"There are well known instances of bad journalism, like unfair reporting, pronouncement of guilt without fair trial , invasion of privacy, insensitive portrayal of victims." -N Ravi, Editor, The Hindu (July 6, 2012)
एक दौर था जब पत्रकारिता तीक्ष्णता और बुद्धिमत्ता का काम था। समय बदला और पत्रकारिता धीरे-धीरे टीआरपी और सर्कुलेशन का नाम हो गया। जितनी ज्यादा टीआरपी और सर्कुलेशन उतने ज्यादा विज्ञापन, जितना ज्यादा विज्ञापन उतनी ज्यादा इनकम। भारत में प्रिंट मीडिया का इतिहास खासा पुराना है, सो कुछ अखबारों को अगर छोड़ दिया जाए तो अधिकांश अखबारों ने फिर भी पत्रकारिता की गरिमा को बचा रखा है। लेकिन इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में 24 घंटे वाले खबरिया चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए नित नए हथकंडे आजमा रहे हैं। इनमें स्टिंग आॅपरेशन भी एक ऐसा ही हथकंडा है, जो चैनल को कुछ समय के लिए अच्छी टीआरपी दिला देता है।
इन स्टिंग आॅपरेशनों ने किसी को नहीं बख्शा है- नेता, संत, महात्मा, डाॅक्टर, ब्यूरोक्रेट, काॅरपोरेट, बाॅलीवुड, टीचर, प्रोफेसर सब इसकी जद में आ चुके हैं। देश में राजनीतिक और धार्मिक स्टिंग आॅपरेशन सबसे ज्यादा बिके हैं। पर यहां मौलिक प्रश्न यही उठता है कि स्टिंग आॅपरेशन करके दूसरे पर कीचड़ उछालने वाले खुद कितने दूध के धुले हैं। स्टिंग आॅपरेशन के दौरान नैतिकता की बार-बार दुहाई देने वाले खुद कितने नैतिक हैं। सच पूछा जाए तो नैतिकता का आधार इतना ऊंचा है कि अगर हर चीज में नैतिकता को ही आधार बना दिया जाए तो देश के तमाम व्यवसायिक संस्थान और व्यवस्थाओं को चलाना असंभव है। शायद की कोई ऐसा पेशा है जिसे विशुद्ध नैतिकता के आधार पर चलाया जा सकता है। नैतिकता हर मोड़ पर आपके सामने अपने प्रश्न लेकर खड़ी मिलेगी। इसलिए कई बार आपको व्यवहारिकता की राह पकड़नी होती है। देश की कानून व्यवस्था कुछ ऐसी है कि घर से निकलने से लेकर अपने आॅफिस पहुंचने तक आप जाने-अनजाने तमाम नियम तोड़ते हैं। पर व्यवहारिक दृष्टि से उनको नजरंदाज किया जा सकता है। लेकिन स्टिंग आॅपरेशन करने वाले उस दिन नैतिकता का ऐसा पैमाना लेकर स्टूडियो में बैठते हैं कि सामने वाले को विश्व का सबसे बड़ा अपराधी और खुद को स्टिंग करने वाला सबसे बड़ा वीर घोषित कर डालते हैं। अगर चैनल नैतिकता के लिए इतने ही ज्यादा मचल रहे हैं तो फिर विज्ञापन लेने में नैतिकता को आधार क्यों नहीं बनाते, पेड न्यूज का काॅन्सेप्ट क्यों तेजी से फल-फूल रहा है। सही मायने में तो ये चैनल द्वारा ओढ़ी गई एक दिन की नैतिकता होती है, जिसका वे चिल्ला-चिल्लाकर ढोल पीटते हैं।
वास्तव में स्टिंग आॅपरेशन विश्वासघात का खेल है, जिसमें आप दूसरे को अपना बनाकर उसकी पीठ में छुरा भोंकते हैं। लेकिन इस स्टिंग को जनहित में बताकर नैतिकता के दायरे के अंदर धकेल दिया जाता है। देश में टीवी पत्रकारिता के उदय से लेकर अब तक तमाम स्टिंग आॅपरेशन किए गए, उसमें चैनल का पहला उद्देश्य जनहित के बजाय अपनी टीआरपी बढ़ाना था। लेकिन उस स्टिंग को परोसा कुछ इस तरह जाता है कि मानो उस चैनल से ज्यादा जनहितकारी संसार में कोई नहीं। भले ही स्टूडियो से उठने के बाद एडिटर महोदय खुद सेटिंग और गेटिंग का खेल खेलते हों, लेकिन कैमरे के सामने उनसे बड़ा नैतिकतावादी दूसरा कोई नहीं। खबरें किस तरह दबाई और भड़काई जाती हैं, कई संस्थानों के साथ काम करने के बाद इसका मुझे खूब अनुभव है। खबर को लिखते और पेश करते वक्त एक पत्रकार जितना शुद्धतावादी दिखता है, असल जिंदगी में उतना होता नहीं। लेकिन दूसरों से उसकी अपेक्षा ये रहती है कि नैतिकता की नंगी तलवार पर चलकर दिखाए।
भारतीय रेल में सफर के दौरान पहले एक परंपरा थी, लोग अपना खाना बांटकर खाते थे। अगर किसी का बच्चा भूखा रो रहा है, तो सहयात्री अपना खाने का डिब्बा खोलकर उसकी भूख मिटाने में देर नहीं लगाता था। इस परंपरा में जहरखुरानों को एक सुनहरा मौका नजर आया और उन्होंने यात्रियों को नशीला पदार्थ खिलाकर लूटना शुरू कर दिया। इसका नजीता यह हुआ कि आज रेल में कोई अपना खाना नहीं बांटता। मुझे लगता है कि ये स्टिंग आॅपरेशन समाज में थोड़े से बचे विश्वास को भी खा जाएंगे।