अब बताइए कि इस सरकारी सोच को आप क्या कहेंगे, कि विदेशी आ रहे हैं तो उनके सामने अच्छा बर्ताव करके दिखाओ, बाकी चाहे आप कैसे भी रहो, लड़ो-भिड़ो, एक-दूसरे का सिर फोड़ो। लेकिन विदेशियों के सामने सलीके से रहो। दूसरे आपके एजुकेशन सिस्टम को क्या हुआ। अब तो ६३ साल हो जायेंगे आज़ादी को और दिल्ली तो बाकी देश से कहीं जयादा संभ्रांत मानी जाती है, फिर यहाँ के नागरिकों को अदब सिखाने की जरुरत क्यूँ पड़ी। आप स्कूलों में ये अदब क्यूँ न सिखा पाए। सच तो यही है दिल्ली से लेकर देहात तक भारतीय शिक्षा व्यवस्था अपने नागरिकों को सिविक सेन्स सिखाने में नाकाम साबित हुई है। अब इस तरह के विज्ञापनों के माध्यम से मुंह छिपाने कि कोशिश कि जा रही है।
अभी दो दिन पहले की ही बात है बाइक की चाभी ऑफिस में छूट गयी थी तो मुझे दिलशाद गार्डेन से गाज़ियाबाद तक टेम्पो से जाना पड़ा। नौ से ज्यादा बाज़ चुके थे सो सड़क पर टेम्पुओं की आवक काम ही थी। साहिबाबाद के पास दो सवारी उतरी तो नीचे टेम्पो का इंतजार कर रहे कुछ लोग तेज़ी से अन्दर की ओर झपटे। एक सीट पर एक जमा दूसरी पर दूसरा लेकिन इन दोनों के ही साथी बहार छूट गए थे। उन्होंने भी जब जल्दबाजी में अन्दर घुसने की कोशिश की तो दूसरे को धक्का लग गया। फिर क्या था, अन्दर बैठे दोनों जनों ने अपनी सीट छोड़ी ओर वहां मल्ल-युद्ध स्टार्ट हो गया। चटाक-पटाक चांटों की आवाज़ गूंजने लगी। अन्दर बैठी एक लड़की ने टेम्पो वाले से कहा कि भैया खड़े क्या तमाशा देख रहे हो पिटना है क्या, बढाते क्यूँ नहीं। टेम्पो वाला भी मौके कि नजाकत को समझ गया ओर पांच-दस रूपए के मोह को त्याग कर उसने आगे बढ़ने में ही भलाई समझी। तभी मेरी नज़र एक बैग पर पड़ी जो उन योद्धाओं में से ही किसी का था। उसको भी चलते टेम्पो से सड़क के हवाले कर दिया गया।
ये इस देश के सिविलियंस के सिविक सेन्स का मात्र एक उदहारण नहीं हैं। इस से भी कहीं जयादा हास्यास्पद और शर्मनाक घटनाएँ रोज़ सड़कोंपर होती हैं। ऐसे में दिल्ली सरकार द्वारा लोगों से भागीदारी समझ कर अच्छा बर्ताव करने की अपील कितनी रंग लाएगी ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।