"राम राज्य में प्रजा सर्वोपरि थी. प्रजा का कार्य राजा की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. राजा राम राज भवन में आकर हर रोज लक्ष्मण को आज्ञा देते कि देखो लक्ष्मण द्वार पर कोई कार्यार्थी तो नहीं आया है. लेकिन राम राज्य में व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि लोगों को काम लेकर राजा के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर रोज लक्ष्मण बाहर जाकर देखते और लौटकर यही जवाब देते कि द्वार पर कोई भी नहीं है. एक बार लक्ष्मण जब बाहर देखने गए तो उनको एक कुत्ता दिखा, जिसके माथे से रक्त बह रहा था और वो लक्ष्मण की ओर ही देख रहा था. लक्ष्मण ने उससे पूछा कि उसको क्या काम है, तो कुत्ते ने कहा कि वह अपनी बात राजा राम से ही कहना चाहता है. लक्ष्मण ने ये बात राज सभा में जाकर बताई तो राजा राम ने तुरंत उस कुत्ते को अन्दर बुलवाया.
राम ने उससे पूछा कि उसकी ये हालत किसने की है तो उसने बताया कि- नगर में सर्वार्थसिद्ध नमक एक विद्वान भिक्षु है तो ब्राह्मणों के घर में रहता है उसने अकारण ही मुझ पर प्रहार किया है. मैंने उसका कोई अपराध नहीं किया था. राजन आप मुझे न्याय दें.
कुत्ते की बात सुनकर राम ने एक द्वारपाल को भेजकर सर्वार्थसिद्ध नाम के उस भिक्षु को बुलवा लिया. राजा राम ने उस भिक्षु से पूछा कि- तुमने अकारण ही इस कुत्ते पर क्यों प्रहार किया. तब उस भिक्षु ने जवाब दिया कि महाराज मेरा मन क्रोध से भर गया था इसलिए मैंने इसे डंडे से मारा. भिक्षा का समय बीट चुका था तब भी भूखा होने के कारण मैं भिक्षा के लिए दर दर घूम रहा था. ये कुत्ता बीच रस्ते में खड़ा था. मैंने बार बार कहा कि मेरे रस्ते से हट जाओ, लेकिन ये अपनी ही चाल में मस्त चला जा रहा था. भूख के कारण क्रोध आ गया और मैंने इस पर प्रहार कर दिया. मैं अपराधी हूँ आप मुझे दंड दीजिये. राजा से दंड पाकर मेरा पाप नष्ट हो जायेगा.
तब राम ने अपने सभासदों से पूछा कि इस भिक्षु को क्या दंड दिया जाए क्योंकि दंड का सही प्रयोग करने पर ही प्रजा सुरक्षित है. राम की राजसभा में उस समय बहुत से विद्वान मौजूद थे उन सभी ने मंथन करने के बाद राजा से कहा कि- महाराज ब्राह्मण दंड द्वारा अवध्य है. उसको शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए, यही शास्त्रों का मत है. लेकिन राजा सबका शासक होता है.
उन सबकी ऐसी मंत्रणा सुनकर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज आपने प्रतिज्ञापूर्वक मुझे न्याय देने की बात कि है. अगर आप मुझ से संतुष्ट हैं और मेरी इच्छानुसार वर देना चाहते हैं तो मेरी बात सुनिए. आप इस ब्राह्मण को मठाधीश बना दीजिये. इसको कालंजर में एक मठ का आधिपत्य प्रदान कर दीजिये.
राम ने तुरंत उस ब्राह्मण को मठाधीश घोषित कर दिया. वह ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और हाथी की पीठ पर बैठाकर उसको वहां से विदा किया गया.
तब राम के मंत्रियों ने मुस्कुराते हुए पूछा कि महाराज ये दंड था या पुरस्कार. इसपर राम ने कहा कि कर्मों की गति बड़ी गहरी और न्यारी है, किस कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ता है इसका तुमको नहीं पता ये इस कुत्ते को पता है. फिर श्री राम के पूछने पर उस कुत्ते ने पूरी सभा के समक्ष बताया- रघुनन्दन मैं पिछले जन्म में कालंजर के मठ में मठाधीश था और धर्मानुकूल आचरण करता था. मुझे ज्ञात नहीं मैंने पद पर रहते हुए कोई धर्म के प्रतिकूल कर्म किया हो. लेकिन फिर भी मुझे ये घोर अवस्था और अधम गति मिली. तो सोचिये ये ब्राह्मण जो इतना क्रोधी है, धर्म छोड़ चुका है, दूसरों का अहित करता है, क्रूर, कठोर, मूर्ख और अधर्मी है, ये तो अपने साथ ऊपर और नीचे की सात पीढ़ियों को भी नर्क में गिरा देगा."
ये प्रसंग अचानक मुझे वाल्मीकि रामायण में मिल गया. मुझे लगा कि इसको लिखना बहुत जरूरी है. आज जहाँ देखो मठाधीशों का बोलबाला है. तमाम संस्थाओं के मुखिया बने बैठे लोग एक तरह से मठाधीश ही तो हैं. पत्रकारिता में तो ये शब्द खासतौर से विद्यमान है. महर्षि वाल्मीकि ने इस प्रसंग के माध्यम से बहुत सरल तरीके से समझा दिया है कि मठाधीश होने के क्या मायने
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बहुत ही प्रेरक प्रसंग हैं।
जवाब देंहटाएंDhanyawad Ajit Ji...
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