Sunday, May 20, 2012

एक गर्म चाय की प्याली हो...


मोंटेक सिंह आहलुवालिया का ये आश्वासन कि अगले साल अप्रैल में चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित कर दिया जाएगा, आश्वासन ही रह गया। केंद्र सरकार फिलहाल चाय को ये दर्जा न देने का मन बना चुकी है। मोंटेक के आश्वासन के बाद साफ लगने लगा था कि चाय राष्ट्रीय पेय बन जाएगी. लेकिन केंद्र सरकार ने चाय को ये दर्जा देने पर खड़े होने वाले संभावित विवादों को पहले ही ताड़ लिया और ये फैसला टाल दिया.

चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने पर सवाल यही उठता कि आखिर चाय ही क्यों? देश में हजारों तरह के पेय हैं, सब के सब एक से बढ़कर एक, तो फिर चाय ही क्यों? पंजाब वाले लस्सी लेकर आ जाते, हरियाणे वाले दूध लेकर खड़े हो जाते, जम्मू कश्मीर वाले कहवा को लेकर शोर मचाने लगते, यूपी वाले छाछ की बाल्टी लेकर दस जनपथ पहुंच जाते, गुजरात की पूरी श्वेत क्रांति दिल्ली पहुंच जाती, दक्षिण वाले कॉफी की प्याली फूंकने लगते, बाबा रामदेव एलोवेरा जूस के पक्ष में आवाज उठाते, सारे क्रिकेटर पेप्सी-कोक को राष्ट्रीय पेय बनाने पर अड़ जाते, दारूबाज पियक्कड़ शराब को भी यही दर्जा देने की मांग करने लगते, चाय के खिलाफ स्वदेशी और राष्ट्रवादी आंदोलन खड़े हो जाते और न जाने क्या-क्या हो सकता था? सो, केंद्र सरकार के किसी समझदार सचिव ने अपनी तजुर्बेकार आखों पर चढ़े चश्में के लेंस से दूरदृष्टि का प्रयोग करके इन संभावित खतरों को देख लिया होगा और सरकार से इस जोखिम को न उठाने की सलाह दी होगी। 

हालांकि मोंटेक सिंह के आश्वासन के बाद चाय उत्पादकों ने उत्सव सा मनाना शुरू कर दिया था। लेकिन सरकार की न-नुकुर के बाद सब फुस्स हो गया। चाय को राष्ट्रीय दर्जा मिलने पर बीबीसी हिंदी भी कुछ कम खुश नहीं था। बीबीसी ने तो भारत में चाय के अच्छे उत्पादन के पीछे ब्रिटेन की औपनिवेशिक नीतियों की पीठ भी थपथपानी शुरू कर दी और बारे में इतिहास खंगालू लेख भी लिख डाले। बीबीसी के मुताबिक 2011 में 85 करोड़ किलोग्राम चाय की खपत देश में ही हो गई। अगर चाय के प्रति भारतीयों की दीवानगी ऐसी ही चलती रही तो भारत को आने वाले समय में चाय का आयात करना पड़ सकता है।

वैसे सच है कि देश में चाय एक नशा बन चुकी है। कहते हैं कि इंडिया में एवरी टाइम इज टी टाइम, यानि यहां चाय का कोई समय नहीं, जब चाहो, जहां चाहो। घर में कोई मेहमान आए उसकी लाख खातिरदारी कर लीजिए, लेकिन अगर चाय न पिलाई तो भाड़ में गई सब खातिरदारी। सरकारी मीटिंग हो या ट्रेड यूनियन की मीटिंग चाय के बिना अधूरी। ठेठ राष्ट्रवादी और स्वदेशी के झंडाबरदार तमाम नेताओं की जिंदगी का आधार भी चाय ही है। सुबह से शाम तक सात्विक भोजन पर प्रवचन देने वाले संतों के आश्रमों में भी चाय का दबदबा कायम है। कई मंत्री तो चाय के नाम पर ही सालाना लाखों डकार जाते हैं। किसी सरकारी विभाग में काम कराने जाओ तो क्लर्क रिश्वत की जगह चाय-पानी के लिए पैसे मांगता है। लड़की का रिश्ता तय होता है तो वो अपने संभावित ससुराल वालों के सामने चाय की ट्रे लेकर ही प्रकट होती है। रेलवे स्टेशन पर फेरी वाले की अंतडिय़ों से निकलने वाली चाय-चाय की आवाज न हो तो काहे का स्टेशन। कुछ लोगों को अगर उनकी पत्नी सुबह-सुबह चाय ने दे तो उनका पेट हल्का नहीं हो पाता। कहानीकार और पत्रकार न जाने कितने किस्से कहानियां चाय के खोखे पर ही बनाते हैं। भारत में चाय की महिमा अपरंपार है। लिखते-लिखते लव हो जाए। लेकिन इस महिमा मंडन के चलते चाय को राष्ट्रीय पेय बना दिया जाए, तो ये बात कुछ हजम नहीं होती।

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