बुधवार, 21 अगस्त 2013

योजनाएं हैं योजनाआों का क्या?

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के जन्मदिवस के मौके पर दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में खाद्य सुरक्षा योजना शुरू कर दी गई। ये कोई पहली योजना नहीं है जिसे सरकार ने आम लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुरू किया है। लेकिन इसके सामने भी वही पुराना सवाल मुंह बाय खड़ा है कि बाकी तमाम योजनाओं की तरह क्या इस योजना का लाभ भी आम आदमी तक पहुंच पाएगा?

ये योजना अच्छी है। पहली तमाम योजनाएं भी अच्छी थीं। पर अपना सरकारी सिस्टम ही कुछ ऐसा है कि योजनाओं का लाभ जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पाता। देश के सर्वोच्च सत्ता केंद्र को देश की बुनियादी जरूरतों से जोड़ने के लिए अंग्रेजों ने जो सिस्टम इजाद किया था, उस सिस्टम में अब सड़ांध फैल चुकी है। सिस्टम सही है, लेकिन उसमें बैठे लोग या तो काम करना नहीं चाहते, या उनके पास सोच नहीं है, या फिर केवल मलाई मार रहे हैं।

दिल्ली में बैठे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने आम लोगों तक जो सस्ता राशन पहुंचाने का सपना देखा है, वो अंततः राज्य सरकारों और उनके नीचे बैठे नौकरशाहों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचना है। सरकार तो योजना की घोषणा और उसके लिए धन मुहैया कराकर पल्ला झाड़ लेती है। और पूरी योजना जिला और तहसील स्तर पर बैठे नौकरशाहों के भरोसे छोड़ दी जाती है। और यहीं से शुरू होता है ऊपर से आने वाले धन का दुरुपयोग।

क्या इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू कराने में जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए? संसद में सांसद अपना चेहरा दिखाने के लिए विभिन्न योजनाओं पर जमकर बहस तो करते हैं, लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र में योजना को लागू कराने में कभी कोई अग्रणी भूमिका अदा नहीं करते। क्या सांसदों और विधायकों को समय-समय पर विभिन्न योजनाओं का जायजा नहीं लेना चाहिए? लेकिन सारी की सारी योजनाएं जिला कलेक्टर के भरोसे छोड़ दी जाती हैं। अब या तो इसे जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के बीच की सेटिंग माना जाए या फिर जनप्रतिनिधियों की काहिली।

जमीनी स्तर पर लोगों तक विभिन्न योजनाओं का लाभ पहुंचाने में जनप्रतिनिधि बहुत बड़ा रोल अदा कर सकते हैं। भारतीय राजनीति का ढांचा भी ऐसा है जिसमें जनप्रतिनिधि के दायित्वों का दायरा बहुत बड़ा है। पर जनप्रतिनिधि कभी इस तरफ ध्यान देते नहीं देखे गए।

भारतीय राजनीति के साथ समस्या ये है कि पहले तो नेता सांसद बनने के लिए टिकट के लिए मारामारी करते हैं, ज्यों ही नेता जी सांसद बनते हैं तो मंत्री बनने की ताक में लग जाते हैं और अगर मंत्री बन गए तो सीधे प्रधानमंत्री बनने के सपने पालने लगते हैं। दरअसल एक विधायक और सांसद अगर चाह लें तो देश के बुनियादी स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर सकता है और हर विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र के मुख्यमंत्री के तौर पर। और अगर इस तरह से सांसद और विधायक काम कर ले जाएं तो शायद ही उनको कोई हरा पाए। पर उनके अंदर ये चाह कहीं नजर नहीं आती।

बड़े मंच पर खड़े होकर बातें बनाना जितना आसान है, उन बातों को हकीकत में बदलना उतना ही मुश्किल। देश का एक-एक गांव, तहसील और जिला अगर मजबूती के साथ खड़ा होता है तो देश अंदर से स्ट्रांग बनेगा। फिर सतही विकास के झंडे नहीं गाढ़ने पड़ेंगे। और ये तभी संभव है जब एक-एक सांसद, विधायक, मेयर, ब्लाॅक प्रमुख और ग्राम प्रधान अपनी-अपनी भूमिका समझें। पर इन लोगों को समझाना भी अपने आप में एक टेढ़ी खीर है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...