बुधवार, 13 मई 2015

चुनाव जो इतिहास रच गया (भाग-4): टूट गया मुस्लिम वोट बैंक का तिलिस्म

16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव के जब 16 मई 2014 को परिणाम सामने आए तो वे अविस्मरणीय और हतप्रभ करने वाले थे। 16 मई की तिथि इतिहास में इस तरह दर्ज हो गई कि जब-जब बदलाव पर चर्चा होगी तो इस तिथि का जिक्र आएगा। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल को बहुमत देकर भारतीय मतदाताओं ने अपने वोट की ताकत का अहसास करा दिया। मतदाताओं ने न केवल एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार दी बल्कि इन परिणामों के माध्यम से देश के राजनीतिज्ञों को कई छिपे हुए संदेश भी दे दिए। जिस सुंदर राष्ट्र का सपना सड़क से लेकर संविधान तक आम लोगों को दिखाया जाता रहा, अब जनता उसे हकीकत में तब्दील होते देखना चाहती है। इसी उम्मीद के साथ देश के जनमानस ने नरेंद्र मोदी में अपनी आस्था दिखाई और उनके हाथ में एक मजबूत सरकार की बागडोर सौंप दी। उस ऐतिहासिक चुनाव परिणाम की पहली वर्षगांठ पर एक पुनरावलोकलनः
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देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी ने 2014 की ऐतिहासिक करारी हार के कारणों को तलाशती रिपोर्ट तैयार करने के लिए अपने वरिष्ठ नेता एके एंटनी को जिम्मेदारी सौंपी। जैसा कि एंटनी की ईमानदार छवि है, उन्होंने उसी के अनुसार हार का एक ईमानदार विश्लेषण कांग्रेस आलाकमान के सामने रखा। उनकी रिपोर्ट में पार्टी की हार का जो प्रमुख कारण सामने आया वो था कांग्रेस द्वारा जरूरत से ज्यादा ‘माइनाॅरिटी पालिटिक्स’ का कार्ड खेलना। एंटनी पैनल को लगा कि कांग्रेस द्वारा बहुत ज्यादा ‘अल्पसंख्यकवाद’ को बढ़ावा देने के कारण देश के बहुसंख्यक समाज में कहीं न कहीं ये संदेश चला गया कि कांग्रेस हिंदू विरोधी है और इस कारण हिंदू वोट का भाजपा की तरफ जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ, जिसका कांग्रेस को भी अंदाजा नहीं था।

‘फूट डालो राज करो’
दरअसल, अंग्रेजों ने जिस ‘फूट डालो राज करो’ की नीति पर चलकर भारत पर राज किया, आजादी के बाद वही नीति हमारे राजनीतिज्ञों की भी पथ प्रदर्शक बनी। पार्टियों ने जातियों में बंटे हिंदू समाज को जाति के आधार पर और ज्यादा बांटा और अल्पसंख्यकों को एक ठोस वोट बैंक की तरह प्रयोग किया। अमूमन सभी राजनीतिक पार्टियां इस नीति का अनुसरण करती दिखीं। योजनाएं बनाने से लेकर नीतियां गढ़ने तक जाति और धर्म व जाति आधारित राजनीति को दिमाग में रखा गया। देश की आने वाली पीढि़यां राजनीतिक विज्ञान की किताबों में ये पढ़कर अपना माथा पीटा करेंगी कि भारतीय राजनीति में सत्ता हथियाने के लिए ‘अजगर’ (अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) और ‘मजगर’ (मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत) जैसे समीकरणों का सहारा लिया गया।

एकजुट होता समाज
भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां यही मानकर चल रही थीं, कि जातियों में बंटा हिंदू समाज कभी संगठित होकर वोट कर ही नहीं सकता। जबकि अल्पसंख्यक समाज एक तरफा वोट डाल सकता है। कांग्रेस से लेकर कई क्षेत्रीय पार्टियों ने इस फाॅर्मूले का फायदा उठायाः ‘कुछ हिंदू जातियां + एकमुश्त अल्पसंख्यक वोट = जीत’। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने इसी फाॅर्मूले के दम पर कई बार यूपी की सत्ता पर कब्जा किया। जबकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी द्वारा दलितों को अपना ठोस वोट बैंक बना कर, बड़ी संख्या में मुस्लिमों को टिकट बांटना इसी रणनीति का हिस्सा है। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एकजुट हिंदू समाज की बात करता है तो इसके पीछे भी कहीं न कहीं इस एकजुटता को सत्ता की चाभी में तब्दील करने की दूरगामी दृष्टि है, जिसकी एक बानगी 2014 के लोकसभा चुनाव में नजर आई। उत्तर प्रदेश में मोदीमय भाजपा के पक्ष में ऐसा जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ कि ऐसे-ऐसे लोग सांसद बनकर दिल्ली पहुंच गए जिनके सपने में भी जीत के आसार नहीं थे। ध्रुवीकरण का असर इतना गहरा था कि कि बसपा का परंपरागत दलित वोट भी उससे छिटक गया। 

फेल हुआ फाॅर्मूला
2014 लोकसभा चुनाव परिणामों की विशेषता यह भी रही कि इस बार जीत का ये परंपरागत फाॅर्मूला पार्टियों के काम नहीं आया। ‘जिधर हम हैं, उधर जीत है’ की बात कहकर ताल ठोकने वाले उत्तर प्रदेश के मुस्लिम समुदाय ने 2014 के चुनाव में हर कोण से सोच कर देखा लेकिन कहीं जीत बनती नहीं दिखी। पहली बार हुआ कि यूपी में मुस्लिम वोट भी सपा, कांग्रेस और बसपा के बीच जमकर बंटा। एमआईएम के अध्यक्ष ओवैसी ने एक इंटरव्यू में तंज कसते हुए कहा कि ‘मैं मोदी को इस चीज के लिए बधाई देना चाहता हूं कि उन्होंने मुस्लिम वोट बैंक के मिथक को तोड़ दिया’।

सबका साथ
भाजपा पर भी हिंदूवादी साम्प्रदायिक राजनीति करने का आरोप लगता रहा है। भाजपा विरोधी पार्टियां साम्प्रदायिकता का हौवा दिखाकर लोगों को डाराने का भी काम करती आई हैं। अयोध्या के राम मंदिर मुद्दे को भाजपा ने जिस तरह से गर्माया उससे इन आरोपों में दम भी दिखाई दिया। लेकिन वही भाजपा जब सत्ता में आई तो सबको साथ लेकर चलने में ही उसे देश की भलाई लगी। भाजपा ने अयोध्या को अपने एजेंडे में रखकर काशी और मथुरा का मुद्दा छोड़ने में देर नहीं लगाई। पहली एनडीए सरकार में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत नहीं था, इसलिए सबकी बात करना प्रधानमंत्री वाजपेयी की मजबूरी कहा जा सकता है, लेकिन वर्तमान सरकार में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत है फिर भी प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ और सबके विकास’ की राह पर चलने का प्रण दोहराया। इसलिए मजबूरी न पहले थी न अब है, बल्कि यही भारत की मूल संस्कृति है जो इस देश को हमेशा ये संदेश देती आई हैः 
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्रणिपश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग भवेत्।।
(End of Series)

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