शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे हैं!

टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया, पोलिटिक्स, कॉर्पोरेट और दलालों का गठबंधन खुलकर सामने आ गया. किसी एक दल, किसी एक कॉर्पोरेट हाउस और किसी एक पत्रकार पर ऊँगली उठाने से काम नहीं चलेगा, यहाँ पूरे कुएं में भांग घुली है. कस्बाई पत्रकारिता से लेकर राष्ट्रीय पत्रकारिता तक दलाली का खेल जमकर खेला जाता है. मीडिया हाउस में भर्ती  के वक़्त भी मालिक इस बात का ख्याल रखता है कि अच्छे काम करने वालों के साथ साथ अच्छे सेटर्स भी भर्ती करने जरूरी हैं. आड़े समय में अच्छे काम करने वाले कम काम आते हैं, उस वक़्त तो केवल सेटर्स ही काम बनाते हैं. 

मैं भी पत्रकारिता के शुरू के दिनों में आदर्शों की बड़ी दुहाई देता था. एक बार श्याम भाई साहब के सामने भ्रष्टाचार को गरियाना लगा तो उन्होंने कहा कि तुम जो बार-बार भ्रष्ट लोगों को गरियाते हो तुमको नहीं लगता कि भ्रष्ट लोग तुम से ज्यादा समझदार हैं और तुमसे ज्यादा मेहनत करते हैं. मैंने कहा ऐसा क्यों? तो वो बोले कि सीधे-सीधे तो कोई भी चल लेता है, तारीफ तो तब है जब आप टेढ़े चलो और गिरो भी नहीं. भ्रष्ट लोग नियमों को इतनी खूबसूरती से तोड़ते हैं कि किसी को कानों कान हवा भी नहीं लगती. दस में से एक पकड़ा जाता है और जो पकड़ा जाए वही चोर बाकी सब शाह.

ऐसा नहीं था कि श्याम भाई साहब को भ्रष्ट लोगों से कोई विशेष प्रीती थी, लेकिन वो मुझे व्यावहारिक सच्चाई समझा रहे थे. श्याम भाई साहब अपनी जगह सही थे. भ्रष्ट लोग इमानदार लोगों से काफी स्मार्ट होते हैं और आत्मविश्वासी भी. न केवल सारे कायदे कानूनों को अपनी जेब में रखते हैं बल्कि नियमों का इतना गहरा अध्ययन करते हैं कि नियम भी टूट जाए और नाम भी न आयेआज जब फिर से तमाम घोटाले खुल रहे हैं तो मुझे फिर श्याम भाई साहब की बात याद आ रही है.

२ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तमाम लोग फंसते नज़र आ रहे हैं. राजनीति तो हमेशा से ही घोटालों और भ्रष्टाचार के केंद्र में रही है, लेकिन इस बार दूसरों को आइना दिखाने वाली मीडिया से लेकर नामी कॉर्पोरेट हाउस भी इसकी चपेट में हैं. मंत्रिमंडल में किस तरह जगह बनाई जाती है, ठेके कैसे मिलते हैं, दल्लों की कितनी अहम् भूमिका है, ये सब समझने का एक अच्छा मौका है. विपक्ष को बैठे बिठाये मसाला मिल गया है. भ्रष्टाचार से जो नुकसान हुआ सो हुआ अब संसद को ठप्प  कर के दूसरा नुकसान किया जा रहा है. इस देश में विपक्ष का एक रटा-रटाया ढर्रा है. सहो हो या गलत उसको हर कीमत पर सत्ता दल की निंदा करनी हैखुद को इस तरह पेश करना है कि हम से ज्यादा दूध से धुला पूरी धरती पर कोई नहीं. जबकि असलियत यही है कि पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं.

सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार और सदाचार में बेहद बारीक़ रेखा है. सही चश्मा लगाकर देखा जाए तो हर इन्सान किसी न किसी रूप में भ्रष्ट है. कोई चरित्र से भ्रष्ट है तो कोई व्यक्तित्व से. कोई धन के सामने नतमस्तक तो कोई पद के तो कोई तन के. अगर बुराई ही देखने निकल पड़ें तो किसी का भी बच पाना मुश्किल है. लेकिन जब आपका आचरण ज्यादा बड़े स्तर पर नुकसान पहुँचाने लगे तो मसला गंभीर हो जाता है.

शायद इसीलिए कहा जाता है कि चम्बल के डकैत संसद के डकैतों से कहीं ज्यादा बेहतर हैं. चम्बल के डकैत खुलकर स्वीकार तो करते हैं कि हम डकैत हैं, लेकिन संसद के डकैत खुद को सफ़ेद रंग में ढक कर जनता का सेवक कहते हैं. कथनी- करनी का इतना बड़ा अंतर ही सारी समस्या की जड़ है. हम बात देश के आम आदमी की करते हैं, लेकिन लाभ देश के खास आदमी को पहुंचाते हैं. आम आदमी के बीच हम चुनाव के वक़्त पांच मिनट के लिए जाते हैं और बाकी के पांच साल ख़ास आदमी के साथ गल बहियाँ करते हैं. सच्चाई यही है. वरना देश का आम आदमी इतनी महंगाई न झेल रहा होता. आम आदमी पर बिना बोझ बढ़ाये जब रेलवे मुनाफा कम सकता है, तो दूसरे मंत्रालय क्यों नहीं.

जब तक राजनीति को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे की दरकार रहेगी तब तक आम आदमी के बारे में सरकार सोच ही नहीं पाएगी. करोड़ों के चुनावी खर्च को घटाकर जब तक हजारों में नहीं किया जायेगा तब तक कॉर्पोरेट घराने राजनीति कि नीतियाँ तय करते रहेंगे. जब तक महामहिम नेताजी उद्योगपतियों के निजी हेलीकाप्टर का मोह त्याग कर धरातल पर उतर कर चुनाव प्रचार नहीं करेंगे तब तक मंत्रिमंडल के चेहरे प्रधानमंत्री की जगह उद्योगपति ही करते रहेंगे. मीडिया और राजनीति का सीधा सा सिद्धांत है- जिसका खाते हैं, उसका गाते हैं. इसलिए मुझे लगता है कि इतना हंगामा उतारने की जरुरत नहीं है. राजा साहब ने उच्चतम राजनितिक परम्पराओं का निर्वहन किया है. उनसे गलती बस इतनी हो गयी है कि उनकी बात खुल गयी, वरना ९० प्रतिशत राजनीतिज्ञ इन्हीं परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं. और इन परम्पराओं पर विराम लगाना बेहद कठिन है.

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