यूं तो 25 दिसंबर क्रिसमस के लिए जाना जाता है, भारत में इसे बड़ा दिन भी कहा जाता है। इस साल से भारत में इस दिन को ‘सुशासन दिवस’ के रूप में एक और पहचान मिलने जा रही है। वर्तमान सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस को सुशासन दिवस के तौर पर मनाने का जो फैसला किया है, वो कई मायनों में उचित है। 1998 से लेकर 2004 तक अटल जी ने जिस नई किस्म की सरकार का नेतृत्व किया उन परिस्थितियों में देश को नई दिशा प्रदान करना कोई आसान काम नहीं था।
भारत में 90 के दशक का उत्तरार्ध बेहद अस्थिरता भरा था। देश की जनता ने अपनी आंखों के सामने ओछे राजनीतिक स्वार्थ, सत्ता लोलुपता और क्षेत्रीय टिड्डी दलों की ब्लैकमेलिंग का नंगा नाच देखा। तमाम आर्थिक कमजोरियों के बावजूद देश को बार-बार चुनाव के खर्चीले दलदल में धकेला गया। सरकारें गिराना मानो बच्चों का खेल हो गया था। देश को 1996, 1998 और 1999 में चुनावी खर्च की मार झेलनी पड़ी। ऐसे माहौल में ये अटल जी का ही व्यक्तित्व था जिन्होंने तमाम दलों के साथ सामंजस्य बिठाकर देश को अस्थिरता के माहौल से बाहर निकाला।
एनडीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के साथ उन्होंने देश हित में कई बड़े फैसले किए। परमाणु बम परीक्षण के बाद देश पर लगे तमाम आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद उनकी नेतृत्व वाली सरकार देश को आत्मनिर्भरता प्रदान करने में सफल रही। कोई सोच भी नहीं सकता था कि भाजपा जैसी घोर दक्षिणपंथी पार्टी की सरकार पाकिस्तान के साथ दोस्ती की बात करेगी। ये अटल जी ही ही दूरदृष्टि थी कि वो बस लेकर लाहौर गए और कारगिल का घाव खाने के बावजूद जनरल परवेज मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया।
ये उनकी ही सरकार में पहली बार हुआ कि गैस सिलेंडरों की जमाखोरी खत्म हुई और गांव-गांव तक गैस कनेक्शन पहुंच गए। बुकिंग कराने के दो के अंदर ही सिलेंडर घर पहुंचने लगा, जबकि उसके बाद 2004 से 2014 तक यूपीए की सरकार में लोग एक-एक सिलेंडर के लिए तरसे। देश में वल्र्ड क्लास सड़कों का जाल बिछाकर उन्होंने विकास को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। नदियों को जोड़ने जैसा महाप्लान भी उन्हीं सात वर्षों की देन था।
हालांकि अटल जी को एक मजबूरियों से भरी सरकार चलाने का मौका मिला, लेकिन वो मजबूरी ही उनकी मजबूती बन गई और वो सभी दलों से ऊपर उठकर सर्वमान्य होते चले गए। आज भले ही एक से एक धुरंधर वक्ता राजनीतिक पार्टियों के पास हों, लेकिन अटल जी जैसी वाकपटुता, भाषण कला और शैली आज देश के किसी भी नेता के पास नहीं है। जब वो बोलने खड़े होते थे, तो पूरा सदन सुनता था, चुनावी सभाओं में सन्नाटा छा जाता था। उनका रुक-रुक कर बोलने का अंदाज लोगों को उनसे इस तरह जोड़ देता था कि पता नहीं उनके मुंह से अगली बात क्या निकल जाए।
पत्रकारों के लिए अटल जी का भाषण बेहद सहायक होता था। अटल जी अपने भाषण में ऐसे-ऐसे पंच छोड़ते थे कि हेडलाइन क्या हो ये सोचना नहीं पड़ता था। अटल जी अपने भाषण में चार-पांच हेडलाइन देकर जाते थे। ये उनका स्वाभाविक अंदाज था, इसके लिए वो कोई काॅपी राइटर या पीआर एजेंसी की मदद नहीं लेते थे। आज उनकी आवाज की सबसे ज्यादा कमी महसूस होती है।
ये संयोग ही है कि न केवल अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदन मोहन मालवीय के नाम एक साथ भारत रत्न के लिए घोषित हुए हैं, बल्कि उनका जन्म दिवस भी एक ही दिन 25 दिसंबर को होता है। और ये एक विडंबना ही है कि पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्नाह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का जन्म दिन भी 25 दिसंबर को ही पड़ता है
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