सोमवार, 27 दिसंबर 2010

प्रतिभाएं ढूंढते रह जाओगे!


आज के हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एक नया ट्रेंड दिख रहा है, स्टुडेंट्स बड़ी बड़ी कम्पनियों के मोटे-मोटे प्लेसमेंट ठुकराकर अपनी रूचि के मुताबिक अपने खुद के व्यवसाय शुरू करने को प्राथमिकता दे रहे हैं. स्टुडेंट्स को लुभाने के लिए कम्पनियों की ओर से मोटी रकम का चुग्गा डाला जा रहा है लेकिन तमाम स्टुडेंट्स ऐसे हैं जो इस चुग्गे को चुगने के लिए तैयार नहीं. वो अपने सपनों की दुनिया अपने हिसाब से बुनना चाहते हैं. वो किसी के सिस्टम में बंधकर खुद को बंधुआ नहीं बनाना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि वे नाकारा बनकर रहना चाहते हैं. लेकिन कॉर्पोरेट जगत में चल रही मोटे-मोटे पैकजों की दौड़ में वो शामिल नहीं होना चाहते. सपने उनकी आँखों में भी हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का साथ चुना है जो उनको सबसे अच्छी तरह से समझते हैं, यानी उनके अपने दोस्त. दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी के ये नए और जवाँ इंजिनियर अपने दोस्तों संग खुद का बिजनेस शुरू करने की दिशा में कदम बढा रहे हैं. कुछ ऐसा नया काम जो परंपरागत काम से कहीं ज्यादा रोचक हो, क्रिएटिव हो और मन को सुकून देने वाला हो. जहाँ न टार्गेट का टंटा हो और न बॉस का डंडा. जिस काम को करने के बाद जीविकोपार्जन के साथ-साथ जीवन की सार्थकता भी नज़र आये.

व्यक्ति की जीविका का साधन भी कहीं न कहीं दो मौलिक सवालों से जुड़ा हुआ है कि- मैं कौन हूँ? और मैं इस धरा पर किसलिए आया हूँ? जब तक आपका काम आपके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं करता तब तक वो काम आपको आनंद नहीं दे सकता. आप केवल मशीन की तरह उस काम को करते रहेंगे और नोटों की गड्डियां बनाते रहेंगे. जब किसी दिन थककर  एकांत में बैठोगे तब अचानक कहीं से ये सवाल मन में कौंधेगा कि ये मैं कहाँ चला जा रहा हूँ? और आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाओगे? इस सवाल का जवाब बस यही है कि एक भीड़ चली जा रही थी और मैं भी बिना सोचे-समझे उस भीड़ में शामिल हो गया.

मैंने भी जब पत्रकारिता से जुड़ने का फैसला किया था तब कहीं न कहीं मन में यही भाव था कि पत्रकारिता आम जनमानस की बात कहने का सशक्त माध्यम है. यहाँ मैं उनकी बात उठाऊंगा जो अपनी बात कहीं नहीं उठा पाते. लेकिन पत्रकारिता के अन्दर आकर तो केवल ख़बरों की होड़ और पैसों की दौड़ दिखी. इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को फायदा पहुँचाना नहीं बल्कि अपने मालिक को फायदा पहुँचाना था. मालिक का फायदा करने में चाहे पब्लिक का फायदा हो या नुकसान उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. काम के एवज में दाम मिलने के साथ-साथ संतुष्टि मिलनी भी जरूरी होती है. दोनों में से एक भी न मिले तो मिलती है केवल फ्रस्ट्रेशन. आज के कॉर्पोरेट जगत में जिस तरह से खुद के ही तय किये हुए असंभव टार्गेट अचीव करने की होड़ मची है वो वहां के कर्मचारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है. बाजारू कॉम्पटीशन में आज नंबर एक बनने की होड़ है. इसके लिए चाहे सिद्धांतों से समझौता करना पड़े या अपने कर्मचारियों के हितों के साथ. ऐसे में खासतौर से युवा कर्मियों को  घुटन महसूस होती है. जब तक वे ये सब समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.


किसी को भी सच्ची संतुष्टि तभी मिल सकती है जब उसके प्रयास सच्चाई के आस-पास हों, उसकी अंदरूनी प्रतिभा के आस-पास हो और परहित के आस-पास हो. जिस काम को करने से अपने लिए धन कमाने के साथ-साथ ये भाव भी हो कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा वो काम दीर्घकालिक संतुष्टि दे सकता है. "नौकरी = न-करी" : अगर कमाने के साथ-साथ समाज को भी कुछ देना चाहते हो तो कुछ अपना काम करो, अगर नितांत सच्चाई के मार्ग पर ही चलना चाहते हो तो अपना मार्ग अलग बनाओ. क्योंकि अभी सफलता के जितने भी मार्ग हैं वे सभी झूठ से होकर गुजरते हैं.


दिल्ली टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में ये जो ट्रेंड दिख रहा है वो बेहद सराहनीय है. युवाओं को अब किसी की नौकरी की दरकार नहीं, वो अपना रास्ता खुद बनायेंगे, उनमें इतना दम है कि वे खुद नौकरियों का सृजन करेंगे. जिस तरह हर जगह प्रतिभा की अनदेखी करके चाटुकारों को प्राथमिकता दी जा रही है, उसका परिणाम यही होगा कि एक दिन प्रतिभाएं तलाशे नहीं मिलेंगी, वे सब अपने अलग रास्ते पर चल रही होंगी.

2 टिप्‍पणियां:

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...