बुधवार, 23 नवंबर 2011

बाप मर गए अंधेरे में और बेटे का नाम लाइट हाउस!


तो जी यूपी की मिट्टी से चुनावी खुशबू आनी शुरू हो गई है और धीरे-धीरे पूरे देश में फैलती जा रही है। चैनलों पर गर्म-गर्म पकौड़ों के माफिक गर्मागर्म बहसों का दौर शुरू हो गया है। एक के बाद एक शिगूफे छेड़े जा रहे हैं और चैनलों को मुद्दे पर मुद्दे मिल रहे हैं। पत्रकार लोग ऐसे संजीदा होकर सवाल पूछ रहे हैं मानो उन्हें अपनी टीआरपी से ज्यादा सचमुच देश की चिंता सताने लगी है। जनता को लुभाने के लिए दाव पर दाव फेंके जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि ‘उत्तर परदेस’ को चार टुकड़ों में बांट दो तो कोई बेचारे और मजलूमों के कर्ज माफ करा रहा है। बस किसी तरह ये 19 करोड़ भिखारी उनके फेवर में बटन दबा दें। लेकिन ये भिखारी कुछ ज्यादा ही श्याणे हो गए हैं। इत्ती आसानी से बटन नहीं दबाने वाले। ये लोकपाल वाले भी तो भड़काने में लगे हैं इन भिखारियों को। ऊपर से वो हरिद्वार वाले बाबा और दूसरे वो बंगलुरू वाले ये दोनों भी जनता को जागरूक करने पर तुले हैं। ‘उत्तर परदेस’ के स्कूलों में तो इस तरह की शिक्षा देने की गंुजाइश रखी ही नहीं कि लोगों का जमीर जाग सके, वो अपने दिमाग का इस्तेमाल कर सकें। चाहे कितना भी पढ़ाई कर लें, ऐसी सोशल इंजीनियरिंग की है कि लोग जाति और धर्म से ऊपर उठकर वोट डाल ही नहीं सकते। बाकी रहा-सहा काम आरक्षण का मुद्दा कर देता है। पिछले 64 सालों से आरक्षण का बाण ठीक निशाने पर लगता आया है। लेकिन अबकी बार ये सामाजाकि और आध्यात्मिक नेता सारा गुड़ गोबर करने पर तुले हैं। अरे ‘उत्तर परदेस’ की चुनावी कढ़ाई में जरा सा आरक्षण का तड़का लगाया जाता, कर्ज माफी का मसाला डाला जाता और बंटावारे की कढ़ाई पर जब चढ़ाया जाता तो जनता खुद-ब-खुद गफलत में पड़ जाती कि किसको वोट दें और किसको न दें। लेकिन पता नहीं ये लोग कहां से आ गए हैं बीच में टांग अड़ाने भ्रष्टाचार और काले-पीले धन का मुद्दा लेकर। अब बताओ जरा अपने विपक्षियों से निपटें या इन समाज के ठेकेदारों से। ‘उत्तर परदेस’ के चुनावी मैच में ये एक्स्ट्रा प्लेयर्स गड़बड़ किए दे रहे हैं। 

अब बताओ इसमें कौनसी बात हो गई कि बंटवारे का प्रस्ताव पांच मिनट में पास हुआ या पांच घंटे में या फिर जनता को किसी ने भिखारी कहा या शहंशाह, कुर्सी के गेम में थोड़ा बहुत तो चलता है। लेकिन इन खबरिया चैनलों को तो बस मुद्दा चाहिए। 24-24 घंटे के चैनल खोल रखे हैं, दिखाने के लिए कुछ है नहीं, टीआरपी बचानी है, सो जरा सी बात का बतंगड़ बना देते हैं। चेहरे पर पाउडर पोत कर ऐसे बहस करते हैं मानो देश की सबसे ज्यादा चिंता इन्हीं पत्रकारों को है। केवल अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए पब्लिक का इमोशनल सपोर्ट पाने की कोशिश करते रहते हैं। खैर चैनल और अखबार वालों से तो निपट लिया जाएगा। इनकी कमजोर नब्ज तो नेताओं के हाथ में ही होती है। चुनाव में जब पैसों की बोरियों के और दारू की बोतलों के मुंह खुलेंगे तो सारी पत्रकारिता पानी भरती नजर आएगी। लेकिन ये लोकपाल वाले और बाबा लोग जरूर नाक में दम कर सकते हैं। पब्लिक का बहुत ज्यादा जागरूक होना भी ठीक नहीं है साहब। पब्लिक जितना अंधेरे में रहे उतना अच्छा। जिनकी पीढि़यां दर पीढि़यां अंधेरे में रहती चली आई हैं, तो उनके बच्चों का नाम लाइट हाउस रखने से कोई थोड़े ही रोशनी हो जाएगी। विकास के नाम पर बंटवारे का जो पासा फेंका है, तो आपको क्या लगता है कि सचमुच हमें विकास की चिंता सता रही है। अरे चुनावी गोटी है, चली चली न चली। पांच साल में चुनाव आते हैं अरबों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। इसी काले धन की बदौलत पूरी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त तेजी आ जाती है। लेकिन लगे हैं लोग काले धन का ढोल पीटने। ये काला धन है जिसकी बदौलत देश की इकोनाॅमी में इतना बूम नजर आ रहा है। माॅल पर माॅल खड़े हो रहे हैं, छोटे-छोटे शहरों में भी रीयल एस्टेट आसमान से बातें कर रहा है। बिना काले धन के हो जाता ये सब। करते रहते पैंठ और हाट से शाॅपिंग। अब भगवान झूठ न बुलवाए। अगर देश-विदेश में आज भारतीय अर्थव्यवस्था की चर्चा हो रही है तो उसमें काले धन का बहुत बड़ा योगदान है, ये मत समझ लेना कि उसमें वित्तमंत्री की कोई कारीगरी है। अब समझते तो हैं नहीं। अगर भ्रष्टाचार मिट गया तो पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। आम जनता के दुख और परेशानी देखकर क्या हमारा दिल नहीं पसीजता? हमारा भी दिल रोता है। पर करें क्या? सिस्टम ही कुछ ऐसा है। तमाम दलितों के यहां हमने रातें गुजारी हैं। ऐसा नहीं है कि हमें कुछ पता नहीं है। लेकिन सिस्टम कुछ ऐसा है कि जरा सी छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो सबसे ज्यादा नुकसान उसी को होगा जो उसे बदलने की कोशिश करेगा। तो जी जैसा चल रहा है चलने दो। पब्लिक भी अब इसी सिस्टम की आदि हो चुकी है। ज्यादा भड़काने की कोशिश की तो हालात मिस्र और सीरिया जैसे हो सकते हैं। (‘‘उत्तर परदेस’’ के जनहित में देश के ‘जिम्मेदार’ नेताओं द्वारा जारी!!!!)

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

पैसा बटोरने वाले कॉलेजों से बेहतर तो तिहाड़ जेल निकली!

एक शो रूम में तिहाड़ के उत्पाद.  
अब इसे समय की विडंबना कहें या फिर बदलते समीकरण कि संभ्रांत कॉलेजों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स चेन स्नेचिंग और वाहन चोरी जैसी घटनाओं में पकड़े जा रहे हैं और तिहाड़ जेल में सजायाफ्ता कैदी पढ़-लिख कर प्लेसमेंट प्राप्त कर रहे हैं। खबर है कि तिहाड़ जेल के 100 कैदियों को विभिन्न कंपनियों ने अच्छे पैकेज पर लिया है। जो सबसे मोटा पैकेज दिया गया है वो है छह लाख प्रति वर्ष। कैंपस प्लेसमेंट में ऐसे कैदियों ने भाग लिया जो जेल में रहकर विभिन्न प्रोफेशनल कोर्स कर रहे थे और जिनकी सजा आने वाले एक साल में पूरी होने वाली है। तिहाड़ जेल इससे पहले भी अपनी विशेषताओं के चलते चर्चा में रही है। कैदियों पर जितने प्रयोग इस जेल में किए गए, वे देश की किसी भी जेल में नहीं हुए। कितने ही मामले ऐसे हैं जिनमें अपराधियों के लिए तिहाड़ जेल एक वरदान साबित हुई।

तिहाड़ की नमकीन.
तिहाड़ जेल का ट्रेड मार्क है टीजे.
यहां पर सवाल फिर वही उठता है कि सवा सौ करोड़ के देश में केवल एक जेल ऐसी है जिसमें कैदियों को सुधारने की दिशा में कदम उठाए जाते हैं। एक मानवाधिकार संगठन के वर्ष दो हजार के आंकड़ों को देखा जाए तो देश की सभी जेलों में कुल 211720 कैदी रखे जा सकते हैं, लेकिन उनमें 248115 कैदी कैद हैं। भारतीय जेलों की रिहायशी दर 117.19 प्रतिशत तक पहुंच गई हैं। तिहाड़ जेल भी इस समस्या से अछूती नहीं रही है। लेकिन फिर भी तिहाड़ जेल में कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। लेकिन अगर जिला स्तर पर जाकर देखें तो जेल वास्तव में नर्क का द्वार हैं। कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम तो दूर की बात है, वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। वातावरण ऐसा है कि अगर यहां की जेलों में कोई छोटा अपराधी जाता है तो वहां से और बड़ा अपराधी बनकर निकलता है। मतलब अगर अन्ना हजारे की भाषा में कहें तो क्राईम का ग्रजुएट जाता है और डाॅक्टरेट करके निकलता है। जेलों का महाभ्रष्ट तंत्र कुछ इस प्रकार का है कि पैसे के दम पर वहां कानून की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं।

उदाहरण के लिए मेरठ के जिला कारागार में कई बार जब छापे मारे गए तो वहां कैदियों के पास से मोबाइल मिले, पैने हथियार बरामद किए गए और न जाने क्या क्या! हर बार छापा पड़ता है और हर बार ऐसा होता है। कैदियों तक ये सामान पहुंचाते हैं उनसे मिलने आने वाले उनके परिजन, लेकिन उनको रखने की इजाजत आखिर कौन देता है। जेल प्रशासन देखकर भी चीजों को अनदेखा कर देता है। जेल के अंदर कैदियों की जरूरत का सामान बेचने के लिए दुकान भी होती है। लेकिन चीजों के दाम बाजार से पांच गुना लिए जाते हैं। खुद जेल में मौजूद जेल स्टाफ चंद पैसों के लिए कैदियों की उंगलियों पर खेलते हैं। ये तो बेहद छोटी किस्म की चीजों का उल्लेख किया। बड़ी-बड़ी कारस्तानियों को अंजाम दिया जा रहा है। इस सब की जानकारी जेल के जेलर समेत पूरे मेरठ प्रशासन को भी है। लेकिन फिर भी चीजें चल रही हैं। सिर्फ औपचारिकता के लिए कभी-कभी छापे मार दिए जाते हैं। उसके बाद स्थिति जस की तस। और ऐसा केवल मेरठ में नहीं है, देश की समस्त जेलों में अमूमन यही हाल है, कहीं थोड़ा कम तो कहीं थोड़ा ज्यादा।

जिला प्रशासन के पास इतना वक्त ही नहीं कि कैदियों के बारे में थोड़ा रचनात्मक ढंग से सोचकर जेल का एक सुधारगृह के रूप में तब्दील करे। यहां तक कि जो बाल सुधार गृह या बच्चा जेल हैं उनमें भी बच्चों को सुधारने की दिशा में कुछ रचनात्मक नहीं किया जा रहा। कुछ सामाजिक संगठन समय-समय पर जरूर वहां अपनी गतिविधियां आयोजित करते रहते हैं। ऐसा भी नहीं कि जिला प्रशासन के पास सोच नहीं है। लेकिन जेलों को अगर सुधार गृह बनाने की कोशिश की गई तो वहां से आने वाली कमाई पर ब्रेक लग जाएंगे। शायद ही कोई जेलर ऐसा चाहे। तिहाड़ की तरह भारतीय जेलों में तमाम प्रयोग किए जा सकते हैं। सवाल ही नहीं कि इंसान के अंदर सुधार न आए। कुछ अपराध न चाहते हुए भी परिस्थितिवश करने पड़ते हैं। लेकिन अगर जेल में भी नारकीय परिस्थिति मिले तो इंसान की मानसिक हालत और जड़ हो जाती है। तिहाड़ को माॅडल मानकर भारतीय जेलों में जेल इंडस्ट्री भी बनाई जा सकती है। कैदियों की अभिरुचि के मुताबिक उनको प्रशिक्षित किया जा सकता है या उनसे कोई भी रचनात्मक काम कराया जा सकता है। वरना जेलों में अपराधी जाते रहेंगे और वहां से घोर अपराधी बनकर बाहर आते रहेंगे।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

राग-ए-उमर


जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को गद्दी ज्यादा रास आ रही है। रास आए भी क्यूं न ये उनकी खानदानी गद्दी है जिस पर कभी उनके पिता और उससे पहले उनके दादा विराजमान थे। और भारतीय लोकतंत्र अगर इसी पैटर्न पर चलता रहा तो आगे चलकर उमर की संतानें इस गद्दी की शोभा बढ़ाएंगी। ये वही अब्दुल्ला परिवार है जिसने कभी सत्ता से बाहर रहना नहीं सीखा। जब ये परिवार दिल्ली में होता है तो इसके सुर कोई और होते हैं और जब ये कश्मीर में होता है तो दूसरे। सत्ता की लोलुपता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उसका सुख भोगने के लिए ये परिवार उनका भी दामन थाम सकता है जिनको ये अपना दुश्मन कहता है, जिनके साथ इनका न विचार मेल खाता है और न विचारधारा। जिस भाजपा को सुबह से शाम तक गरियाने में जो पार्टी कभी पीछे नहीं रहती उसी पार्टी के मुखिया भाजपा को समर्थन देकर वाजपेयी मंत्रीमंडल में मंत्री भी बन जाते हैं। किसी भी कीमत पर सत्तासुख भोगने वाले लोग क्या कभी राष्ट्रहित में निर्णय ले सकते हैं? उनकी नजरों में सदैव कुर्सी प्रथम होती है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की जो मांग कर रहे हैं उसको उनकी सत्ता की महत्वाकांक्षा और इमोशनल वोट बैंक पाॅलिटिक्स के नजरिए से क्यों न देखा जाए? खैर बात हो रही है गद्दी पर रासलीला की। उमर ने शिगूफा छेड़ा है कि जम्मू-कश्मीर में प्रयोग के तौर पर कुछ इलाकों से सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून हटा दिया जाए।

मुख्यमंत्री के इस बयान से देश में एक बहस छिड़ गई है। तमाम तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार संगठनों ने लामबंद होकर उनका समर्थन करना शुरू कर दिया है। पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर की समस्या को एक ही चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है। जबकि दोनों जगह ये कानून लगाने के पीछे अलग-अलग कारण हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला का उदाहरण देकर कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मांग की जा रही है। कल एनडीटीवी पर प्राइमटाइम में इस विषय पर एक बहस दिखाई जा रही थी, जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता कम पत्रकार राहुल पंडिता भारतीय सेना को समाज का शत्रु बताने पर तुले थे। उनकी बातों में झलक रहा था मानो भारतीय सेना विश्व की समस्त सेनाओं में मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन कर रही है। और अपने इन्हीं कुतर्कों के आधार पर वे कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मां कर रहे थे। बहस में मौजूद आर्मी के रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी ने तो उनकी अच्छी खबर ली और जमकर सुनाया। बहस के दौरान जनरल बख्शी को इतना गुस्सा आ गया कि पंडिता का चेहरा पीला पड़ गया।

(देखें विडियो-http://khabar.ndtv.com/PlayVideo.aspx?id=215864 )

जनरल बख्शी का गुस्सा लाजमी था। मानवाधिकार के दो-चार कानून पढ़कर और उसके नाम पर विदेशों से फंड इकट्ठा करके मलाई मारने वाले चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने छिछले ज्ञान से भारतीय सेना पर उंगली उठाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। ऐसी हरकत करते हुए वे ये भूल जाते हैं कि अगर जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में सेना की मौजूदगी न होती तो आज देश के गई टुकड़े हो गए होते। वे भूल जाते हैं कि कितने जवानों ने देश को अखंड रखने के लिए अपने प्राणों की आहुतियां दीं।

खुद को लीग से हटकर दिखाना और नाॅर्मल चीजों पर एब्नाॅर्मल राय देना या तो फैशन बन गया है या फिर उसमें कोई न कोई फायदा निहित होता है। लेकिन दुखद पक्ष ये है कि इस ट्रेंड में हमने अपनी सेना को भी टार्गेट करना शुरू कर दिया है। इससे हमारे उन सैनिकों पर जो देश के लिए अपना खून बहाते हैं क्या असर पड़ेगा इसका अंदाजा लगाना कठिन है। हो सकता है कि इस कानून की वजह से एक-दो घटनाएं ऐसी घटित हुई हों जिसमें मानवाधिकारों का हनन हुआ हो। लेकिन अगर इस कानून का आधार न होता तो कश्मीर के अलगाववादी संगठन कब का उसे निगल गए होते। इस कानून का ही डर है कि आतंकी अपना सिर उठाने से घबराते हैं। यही कानून का सहारा है कि फौज हर साल अपने दम पर अमरनाथ यात्रा संपन्न कराती है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के भरोसे अमरनाथ यात्रा कभी नहीं पूरी की जा सकती। आज जिस कश्मीर में जिस शांति की दुहाई दी जा रही है वो भी फौज के दम पर ही है। एक दिन के लिए भी अगर फौज को वहां से बुला लिया जाए तो उमर अब्दुल्ला अपनी लाड़ली कुर्सी ढूंढते रह जाएंगे। लाखों विस्थापित कश्मीरी पंडितों के मसले पर आज तक जम्मू-कश्मीर सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई, वो सरकार अगर मानवाधिकार की बात करती है तो समझ से परे है। ताली एक हाथ से नहीं बजती। अच्छा हुआ होता अगर एफ्सपा हटाने से पहले विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाने के बारे में कोई कदम उठाया होता।

रविवार, 6 नवंबर 2011

ये कौन नचा रहा है देश की आवाम को कठपुतली की तरह!!!



महंगाई डायन है, महंगाई चु़ड़ैल है, महंगाई भूतनी है! हर गली, हर गांव, हर मोहल्ले, हर चैराहे, हर शहर में महंगाई ऐसी खुल्ली होकर नाच रही है जैसे मुंबई के क्लबों में बार बालाएं नाचती थीं। भारत के मिडिल क्लास के लिए महंगाई एक डरावना सपना बन गई है। एक भी तो ऐसी चीज नहीं बची जिसको सस्ता कहा जा सके। एक भारतीय रेल के जनरल डिब्बों के किराए को छोड़कर हर चीज के दाम महीना तो दूर हर हफ्ते बढ़ जाते हैं। 10 रुपये में निरमा का जो 500 ग्राम का पैकेट आता था वो अब 400 ग्राम का हो चुका है। कंपनियां अपने ग्राहकों को साइकोलाॅजिकली ट्रीट कर रही हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि चीजों का वजन इस तरह घटेगा कि बाजार में 100 ग्राम, सवा तीन सौ ग्राम के भी पैकेट मिला करेंगे। पहले सब्जी वाले सीधे किलो भर का रेट बताते थे। अब वही सब्जी वाले एक पाव का रेट बताते हैं। बताएं भी क्यों न, जो सब्जी अभी थोड़े दिन पहले तक 10-15 रुपए किलो मिल जाती थी, वही सब्जी अब 10-15 रुपए पाव बिक रही है। एक पाव सब्जी लेने पर सब्जी वाला ऐसे देखता था मानो कहां का कंगाल आ गया हो। अब तो चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ 100 ग्राम सब्जी भी तोलकर देने को तैयार है।

लेकिन हम भारतीयों की सबसे अच्छी बात यही है कि हम हर परिस्थिति में एडजस्ट कर लेते हैं। हमने महंगाई के साथ भी एडजस्ट करना सीख लिया है। घर की गृहणी से लेकर बच्चों तक को समझ हो गई है कि महंगाई बहुत ज्यादा है माता-पिता के सामने नाजायज मांगें न रखें। अबकी दीवाली पर जब मैं मुरादाबाद में पटाखों के बाजार में गया तो देखा कि बच्चे नन्हीं-नन्हीं थैलियों में पटाखे खरीदकर ले जा रहे थे। किसी के पास पटाखों का जखीरा नहीं था, मानो केवल नेग करने के लिए पटाखे खरीद रहे हों। पटाखा बाजार में बैठे दुकानदार भी कुछ खास उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे। महंगाई के चलते दुकानदारों ने भी माल कम ही मंगवाया था। अब से तीन-चार साल पहले मैंने उसी शहर में लोगों को बोरे भर-भर कर पटाखे खरीदते देखा था।

लेकिन इस महंगाई का सबसे दुखद पक्ष यही है कि सबसे ज्यादा मार रोटी पर है। खाने-पीने की वस्तुओं के जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं, वह बेहद निराशाजनक है। इलेक्ट्राॅनिक्स आइटम हों या आॅटो बाजार यहां काॅम्पटीशन के चलते बहुत ज्यादा महंगाई की मार नजर नहीं आती। बल्कि कार और बाइक खरीदना तो कहीं आसान हो गया है, लेकिन पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के बीच उनको चलाना एक टेढ़ी खीर है। लेकिन रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़ी चीजों पर तो महंगाई ऐसे चढ़कर बैठ गई है जैसे मुर्गी अपने अंडों पर बैठती है। आटा, चावल, दालें, तेल, चीनी, सब्जियां, फल, दूध, दही, पनीर जैसी चीजों के दाम आम आदमी को चैन से सोने नहीं दे रहे। खाने की चीजों के दाम तब आसमान छू रहे हैं जब हम रिकाॅर्ड फसल उत्पादन का दावा करते हैं और हमारे भंडार भरे हुए हैं। लेकिन इस रिकाॅर्ड उत्पादन का लाभ न तो गांव के किसान को हो रहा है और न शहर के उस ग्राहक को हो रहा है जो परचून की दुकान से आटा खरीदता है। इन दोनों के बीच में कोई है जो बहुत मोटा कमा रहा है। वो कौन है, कैसा दिखता है, क्या करता है, ये किसी को नहीं पता। वो एकदम उस ब्रह्म के समान है, जो है लेकिन दिखता नहीं। उसकी लीला कुछ ऐसी है कि देश की पूरी जनता को कठपुतली के समान नचा रहा है। वो कोई बहुत गहरा और समझदार कलाकार है, जो बड़ी सफाई के साथ किसानों का पसीना पी रहा है और जनता का टैक्स हड़प रहा है। जैसे ब्रह्म को जानना बहुत कठिन है उसी प्रकार इस कलाकार को भी पहचानना बेहद मुश्किल है। जैसे कठिन साधना के उपरांत अगर कोई ब्रह्म को जान लेता है तो उसको जानने के बाद उसी के जैसा बन जाता है, उसी प्रकार इस कलाकार को जब कोई पहचान लेता है तो वो भी उसी के रंग में रंग जाता है। इसलिए आम लोगों की परिस्थिति जस की तस बनी रहती है।

विडंबना ये है कि अर्थव्यवस्था का ये हाल तब है जब देश का प्रधानमंत्री एक अर्थशास्त्री है। अर्थशास्त्री भी ऐसा-वैसा नहीं, जिसके अर्थज्ञान का की चर्चा दसों दिशाओं में होती रही है। देश के पास एक ऐसी सरकार है जो मंचों पर केवल आम आदमी की बात करती है। जिसके युवराज अपना फोटो खिंचवाने और रोटी खाने के लिए गरीब से गरीब की झोंपड़ी खोजते फिरते हैं। पता नहीं युवराज अपनी आंखों पर कौनसा चश्मा लगाकर जाते हैं कि उनको उन परिवारों की समस्याएं नहीं दिखतीं। क्योंकि ये भी हमारे समाज की संस्कृति का हिस्सा है कि हम अतिथि के सामने अपनी समस्याओं का रोना नहीं रोते। ये सामने वाले की पारखी नजर होती है जो बिना कहे चीजों को समझ लेती है।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...