक है, जहां सत्ता का मतलब केवल अहंकार के मद में चूर रहना होता है। अगर सपा के कार्यकर्ताओं ने इस बार भी थानों पर कब्जे, गुंडागर्दी और दबंगई दिखाई तो जनता सपा को 2014 में सबक सिखाने से गुरेज नहीं करेगी। ये एक तरह से अच्छा निर्णय है कि मुलायम मुख्यमंत्री बनेंगे, इससे अखिलेश को अपने संगठन को शक्ति देने का वक्त मिलेगा। लेकिन अखिलेश ने संगठन को संयमित करने के लिए कदम नहीं उठाए तो उनके लिए भारी पड़ सकता है। अखिलेश को देखना होगा कि वो राहुल गांधी की तरह पार्टी के कुछ चुनिंदा नेतओं के हाथों की कठपुतली न बनें, बल्कि इसी संयम और विवेक के साथ पार्टी को सीख देते रहें। प्रदेश ने जितनी बड़ी जीत दी है तो जनता अखिलेश से उतनी ही बड़ी उम्मीदें रखेगी। अगर वो जिलास्तर तक अपनी पार्टी के छुटभैये नेताओं को कंट्रोल करने और भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में सफल रहते हैं तो हो सकता है कि यूपी की जनता उन्हें दिल्ली की उस कुर्सी पर बिठा दे जिस पर राहुल की नजरें हैं।
बहुजन समाज पार्टीः बसपा को जिस नाज के साथ यूपी की जनता ने 2007 में लखनऊ के तख्त पर बिठाया था, बसपा उस जनता के लिए कुछ खास करने में विफल रही। जनता के करोड़ों रुपये खर्च करके अपने पुतले खड़े करवाकर माया ने भले ही खुद को और अपने एक खास वोट बैंक को भले ही खुश कर दिया हो, लेकिन प्रदेश की आम आवाम को ये शाही खर्च कतई पसंद नहीं आया। सत्ता में आते ही सबसे पहले माया द्वारा अपना बंगला बनवाना, जन्मदिन पर नोटों का हार पहनना, प्रशासनिक अधिकारियों से ब्रीफकेस लेना, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए हुई हत्याएं जनता के गले नहीं उतरीं। कांग्रेस के नेता भले ही कह रहे हों कि भ्रष्टाचार चुनावों में मुद्दा नहीं था, लेकिन अन्ना हजारे द्वारा चलाई गई भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का प्रदेश की जनता पर साफ-साफ असर दिखा। मायावाती जिस दलित समाज के कंधे पर पांव रखकर चार बार सत्ता पर काबिज हुईं उस दलित समाज की स्थिति में उनके इस पांच साल के शासन में कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिखाई। दलित समाज की माली हालत सुधरी हो या न सुधरी हो, लेकिन मायावती की आर्थिक स्थिति आज बेहद मजबूत है। माया जिस सख्त शासन के लिए जानी जाती हैं, अगर उस सख्ती का लाभ उन्होंने प्रदेश को सुशासन देने में उठाया होता तो यूपी की तस्वीर आज कुछ और होती। लेकिन उन्होंने इन पांच सालों को केवल निजी लाभ उठाने के लिए इस्तेमाल किया। जिस लाड़ के साथ जनता ने उनको 206 सीटें देकर सत्ता सौंपी थी, माया ने उस सत्ता को प्राप्त करके न तो विनम्रता दिखाई और न बड़प्पन, पांच साल तक केवल ऐंठ और अहंकार नजर आता रहा। वो देश की पहली ऐसी नेता बनीं जिसने जीते जी पार्कों में अपनी मूर्तियां ठुकवाईं, वो थोड़ा बहुत नहीं बल्कि करोड़ों का राजस्व खर्च करके। मंच पर खड़े होकर सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का नारा चिल्लाने से सर्वजन सुखी नहीं हो सकता। सर्वजन को सुखी करने के लिए कुछ करना भी पड़ता है। माया का थैली और ब्रीफकेस के प्रति प्यार प्रदेश में किसी से नहीं छिपा। टिकट बेचने से लेकर जन्मदिन के उपहारों तक। प्रशासन पर केवल सख्ती बरतने से सुधार नहीं हो सकता, प्रशासनिक अधिकारियों के मन में प्रदेश के मुखिया के प्रति सम्मान भी होना जरूरी है। वो सम्मान थैलियां बटोरने से तो नहीं आ सकता था। माया अगर ये सोच रही हों कि तमिलनाडु की तरह यूपी की सत्ता एक-एक बार सपा और बसपा को मौका देती रहेगी, तो भी ये उनकी भूल होगी। भाजपा और कांग्रेस अभी भी खेल में बनी हुई है। माया को चाहिए कि वो नारों को छोड़कर हकीकत में दलितों के उत्थान के लिए कुछ करके दिखाएं। उनका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर सुधारने के लिए जरूरी नहीं कि माया सीएम की कुर्सी पर बैठी हों, एक संगठन और आम नागरिक के तौर पर भी वो दलितों के उत्थान के लिए काफी कुछ कर सकती हैं, क्योंकि अभी काफी कुछ करना बाकी है। बसपा के लिए खुशी की बात यही है कि उसकी सत्ता रहे न रहे लेकिन हाथी और मूर्तियां बनी रहेंगी।
भारतीय जनता पार्टीः भारतीय जनता पार्टी के लिए गोवा को छोड़कर कहीं भी खुश होने की स्थिति नहीं है। यूपी में 51 से घटकर 47, पंजाब में 19 से घटकर 12 और उत्तराखंड में पार्टी 31 पर सिमट गई है। अटल बिहारी वाजपेयी के जाने के बाद भाजपा में जो शून्य पैदा हुआ है उसको भर पाना नामुमकिन लग रहा है। आदर्श, सिद्धांत और त्याग की बात करने वाली पार्टी की अंदरूनी हालत ऐसी हो गई है कि पदलोलुपता, टांग खिंचाई, भितराघात जैसी बीमारियां सिर चढ़कर बोल रही हैं। भाजपा आज एक डिवाइडेड हाउस नजर आ रही है। उत्तराखंड में निशंक ने अंदरखाने खंडूरी को हरवाने के पूरे प्रयास किए। वरुण गांधी, मेनका गांधी, योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी ने यूपी के प्रचार में भाग नहीं लिया। ये भाजपा के वो नाम हैं जिनको जनता पसंद करती है। लेकिन फिर पार्टी ने आपसी सौहार्द कायम करने की दिशा में कदम नहीं उठाए। पार्टी के खुद के नेता भाजपा के हारने की भविष्यवाणी कर रहे थे। वरुण ने कहा कि पार्टी में सीएम पद के 55 उम्मीदवार हैं, योगी ने कहा कि भाजपा हारेगी, संघ के काशी प्रचारक का बयान आया कि भाजपा हार ही जाए तो अच्छा। दरअसल ये सभी पार्टी का बुरा नहीं चाहते, बल्कि ये उनके अंदर का गुस्सा और पार्टी की कार्यप्रणाली के प्रति उनकी खुंदक बोल रही थी। यूपी में उमा भारती और राजनाथ सिंह सीएम पद के दावेदार थे, वरुण गांधी और मेनका गांधी भी महत्वपूर्ण भूमिका की चाहत में मुंह फुलाए थे। 2009 के आम चुनाव में आडवाणी के नाम पर भाजपा को जनता का मैंडेट नहीं मिला। अब पार्टी के अंदर पीएम पद के तमाम दावेदार हैं- मोदी, सुष्मा, राजनाथ, जेटली, मुरली मनोहर जोशी, ऐसे में पार्टी एकजुट होकर कभी चुनाव लड़ ही नहीं सकती। पार्टी की हार-जीत की तरफ किसी का ध्यान नहीं, सबको सीएम और पीएम बनना है। सीएम-पीएम न भी बनें तो दावेदार तो बनना ही बनना है। ऐसी परिस्थिति में भाजपा को अमेरिकी पार्टियों से सीख लेनी चाहिए और सीएम-पीएम पद के लिए चुनावों से पहले इंटरनल इलेक्शन करा लेना चाहिए। डिवाइडेड हाउस के तौर पर चुनाव लड़ने से अच्छा है कि एक बार इंटरनल डिविजन ही करवा लिया जाए। दूसरे भाजपा को अब मुसलमानों के प्रति जो उसकी छवि बना दी गई है, उस छवि को सुधारना होगा। ऐसा नहीं है कि भाजपा मुसलमानों के प्रति दुर्भावना से काम करती है। वाजपेयी सरकार के सात साल, और तमाम प्रदेशों में भाजपा की सरकारों के काम को देखा जाए तो भाजपा ने कहीं भी दुर्भावाना से काम नहीं किया है। गुजरात के दंगों को लेकर जरूर हायतौबा मची है। इस्लाम के प्रति भाजपा के मन में दुर्भावना होती तो वाजपेयी बस लेकर लाहौर न जाते, पाकिस्तान के फौजी तानाशाह को आगरा बुलाकर मुर्गमुसल्लम न खिलाते और आडवाणी-जसवंत जिन्ना की तारीफ में कसीदे न पढ़ते। भाजपा को अपना राष्ट्रवादी एजेंडा लोगों के बीच ले जाने की जरूरत है और राम मंदिर के मुद्दे को आपसी समझौते से सुलझाने की आवश्यकता है। भाजपा को अपना हाई प्रोफाइलपना छोड़कर आम लोगों के बीच पहुंच बनानी चाहिए। भाजपा को शहर की चमक से निकलकर गांवों की धूल भी छाननी चाहिए। भाजपा में धन को इतना महत्व दिया जा रहा है कि वो बनियों और उद्योगपतियों की पार्टी बनकर रह गई है। धन बहुत बड़ा फैक्टर होता है, लेकिन टिकट बांटते समय जनाधार वाले नेताओं को दरकिनार न किया जाए।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसः इन चुनावों में सबसे पतली हालत अगर किसी की हुई तो वो है कांग्रेस। इस राष्ट्रीय पार्टी ने इन चुनावों में गिरावट के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए। चुनाव आयोग को चुनौतियां दीं, खराब भाषा का इस्तेमाल किया, आस्तीनें चढ़ाईं, विरोधियों का माखौल उड़ाया, उनका मेनिफेस्टो फाड़े, आरक्षण का ओछा कार्ड खेला, लेकिन कुछ काम नहीं आया। राहुल गांधी 39 साल की उम्र में भी काफी अपरिपक्व नजर आ रहे थे। जो परिपक्वता अखिलेश ने इन नौ सालों में चुपचाप हासिल की, उस स्तर की परिपक्वता राहुल तमाम मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद हासिल नहीं कर पाए। चमचागीरी सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई। हार का तमगा टांगने के लिए पार्टी के तमाम बड़े नेता राहुल के चरणों में लंबलेट होने को तैयार हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ किया गया कांग्रेस का बुरा सलूक वोटों में ऐसा तब्दील हुआ कि दोनों भाई-बहन रायबरेली की इज्जत भी नहीं बचा पाए। कांग्रेस की केंद्र सरकार में लगातार उजागर हो रहे भ्रष्टाचार के मामले जनता को कतई पसंद नहीं आ रहे। राहुल गांधी मायावती के भ्रष्टाचार पर उंगलियां उठाने से पहले अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार पर लगाम कसते तो लोग उनपर कहीं ज्यादा पसंद करते। शायद ये पहली बार ही हुआ है कि सत्ता में रहते हुए किसी सरकार के कई मंत्री सलाखों के पीछे पहुंचे। लाख मुकदमों के बावजूद सुरेश कलमाड़ी को अभी तक कांग्रेस से निकाला नहीं गया है। लगातार बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से लोग परेशान हैं। उस पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ कांग्रेस ने जो बर्ताव किया वो बेहद निंदनीय है। सोते हुए लोगों पर लाठचार्ज करना किसी तानाशाही की याद दिलाता है। ये बात सही है कि कांग्रेस का अस्तित्व नेहरू-गांधी परिवार के बिना खतरे में पड़ जाता है। नरसिंह राव और सीताराम केसरी के जमाने में लगने लगा था कि कांग्रेस खत्म हो गई समझो। लेकिन सोनिया के बागडोर संभालने के बाद पार्टी में नई जान आई और उसके नेता फिर से कमाने खाने लगे। लेकिन गांधी परिवार का मतलब ये नहीं कि चमचागीरी की सारी हदें पार कर दी जाएं। आज कांग्रेस का एक-एक नेता रीढ़विहीन इंसान की तरह हो गया है, जो हर समय मैडम और बाबा के चरणों में गिरने को तैयार रहता है। प्रधानमंत्री से लेकर कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री जिस तरह राहुल की तारीफों के पुल बांधते हैं उसे देखकर लगता है कि सबकी आंखों में काला चश्मा चढ़ा है जिसमें से सिर्फ राहुल ही राहुल नजर आते हैं। राहुल के हावभाव से यही लगता है कि भारतीय राजनीति के लिए राहुल अभी कतई तैयार नहीं है। हालांकि यही बात इंदिरा गांधी के शुरुआती दिनों में भी कही जाती थी, लेकिन बाद में वो एक परिपक्व राजनीतिज्ञ साबित हुईं। लेकिन इन चुनाव परिणामों को देखकर कांग्रेस को हवा का रुख समझना चाहिए। जनता को आज वो कांग्रेस चाहिए जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था। जिसकी पहुंच गांव-गांव तक थी। जो सत्य, अहिंसा और त्याग की बुनियाद पर खड़ी थी। जहां पद की लोलुपता के लिए जगह नहीं थी। कांग्रेस को पार्टी और यूपीए के अंदर खाओ और खाने दो की प्रवृत्ति पर लगाम कसनी होगी। अन्यथा देश के साथ-साथ पार्टी का भी बंटाधार हो जाएगा। दूसरी बात, मुसलमानों के लिए मंच से बड़ी-बड़ी बातें करके उनको वोटबैंक बनाने से बेहतर होगा कि पार्टी मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने के लिए हकीकत में कोई दूरगामी कदम उठाए। केवल कर्जा माफी, आरक्षण और पैसा बांटने से किसी समुदाय का विकास नहीं हो सकता। मुसलमानों के बीच जो अशिक्षा है सबसे पहले उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।