Tuesday, August 20, 2013

भारत मतलब हादसों का देश!

बिहार के खगडि़या के धमारा घाट स्टेशन पर हुई रेल दुर्घटना भारतीय रेल या भारत सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद के भारत को अगर हादसों का देश कहा जाए तो शायद ही किसी को ऐतराज हो। दुर्घटनाओं की फेहरिस्त बनाने लग जाएं तो आठ जीबी की पेनड्राइव में भी स्पेस कम पड़ जाए। दुर्घटनाएं हुईं, हो रही हैं और होती रहेंगी। देश के आम लोगों को मजबूत सुरक्षा मिलना अभी बहुत दूर की कौड़ी है। खगडि़या हादसे के बारे में अगर सरकारी चैनल की मानें तो दुर्घटना में 28 लोग मारे गए हैं, प्राइवेट चैनलों को सुनें तो 35 लोगों के मारे जाने की खबर है और अगर घटनास्थल पर लोगों की सुनें तो मृतकों की संख्या इस से भी कहीं ज्यादा है।

खैर, मृतकों की संख्या कितनी भी हो इससे सरकार की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सरकार तो ‘डिमांड एंड सप्लाई’ के फाॅर्मूले पर चलती है। देश की आबादी जरूरत से कहीं ज्यादा है, सो आम लोगों के मरने-खपने से कोई असर नहीं पड़ता। आम लोगों का दुर्भाग्य है कि उनका देश वो देश नहीं है, जहां एक-एक जान सरकार के लिए कीमती हो। जहां, लोगों की सुरक्षा के इंतजाम इतने पुख्ता हों, कि दुर्घटना की गंजाइश ही न हो। जहां एक भी जान जाने पर पूरा सरकारी तंत्र हिल जाता हो। जहां सिस्टम का रेस्पांस टाइम बहुत तेज हो। ये सब तो उन पश्चिमी देशों के इंतजाम हैं जिनकी नकल पर हमारी सरकार काम करती है। लेकिन नकल करते वक्त सरकार आम लोगों की सुविधा और सुरक्षा का पक्ष बड़ी सफाई से दरकिनार कर देती है और अपनी सहूलियत के हिसाब से चीजों को देश में लागू करती है।

खगडि़या की दुर्घटना पर बयान देते हुए बिहार के विकास पुरुष मुख्यमंत्री कह रहे थे कि घटना ऐसी जगह हुई है जहां पहुंचने के लिए रास्ते भी नहीं है। ये कहते हुए उनके चेहरे पर कतई संकोच नहीं था। यही कारण था कि मौके तक पहुंचने में एंबुलेंस पहुंचने में भी घंटों का वक्त लग गया। दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर सफर करने वाले तो ये सोच भी नहीं सकते कि देश में ऐसे स्थान होंगे, जहां पहुंचने के लिए सड़कें भी न हों। लेकिन यही इस विकासोन्मुखी भारत की सच्चाई है। दिल्ली जैसे कुछ मेट्रोपाॅलिटन शहरों को चमकाकर सरकार विकास का ढिंढोरा पीटती फिरती है। जबकि हकीकत कुछ और ही है।

आजादी के 66 साल बाद भी सरकारी सुरक्षा इंतजाम ऐसे हैं कि छोटी-छोटी गलतियों के कारण बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं सामने आ रही हैं। और इन दुर्घटनाओं के बाद देश के प्रधानमंत्री दिल्ली से बेहद सरकारी टाइप बयान जारी करके दुख जता देते हैं। संबंधित मंत्रालय और राज्य अपनी-अपनी तरफ से मुआवजा राशि घोषित कर देता है। सालों से यही प्रथा चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। सुरक्षा इंतजामात पुख्ता बनाने की दिशा में कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आती।

अगर भारतीय रेल की ही बात करें तो राजधानी दिल्ली के दोनों स्टेशनों की सुरक्षा में इतने छेद हैं कि आतंकी जब चाहें किसी भी घटना को अंजाम दे सकते हैं। बाकी स्टेशनों की बात करना ही बेमानी है। अगर आज हम अपने-अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं तो ये हमारा भाग्य है, इसमें सरकारी सुरक्षा इंतजामों का कोई योगदान नहीं है। पूरे देश के नागरिकों में ये असुरक्षा का भाव विद्यमान है, जिसको दूर करने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। काई जब चाहे आपके घर में चोरी कर सकता है, चेन स्नेचिंग कर सकता है, गाड़ी उठा सकता है, आप कभी भी कहीं भी एक्सीडेंट का शिकार हो सकते हैं। हमारा सिस्टम न तो इन घटनाओं को रोक पा रहा है और न ही हादसों के बाद कोई ठोस कदम उठाता है।

काश भारत ऐसा देश होता जहां इंसानों का मूल्य समझा जाता। अमेरिका में अप्रैल में हुए बाॅस्टन बम ब्लास्ट में तीन लोग मरे और 140 घायल हुए। घटना के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा खुद चलकर बाॅस्टन गए और देश के लोगों को ये भरोसा दिलाया कि आगे से ऐसी घटना नहीं होने देंगे और जो लोग इस घटना के पीछे हैं उनको नहीं बख्शा जाएगा। लेकिन दिल्ली में बैठी सरकार का ज्यादातर वक्त अपनी कुर्सी बचाने, विपक्ष से टकराने, मंत्रणाएं करने और भ्रष्टाचार फैलाने में निकल जाता है। वहीं दिल्ली में बैठा मीडिया काॅस्मेटिक जर्नलिज्म करता है। दिल्ली और एनसीआर में बिजली भी चली जाए तो मीडिया में कोहराम मच जाता है, लेकिन उन गांवों तक कैमरा नहीं पहुंच पाता जहां आज भी रातें काली हैं। नोएडा के आरुषि मर्डर केस को तो नाॅन स्टाॅप 24-7 कवरेज मिल सकती है, लेकिन छोटे-छोटे शहरों में हर रोज मर रही आरुषियों को बचाने के लिए मीडिया के पास कोई प्लान नहीं है।

लोकतंत्र और विकास की हवा-हवाई बातें करने से राजनीति और राजनीतिज्ञों का तो भला हो सकता है, लेकिन भारत और भारतीयों की इसमें कोई भलाई नहीं है। लोकतंत्र लालकिले पर चढ़कर बार-बार वही संकल्प दोहराने का नाम नहीं है, अगर आप सच्चे लोकतंत्र हैं तो आम लोगों पर उसकी झलक दिखनी चाहिए।

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