तो जी यूपी की मिट्टी से चुनावी खुशबू आनी शुरू हो गई है और धीरे-धीरे पूरे देश में फैलती जा रही है। चैनलों पर गर्म-गर्म पकौड़ों के माफिक गर्मागर्म बहसों का दौर शुरू हो गया है। एक के बाद एक शिगूफे छेड़े जा रहे हैं और चैनलों को मुद्दे पर मुद्दे मिल रहे हैं। पत्रकार लोग ऐसे संजीदा होकर सवाल पूछ रहे हैं मानो उन्हें अपनी टीआरपी से ज्यादा सचमुच देश की चिंता सताने लगी है। जनता को लुभाने के लिए दाव पर दाव फेंके जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि ‘उत्तर परदेस’ को चार टुकड़ों में बांट दो तो कोई बेचारे और मजलूमों के कर्ज माफ करा रहा है। बस किसी तरह ये 19 करोड़ भिखारी उनके फेवर में बटन दबा दें। लेकिन ये भिखारी कुछ ज्यादा ही श्याणे हो गए हैं। इत्ती आसानी से बटन नहीं दबाने वाले। ये लोकपाल वाले भी तो भड़काने में लगे हैं इन भिखारियों को। ऊपर से वो हरिद्वार वाले बाबा और दूसरे वो बंगलुरू वाले ये दोनों भी जनता को जागरूक करने पर तुले हैं। ‘उत्तर परदेस’ के स्कूलों में तो इस तरह की शिक्षा देने की गंुजाइश रखी ही नहीं कि लोगों का जमीर जाग सके, वो अपने दिमाग का इस्तेमाल कर सकें। चाहे कितना भी पढ़ाई कर लें, ऐसी सोशल इंजीनियरिंग की है कि लोग जाति और धर्म से ऊपर उठकर वोट डाल ही नहीं सकते। बाकी रहा-सहा काम आरक्षण का मुद्दा कर देता है। पिछले 64 सालों से आरक्षण का बाण ठीक निशाने पर लगता आया है। लेकिन अबकी बार ये सामाजाकि और आध्यात्मिक नेता सारा गुड़ गोबर करने पर तुले हैं। अरे ‘उत्तर परदेस’ की चुनावी कढ़ाई में जरा सा आरक्षण का तड़का लगाया जाता, कर्ज माफी का मसाला डाला जाता और बंटावारे की कढ़ाई पर जब चढ़ाया जाता तो जनता खुद-ब-खुद गफलत में पड़ जाती कि किसको वोट दें और किसको न दें। लेकिन पता नहीं ये लोग कहां से आ गए हैं बीच में टांग अड़ाने भ्रष्टाचार और काले-पीले धन का मुद्दा लेकर। अब बताओ जरा अपने विपक्षियों से निपटें या इन समाज के ठेकेदारों से। ‘उत्तर परदेस’ के चुनावी मैच में ये एक्स्ट्रा प्लेयर्स गड़बड़ किए दे रहे हैं।
अब बताओ इसमें कौनसी बात हो गई कि बंटवारे का प्रस्ताव पांच मिनट में पास हुआ या पांच घंटे में या फिर जनता को किसी ने भिखारी कहा या शहंशाह, कुर्सी के गेम में थोड़ा बहुत तो चलता है। लेकिन इन खबरिया चैनलों को तो बस मुद्दा चाहिए। 24-24 घंटे के चैनल खोल रखे हैं, दिखाने के लिए कुछ है नहीं, टीआरपी बचानी है, सो जरा सी बात का बतंगड़ बना देते हैं। चेहरे पर पाउडर पोत कर ऐसे बहस करते हैं मानो देश की सबसे ज्यादा चिंता इन्हीं पत्रकारों को है। केवल अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए पब्लिक का इमोशनल सपोर्ट पाने की कोशिश करते रहते हैं। खैर चैनल और अखबार वालों से तो निपट लिया जाएगा। इनकी कमजोर नब्ज तो नेताओं के हाथ में ही होती है। चुनाव में जब पैसों की बोरियों के और दारू की बोतलों के मुंह खुलेंगे तो सारी पत्रकारिता पानी भरती नजर आएगी। लेकिन ये लोकपाल वाले और बाबा लोग जरूर नाक में दम कर सकते हैं। पब्लिक का बहुत ज्यादा जागरूक होना भी ठीक नहीं है साहब। पब्लिक जितना अंधेरे में रहे उतना अच्छा। जिनकी पीढि़यां दर पीढि़यां अंधेरे में रहती चली आई हैं, तो उनके बच्चों का नाम लाइट हाउस रखने से कोई थोड़े ही रोशनी हो जाएगी। विकास के नाम पर बंटवारे का जो पासा फेंका है, तो आपको क्या लगता है कि सचमुच हमें विकास की चिंता सता रही है। अरे चुनावी गोटी है, चली चली न चली। पांच साल में चुनाव आते हैं अरबों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। इसी काले धन की बदौलत पूरी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त तेजी आ जाती है। लेकिन लगे हैं लोग काले धन का ढोल पीटने। ये काला धन है जिसकी बदौलत देश की इकोनाॅमी में इतना बूम नजर आ रहा है। माॅल पर माॅल खड़े हो रहे हैं, छोटे-छोटे शहरों में भी रीयल एस्टेट आसमान से बातें कर रहा है। बिना काले धन के हो जाता ये सब। करते रहते पैंठ और हाट से शाॅपिंग। अब भगवान झूठ न बुलवाए। अगर देश-विदेश में आज भारतीय अर्थव्यवस्था की चर्चा हो रही है तो उसमें काले धन का बहुत बड़ा योगदान है, ये मत समझ लेना कि उसमें वित्तमंत्री की कोई कारीगरी है। अब समझते तो हैं नहीं। अगर भ्रष्टाचार मिट गया तो पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। आम जनता के दुख और परेशानी देखकर क्या हमारा दिल नहीं पसीजता? हमारा भी दिल रोता है। पर करें क्या? सिस्टम ही कुछ ऐसा है। तमाम दलितों के यहां हमने रातें गुजारी हैं। ऐसा नहीं है कि हमें कुछ पता नहीं है। लेकिन सिस्टम कुछ ऐसा है कि जरा सी छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो सबसे ज्यादा नुकसान उसी को होगा जो उसे बदलने की कोशिश करेगा। तो जी जैसा चल रहा है चलने दो। पब्लिक भी अब इसी सिस्टम की आदि हो चुकी है। ज्यादा भड़काने की कोशिश की तो हालात मिस्र और सीरिया जैसे हो सकते हैं। (‘‘उत्तर परदेस’’ के जनहित में देश के ‘जिम्मेदार’ नेताओं द्वारा जारी!!!!)