वो इतने सक्षम हैं हर बार सफल हो जाते हैं, हम इतने अक्षम हैं की हर बार विफल हो जाते हैं. वे इतने बेशर्म हैं कि बार बार अपनी हरकत दोहराते हैं और हम बेहया और बेशर्म दोनों हैं कि हर बार विफल होने के बावजूद बातें बनाते हैं. दिल्ली में बैठे लोगों को घटना का बड़ा दुःख है, लखनऊ में बैठे लोग इसे दिल्ली की विफलता बता रहे हैं, दिल्ली वाले कह रहे हैं कि हमने पहले ही आगाह कर दिया था. लेकिन फिर भी देश कि लोगों को ये समझ नहीं आता कि तुम साले न तो दिल्ली की जिम्मेदारी में आते हो और न लखनऊ की. तुम अपनी जिम्मेदारी खुद उठाओ, या फिर अपने माँ बाप से पूछो कि उन्होंने तुमको पैदा क्यों किया. क्या जरुरत थी तुमको इस दुनिया में लाने की. तुम्हारे माँ बाप ने तुमको अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया तो फिर तुम सरकार की जिम्मेदारी कैसे हुए भला. अब मरो सालों कुत्ते-बिल्लियों की तरह.
तुम लोग आये दिन यूँ ही मरते रहते हो और दिल्ली वालों को दुखी होने के लिए वक़्त निकालना पड़ता है. बातों के परदे में चीज़ों को ढकने की कोशिश करने पड़ती है. बार बार आतंकियों को कायर कहकर पुकारना पड़ता है, इसके अलावा कोई शब्द मिल ही नहीं पा रहा है. कुछ नहीं तो ये कहकर अपनी खीज मिटाई जाती हैं कि देखो बनारस पर कोई असर नहीं पड़ा, बनारस अब भी वैसा ही है, वहां कि लोग कितने हिम्मती हैं, जिंदगी एक घंटे में ही पटरी पर लौट आई. खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे. तंत्र मंत्र के भरोसे २४ घंटे काट रही मीडिया को भी बढ़िया माल मिल जाता है. अब कुछ दिन बॉलीवुड कलाकारों की निजी जिंदगी में झाँकने की जरुरत नहीं पड़ेगी. तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को ये लगने लगता है कि देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है. उन्हें मौतों का गम कम और सांप्रदायिक सौहार्द की चिंता ज्यादा सालती है. लेकिन बेचारे करें भी क्या बातें बनाने के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता. आखिर बातें बनाने के अब मौके भी तो कम मिलते हैं. इसलिए कुछ कुछ समय के अन्तराल पर पब्लिक का मरना बड़ा जरुरी है. कितने सारे लोगों को बैठे बिठाये काम मिल जाता है.
इन खोखली बातों में कितना दम है, ये तो ज्यादातर लोगों को पता ही है. लेकिन ये झूठ का पुलिंदा हर बार काम आता है. हम इस पुलिंदे को हर वक़्त तैयार रखते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि मौतों का ये कारवां रुकने वाला नहीं है. क्योंकि हम खुद नहीं चाहते कि ये कारवां रुके. ये खुनी कारवां अगर रुक गया तो जनता दूसरी चीज़ों की तरफ ध्यान देने लगेगी. उसकी मांगें बढ़ने लगेंगी. इसलिए भलाई इसी में है कि जनता इन्हीं सब चीज़ों में उलझी रहे. मौतों का हिसाब देना आसान है, पैसे का हिसाब देना बहुत मुश्किल....
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