आजकल फेसबुक पर आईआरसीटीसी की गुणवत्ता की पोल खोलता एक चित्र काफी चर्चित हो रहा है। इसमें आईआरसीटीसी का वेंडर यात्रियों को बेचने वाली चाय तैयार करते दिखाया है। महाशय नहाने का पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय बना रहे हैं। डिटेल में गया तो पता चला कि तस्वीर काफी पुरानी है, लेकिन फेसबुक पर पदार्पण के बाद खासी चर्चा में है। इमरशन राॅड से पक रही चाय को देखकर आप सोचने को मजबूर हो सकते हैं कि क्यों न स्टेशन पर कुछ भी खाने से परहेज किया जाए?
पानी गर्म करने वाली इमरशन राॅड से चाय पकाने की नौबत तकरीबन तीन साल पहले रेलवे के उस फैसले से आई जिसमें प्लेटफाॅर्म के ऊपर गैस सिलेंडर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। आगजनी के भय से रेलवे ने ये फैसला किया था कि प्लेटफाॅर्म पर केवल पका हुआ खाना ही बेचा जाएगा। चलते ठेलों पर किसी भी प्रकार का ज्वलनशील आइटम न लगाया जाए। रेहड़ी वालों को अगर अपने पकवान बेचने हैं तो बाहर से तैयार करके लाएं। इस प्रतिबंध के बाद प्लेटफाॅर्म पर रेहड़ी और ठेला लगाने वालों ने आरोप लगाया था कि ये आईआरसीटीसी के दबाव में रेलवे ने ये कदम उठाया है। क्योंकि आईआरसीटीसी देशभर के स्टेशनों की कैटरिंग हथियाना चाहता है। रेहड़ी वाले आईआरसीटीसी की कमाई में सबसे बड़ा रोड़ा हैं और अपना रास्ता साफ करने के लिए ही आईआरसीटीसी ने लाॅबीइंग करके प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटवाने का फैसला करवाया है। हालांकि बर्निंग ट्रेन तो कई बार सुनी लेकिन बर्निंग प्लेटफाॅर्म कभी नहीं सुना। फिर भी प्लेटफाॅर्म से सिलेंडर हटाए गए, इसलिए ठेले वालों के आरोप में दम तो नजर आता था। लेकिन ठेले वालों की एक नहीं सुनी गई। धन बल के सामने जन बल हार गया। सिलेंडर का इस्तेमाल पर प्रतिबंध आज भी जारी है। कोई गुपचुप इस्तेमाल कर रहा हो तो दीगर बात है।
अगर बात हाईजीन और गुणवत्ता की करें तो रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों में मिलने वाले खाद्य पदार्थों में लगातार गिरावाट आ रही है। कमाई के इस दौर में अगर आप स्वादिष्ट और शुद्ध भोजन की अपेक्षा लेकर रेलवे स्टेशन की तरफ रुख कर रहे हैं तो ये आपकी अच्छी बात नहीं है। वे लोग चार पैसे कमाने बैठे हैं या आपकी इच्छाओं का ख्याल रखने के लिए। दिल खोलकर खर्च करने के बावजूद आप भारतीय रेल में जायका खोजते रह जाएंगे। शायद इंडिया का जायका खोज-खोज कर दर्शकों तक पहुंचा रहे विनोद दुआ ने रेलवे स्टेशनों के जायके पर नजर नहीं डाली है। इंडियन रेलवे का स्वाद चखने के बाद वो सारे इंडिया का जायका ही भूल जाएंगे।
प्लेटफाॅर्म पर बिकने वाली कुल्हड़ वाली चाय और पत्ते के दौने में मिलने वाली आलू-पूड़ी रेल के सफर की पहचान थीं। लेकिन न कुल्हड़ रहे और न दौने। लालू यादव ने कुल्हड़ को जिलाने की कोशिश भी की, लेकिन दुकानदारों को प्लास्टिक और थर्मोकाॅल के सामने मिट्टी महंगी पड़ी। मैं रेल के सफर का पुराना शौकीन हूं। पहले कुछ स्टेशनों पर अच्छी चाय मिल जाती थी। लेकिन अब तो दिल्ली का स्टेशन हो या कटिहार का आपको अच्छी चाय नसीब नहीं हो सकती। इसे आप ग्लोबलाइजेशन कहें या कहें कि पूरे कुएं में ही भांग घुली है। जायके की बात करने पर कुछ लोग ये कहेंगे कि मियां सफर में पेट भर जाए ये ही बहुत है, बड़े आए स्वाद खोजने वाले। चलिए साहब पेट भरने के लिए ही सही, लेकिन चीज शुद्ध तो मिले। जाने कौन से तेल में खाना तैयार होता है कि उसे पचाने के लिए आपकी जेब में डाबर का हाजमोला होना जरूरी है।
लेकिन इस मिलावटखोरी और कमाईखोरी के खेल में एक नया ट्रेंड फिर से देखने को मिल रहा है और जो काफी सुखद भी है। लोगों ने अब फिर अपने घर से खाना बांधकर चलना शुरू कर दिया है। आलू-पूड़ी और आम के अचार की खुशबू जो कुछ समय के लिए रेल के डिब्बे से गायब हो गई थी, अब फिर से लौट आई है। मैं तो कहता हूं कि ये ट्रेंड खूब चले। हम भारतीय तो घर से इतना खाना लेकर चलते थे, कि अपने साथ-साथ आसपास रो रहे किसी बच्चे का भी पेट भर देते थे। लेकिन बीच में ये पैकेज्ड फूड का जमाना आ गया और हम भेड़ चाल के शिकार हो गए। इलीट क्लास में दिखने के लिए जबरदस्ती उस बेस्वाद खाने को मुंह लगाया। और यात्रियों को घटिया माल परोसने वाली आईआरसीटीसी को भी ये बात याद रखनी चाहिए कि उपभोक्ता सबसे शक्तिशाली है। ये किसी को अपनाता है तो आसमान पर बैठा देता है और किसी को पछाड़ता है तो मिट्टी में मिला देता है। चाय-चाय चिल्लाते रह जाओगे, कोई खरीददार नहीं मिलेगा!