सब राष्ट्रों में आध्यात्मिक सामंजस्य को बढ़ावा देने में श्रीयुक्तेश्वर जी की गहरी रुचि को देखते हुए महावतार बाबाजी ने उन्हें हिंदुत्व और ईसाइयत में निहित मूलभूत एकता को दर्शाने के लिए कैवल्यदर्शनम् पुस्तक लिखने का आदेश दिया। अतः श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी ने अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के गुरू महाअवतार बाबाजी की आज्ञा का पालन करने के लिए यह पुस्तक सन् 1894 में लिखी।
यह पुस्तक भारत के सांख्य दर्शन और बाइबिल के यूहन्ना का प्रकाशित वाक्य (रिविलेशन) के बीच मूलभूत एकता को दर्शाती है। हालांकि, इस पुस्तक में मुझे सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करने वाली प्रतीत हुई इसकी भूमिका, जो स्वयं श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी द्वारा लिखी गई है। 21 पृष्ठों की इस प्रस्तावना में श्रीयुक्तेश्वर जी द्वारा काल गणना से संबंधित भाग विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करता है।
उनकी गणना के अनुसार हमारे पंचांगों में कुछ गलत भाष्यों या अनुवाद के कारण भूल आ गई है और वर्तमान में जिसे हम कलियुग मानते हैं, वह वास्तव में द्वापर युग है। वह अकाट्य तर्कों के माध्यम से इस बात को सिद्ध भी करते हैं। उनकी गणना को मानें तो आज 2024 में द्वापर युग का 324वां वर्ष चल रहा है।
वे बताते हैं कि सारे उपग्रह अपने-अपने ग्रहों की परिक्रमा करते हैं और सारे ग्रह अपनी-अपनी धुरी पर गोल घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं, जबकि सूर्य भी एक महा-केन्द्र या विष्णुनाभि की परिक्रमा करता है, जो स्रष्टा या ब्रह्मा का अर्थात सृष्टि के चुम्बकत्व का केन्द्र है। ब्रह्मा धर्म का या आन्तरिक जगत् की मानसिक सच्चरित्रता का नियंत्रणकर्ता है।
जब सूर्य अपनी परिक्रमा करते हुए इस महा केन्द्र के सबसे निकट पहुंचता है, तब मानसिक सच्चरित्रता या धर्म इतना उन्नत हो जाता है कि मनुष्य को सहज ही सब ज्ञान हो जाता है, यहां तक कि परमतत्व के गूढ़ तत्वों का भी और इसी काल को सतयुग कहा जाता है।
जब सूर्य अपने परिक्रमा पथ पर अपने महा-केन्द्र या ब्रह्मा से सबसे दूर पहुंचता है, तब धर्म का हृास होते-होते इतनी निकृष्ट अवस्था में पहुंच जाता है कि मनुष्य स्थूल जगत से परे कुछ भी नहीं समझ पाता, इसी काल को कलियुग कहा जाता है।
पुस्तक की भूमिका में इस कालगणना को श्रीयुक्तेश्वर जी ने बेहद सरल शब्दों में विस्तार से समझाया है। 1894 में लिखी अपनी इस पुस्तक में वे इसी आधार पर वे 19वीं शताब्दी के कुछ महान वैज्ञानिकों के आविष्कारों और मानव जाति की अन्य प्रगतियों की चर्चा करते हुए बताते हैं कि मनुष्य की यह उन्नति इस चीज को सिद्ध करती है कि समाज में चेतना जागृत हो रही है और ये सभी लक्षण द्वापर युग में देखने को मिलते हैं।
पुस्तक की भूमिका में कालगणना से संबंधित ये रोचक तथ्य इस विषय में रुचि रखने वाले मनीषियों द्वारा अवश्य ही चिंतन करने योग्य हैं। पुस्तक में वर्णित कालगणना को यहां मैंने बेहद संक्षेप में यहां प्रस्तुत किया। उत्सुकजन विस्तार से जानने के लिए पुस्तक को पढ़ सकते हैं। लगभग 130 वर्ष पहले लिखी गई यह पुस्तक पढ़कर सहज ही यह आभास होता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा कितनी समृद्धशाली रही है।
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