बुधवार, 21 अगस्त 2013

योजनाएं हैं योजनाआों का क्या?

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के जन्मदिवस के मौके पर दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में खाद्य सुरक्षा योजना शुरू कर दी गई। ये कोई पहली योजना नहीं है जिसे सरकार ने आम लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए शुरू किया है। लेकिन इसके सामने भी वही पुराना सवाल मुंह बाय खड़ा है कि बाकी तमाम योजनाओं की तरह क्या इस योजना का लाभ भी आम आदमी तक पहुंच पाएगा?

ये योजना अच्छी है। पहली तमाम योजनाएं भी अच्छी थीं। पर अपना सरकारी सिस्टम ही कुछ ऐसा है कि योजनाओं का लाभ जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पाता। देश के सर्वोच्च सत्ता केंद्र को देश की बुनियादी जरूरतों से जोड़ने के लिए अंग्रेजों ने जो सिस्टम इजाद किया था, उस सिस्टम में अब सड़ांध फैल चुकी है। सिस्टम सही है, लेकिन उसमें बैठे लोग या तो काम करना नहीं चाहते, या उनके पास सोच नहीं है, या फिर केवल मलाई मार रहे हैं।

दिल्ली में बैठे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने आम लोगों तक जो सस्ता राशन पहुंचाने का सपना देखा है, वो अंततः राज्य सरकारों और उनके नीचे बैठे नौकरशाहों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचना है। सरकार तो योजना की घोषणा और उसके लिए धन मुहैया कराकर पल्ला झाड़ लेती है। और पूरी योजना जिला और तहसील स्तर पर बैठे नौकरशाहों के भरोसे छोड़ दी जाती है। और यहीं से शुरू होता है ऊपर से आने वाले धन का दुरुपयोग।

क्या इन योजनाओं को जमीनी स्तर पर लागू कराने में जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए? संसद में सांसद अपना चेहरा दिखाने के लिए विभिन्न योजनाओं पर जमकर बहस तो करते हैं, लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र में योजना को लागू कराने में कभी कोई अग्रणी भूमिका अदा नहीं करते। क्या सांसदों और विधायकों को समय-समय पर विभिन्न योजनाओं का जायजा नहीं लेना चाहिए? लेकिन सारी की सारी योजनाएं जिला कलेक्टर के भरोसे छोड़ दी जाती हैं। अब या तो इसे जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के बीच की सेटिंग माना जाए या फिर जनप्रतिनिधियों की काहिली।

जमीनी स्तर पर लोगों तक विभिन्न योजनाओं का लाभ पहुंचाने में जनप्रतिनिधि बहुत बड़ा रोल अदा कर सकते हैं। भारतीय राजनीति का ढांचा भी ऐसा है जिसमें जनप्रतिनिधि के दायित्वों का दायरा बहुत बड़ा है। पर जनप्रतिनिधि कभी इस तरफ ध्यान देते नहीं देखे गए।

भारतीय राजनीति के साथ समस्या ये है कि पहले तो नेता सांसद बनने के लिए टिकट के लिए मारामारी करते हैं, ज्यों ही नेता जी सांसद बनते हैं तो मंत्री बनने की ताक में लग जाते हैं और अगर मंत्री बन गए तो सीधे प्रधानमंत्री बनने के सपने पालने लगते हैं। दरअसल एक विधायक और सांसद अगर चाह लें तो देश के बुनियादी स्तर पर बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के प्रधानमंत्री के रूप में काम कर सकता है और हर विधायक अपने विधानसभा क्षेत्र के मुख्यमंत्री के तौर पर। और अगर इस तरह से सांसद और विधायक काम कर ले जाएं तो शायद ही उनको कोई हरा पाए। पर उनके अंदर ये चाह कहीं नजर नहीं आती।

बड़े मंच पर खड़े होकर बातें बनाना जितना आसान है, उन बातों को हकीकत में बदलना उतना ही मुश्किल। देश का एक-एक गांव, तहसील और जिला अगर मजबूती के साथ खड़ा होता है तो देश अंदर से स्ट्रांग बनेगा। फिर सतही विकास के झंडे नहीं गाढ़ने पड़ेंगे। और ये तभी संभव है जब एक-एक सांसद, विधायक, मेयर, ब्लाॅक प्रमुख और ग्राम प्रधान अपनी-अपनी भूमिका समझें। पर इन लोगों को समझाना भी अपने आप में एक टेढ़ी खीर है।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

भारत मतलब हादसों का देश!

बिहार के खगडि़या के धमारा घाट स्टेशन पर हुई रेल दुर्घटना भारतीय रेल या भारत सरकार के लिए कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद के भारत को अगर हादसों का देश कहा जाए तो शायद ही किसी को ऐतराज हो। दुर्घटनाओं की फेहरिस्त बनाने लग जाएं तो आठ जीबी की पेनड्राइव में भी स्पेस कम पड़ जाए। दुर्घटनाएं हुईं, हो रही हैं और होती रहेंगी। देश के आम लोगों को मजबूत सुरक्षा मिलना अभी बहुत दूर की कौड़ी है। खगडि़या हादसे के बारे में अगर सरकारी चैनल की मानें तो दुर्घटना में 28 लोग मारे गए हैं, प्राइवेट चैनलों को सुनें तो 35 लोगों के मारे जाने की खबर है और अगर घटनास्थल पर लोगों की सुनें तो मृतकों की संख्या इस से भी कहीं ज्यादा है।

खैर, मृतकों की संख्या कितनी भी हो इससे सरकार की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। दरअसल सरकार तो ‘डिमांड एंड सप्लाई’ के फाॅर्मूले पर चलती है। देश की आबादी जरूरत से कहीं ज्यादा है, सो आम लोगों के मरने-खपने से कोई असर नहीं पड़ता। आम लोगों का दुर्भाग्य है कि उनका देश वो देश नहीं है, जहां एक-एक जान सरकार के लिए कीमती हो। जहां, लोगों की सुरक्षा के इंतजाम इतने पुख्ता हों, कि दुर्घटना की गंजाइश ही न हो। जहां एक भी जान जाने पर पूरा सरकारी तंत्र हिल जाता हो। जहां सिस्टम का रेस्पांस टाइम बहुत तेज हो। ये सब तो उन पश्चिमी देशों के इंतजाम हैं जिनकी नकल पर हमारी सरकार काम करती है। लेकिन नकल करते वक्त सरकार आम लोगों की सुविधा और सुरक्षा का पक्ष बड़ी सफाई से दरकिनार कर देती है और अपनी सहूलियत के हिसाब से चीजों को देश में लागू करती है।

खगडि़या की दुर्घटना पर बयान देते हुए बिहार के विकास पुरुष मुख्यमंत्री कह रहे थे कि घटना ऐसी जगह हुई है जहां पहुंचने के लिए रास्ते भी नहीं है। ये कहते हुए उनके चेहरे पर कतई संकोच नहीं था। यही कारण था कि मौके तक पहुंचने में एंबुलेंस पहुंचने में भी घंटों का वक्त लग गया। दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर सफर करने वाले तो ये सोच भी नहीं सकते कि देश में ऐसे स्थान होंगे, जहां पहुंचने के लिए सड़कें भी न हों। लेकिन यही इस विकासोन्मुखी भारत की सच्चाई है। दिल्ली जैसे कुछ मेट्रोपाॅलिटन शहरों को चमकाकर सरकार विकास का ढिंढोरा पीटती फिरती है। जबकि हकीकत कुछ और ही है।

आजादी के 66 साल बाद भी सरकारी सुरक्षा इंतजाम ऐसे हैं कि छोटी-छोटी गलतियों के कारण बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं सामने आ रही हैं। और इन दुर्घटनाओं के बाद देश के प्रधानमंत्री दिल्ली से बेहद सरकारी टाइप बयान जारी करके दुख जता देते हैं। संबंधित मंत्रालय और राज्य अपनी-अपनी तरफ से मुआवजा राशि घोषित कर देता है। सालों से यही प्रथा चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। सुरक्षा इंतजामात पुख्ता बनाने की दिशा में कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आती।

अगर भारतीय रेल की ही बात करें तो राजधानी दिल्ली के दोनों स्टेशनों की सुरक्षा में इतने छेद हैं कि आतंकी जब चाहें किसी भी घटना को अंजाम दे सकते हैं। बाकी स्टेशनों की बात करना ही बेमानी है। अगर आज हम अपने-अपने स्थानों पर सुरक्षित हैं तो ये हमारा भाग्य है, इसमें सरकारी सुरक्षा इंतजामों का कोई योगदान नहीं है। पूरे देश के नागरिकों में ये असुरक्षा का भाव विद्यमान है, जिसको दूर करने में हमारा सिस्टम पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। काई जब चाहे आपके घर में चोरी कर सकता है, चेन स्नेचिंग कर सकता है, गाड़ी उठा सकता है, आप कभी भी कहीं भी एक्सीडेंट का शिकार हो सकते हैं। हमारा सिस्टम न तो इन घटनाओं को रोक पा रहा है और न ही हादसों के बाद कोई ठोस कदम उठाता है।

काश भारत ऐसा देश होता जहां इंसानों का मूल्य समझा जाता। अमेरिका में अप्रैल में हुए बाॅस्टन बम ब्लास्ट में तीन लोग मरे और 140 घायल हुए। घटना के बाद अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा खुद चलकर बाॅस्टन गए और देश के लोगों को ये भरोसा दिलाया कि आगे से ऐसी घटना नहीं होने देंगे और जो लोग इस घटना के पीछे हैं उनको नहीं बख्शा जाएगा। लेकिन दिल्ली में बैठी सरकार का ज्यादातर वक्त अपनी कुर्सी बचाने, विपक्ष से टकराने, मंत्रणाएं करने और भ्रष्टाचार फैलाने में निकल जाता है। वहीं दिल्ली में बैठा मीडिया काॅस्मेटिक जर्नलिज्म करता है। दिल्ली और एनसीआर में बिजली भी चली जाए तो मीडिया में कोहराम मच जाता है, लेकिन उन गांवों तक कैमरा नहीं पहुंच पाता जहां आज भी रातें काली हैं। नोएडा के आरुषि मर्डर केस को तो नाॅन स्टाॅप 24-7 कवरेज मिल सकती है, लेकिन छोटे-छोटे शहरों में हर रोज मर रही आरुषियों को बचाने के लिए मीडिया के पास कोई प्लान नहीं है।

लोकतंत्र और विकास की हवा-हवाई बातें करने से राजनीति और राजनीतिज्ञों का तो भला हो सकता है, लेकिन भारत और भारतीयों की इसमें कोई भलाई नहीं है। लोकतंत्र लालकिले पर चढ़कर बार-बार वही संकल्प दोहराने का नाम नहीं है, अगर आप सच्चे लोकतंत्र हैं तो आम लोगों पर उसकी झलक दिखनी चाहिए।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आओ मनाएं जश्न-ए-आजादी!

बचपन में स्वतंत्रता दिवस का मतलब एक ऐसा दिन जब स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा झंडारोहण, एक पकाऊ भाषण और उसके बाद चपरासी के हाथों कागज के खलते में मिलने वाले बूंदी के दो लड्डू। स्कूल में एक घंटा खर्चने के बाद पूरा दिन अपना घर पर खेलने कूदने के लिए। 

ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ी इस आजादी के मायने पता चलते गए। प्रिंसिपल की जो बातें पहले समझ नहीं आती थीं, धीरे-धीरे समझ आने लगीं। समझ आने लगीं देश के अंदर व्याप्त समस्याएं, चुनौतियां, भ्रष्टाचार और चरमराता सिस्टम।

तरुणाई के समय जैसे तकरीबन हर युवा के मन में देशभक्ति का जज्बा जागता है, वो आकर विद्यमान हो गया। मन में तरह-तरह के संकल्प जागे, देश के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, एक बड़ा बदलाव लाएंगे। कोई दिशा या ठोस रणनीति नहीं थी। बस एक जज्बा था, भावना थी। परिवर्तन के लिए राजनीतिक मंच सबसे ठोस जगह हो सकती थी, लेकिन दूर-दूर तक राजनीति से कोई नाता नहीं था। सो, पत्रकारिता को माध्यम चुना।

लेकिन पत्रकारिता में आकर पता चला ये तो खालिस व्यापार है। पहले तो विज्ञापनों को लेकर ही मीडिया की नैतिकता पर सवाल उठाए जाते थे, लेकिन अब तो इतने सवाल खड़े हो गए हैं कि सवाल भी खड़े-खड़े थक चुके हैं। और ये हालात केवल पत्रकारिता के ही नहीं हैं, प्रत्येक पेशे में नैतिक गिरावट दर्ज की जा रही है। पुलिस और राजनीति तो यूं ही बदनाम है, मेडिकल, ज्यूडिशियरी, रिटेल, बैंकिंग, रीयल एस्टेट कोई सा भी सेक्टर उठा कर देख लें हर जगह नैतिक पतन दिखेगा।

महात्मा गांधी ने 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी पर कहा था कि जहां तक देश के सात लाख गांवों का सवाल है अभी भारत को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी मिलनी बाकी है। उन्होंने देश के पहले जश्न-ए-आजादी में शिरकत भी नहीं की थी। बल्कि आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की भी बात कही थी। तब उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की बात क्यों कही होगी, ये आज की कांगे्रस को देखकर भलीभांति समझ आता है। गांधी युगदृष्टा थे। जिस कांग्रेस को उन्होंने अपने मेहनत से सींचा था, उसी कांग्रेस के कार्यकर्ता आगे चलकर देश के साथ क्या करेंगे, गांधी पहले ही समझ चुके थे। खैर उनकी बात तब भी नहीं सुनी गई, आज तो सुनेगा ही कौन।

गांधी की किताब ‘मेरे सपनों का भारत’ के पन्ने पल्टे जाएं तो पता चलता है कि वो देश की तमाम समस्याओं पर किस तरह सोचते हैं। छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने स्पष्ट दिशानिर्देश दे रखे हैं। जो शराब देश की रगों में सोची-समझी रणनीति के तहत उड़ेली जा रही है, उस शराब का तो उन्होंने घोर विरोध किया है। उन्होंने यहां तक लिख डाला कि उन्हें भारत का गरीब होना पसंद है, लेकिन देश का शराबी होना उनका मंजूर नहीं। उसी गांधी के देश में आज दूध की डेरियों से ज्यादा शराब के ठेके हैं। देश में मिल रहे प्रत्येक खाद्य पदार्थ में आज मिलावट है, केवल शराब ही है जिसमें कोई मिलावट नहीं और पूरी तरह शुद्ध रूप में जमकर बेची जा रही है।

गांधी जी ने जिन नैतिक मूल्यों की बात की थी, वे नैतिक मूल्य सत्ता की भूख ने चबाचबाकर खा लिए। यथा राजा तथा प्रजा के सिद्धांत को फलीभूत करते हुए राजनीति का नैतिक पतन अंततः देश के नागरिकों में गहराई तक समाता चला गया। ऐसा पाखंड शायद ही किसी देश में देखने को मिलता हो जहां के राजनीतिज्ञ और धर्मज्ञ मंच पर खड़े होकर आदर्शवाद का गान करें और मंच से उतरते ही भ्रष्टाचार और अनैतिकता के कीर्तिमान स्थापित करते हों। देश ने चाहे जैसा भी विकास किया हो लेकिन देश के चरित्र में जबरदस्त गिरावट आ चुकी है। हम पश्चिमी देशों में भले ही तरह-तरह के दोषारोपण करें, लेकिन एक चीज साफ है कि वहां के लोग मूल रूप से ईमानदार हैं, और हम लोग मूल रूप से बेईमान। हम रिश्तों को लेकर खासतौर से अपना गुणगान करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अवैध रिश्तों के कीर्तिमान इसी देश में स्थापित हैं। फर्क बस इतना है कि पश्चिम में रिश्तों पर खुलकर बात होती है और हम दबे-छिपे अवैध रिश्तों को पालते हैं।

आज एक नेता ऐसा नहीं बचा जिसके आदर्श बच्चों को पढ़ा सकें। राजनीति के हमाम में सब नंगे नजर आते हैं। इसलिए देश के नैतिक विकास के लिए राजनीति का नैतिक उत्थान सबसे पहले जरूरी है। जिस राम राज्य की कल्पना हम वर्षों से करते आए हैं, उस राम राज्य के लिए पहले ये समझना होगा कि राजा राम ने उस राज्य को स्थापित करने के लिए किस स्तर का तप किया। जब राम जैसा तपस्वी राजा हो तो प्रजा में धर्म की स्थापना खुदबखुद हो जाती है।

21वीं सदी का भारत ऐसा होगा और वैसा होगा, जैसे सपने देखना छोड़कर यथार्थ की धरा पर अगर काम नहीं शुरू किया गया तो भारत की स्थिति इस से भी खराब हो सकती है। दुशमन लगातार देश की सीमाओं को सिकोड़ता जा रहा है। पाकिस्तान और चीन की बात तो क्या करें, बांग्लादेश जैसा देश भी हमारे कुछ गांवों में पर कब्जा जमाए हुए है। नेपाल में जब से नई सरकार बनी है, बहुत ज्यादा भारत के प्रति सद्भावना नहीं दिखा रही है। नेपाल में वामपंथियों के उदय को चीन का वरदहस्त प्राप्त है। अब वहां ज्यादा भरोसा बचा नहीं है। भूटान को भारत ने एलपीजी और केरोसीन पर सब्सिडी क्या कम की उसने भी चीन का दामन थामने की धमकी दे डाली। दक्षिण में श्रीलंका भी चीन के साथ जमकर गलबहियां कर रहा है। ये परिस्थितियां कोई विशेष हर्ष नहीं पैदा करती हैं।

1947 में डाॅलर एक रुपये का था, 1991 में जब प्रकांड अर्थशास्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने एलपीजी (लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) की पाॅलिसी दी उस समय डाॅलर 18 रुपये का था। इस बीच देश में विकास के बड़े-बड़े दावे किए गए। इंडिया शाइनिंग से लेकर भारत निर्माण तक का सफर तय किया गया। लेकिन आज इस आर्थिक शक्ति संपन्न भारत में डाॅलर ने सारे कीर्तिमान तोड़ डाले और हमारा रुपया सीनियर सिटिजन बन गया। इस वास्तविकता को भुलाने के लिए हम पुराना राग अलापते रहते हैं कि भारत कभी सोने की चिडि़या था। पिछले दिनों ही पढ़ा कि उस समय हैदराबाद के निजाम विश्व के सबसे रईस आदमी थे। जब वर्तमान राष्ट्रपति भवन यानि उस समय का वाॅयसराॅय हाउस बना तो हैदराबाद के निजाम ने ल्युटियंस को इससे भी बड़ा घर बनाने के लिए कहा। ल्युटियंस ने उनकी बात तो मान ली, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत नहीं चाहती थी कि दिल्ली में कोई भी बिल्डिंग वाॅयसराॅय हाउस से बड़ी बने। लिहाजा ल्युटियंस ने निजाम को हैदराबाद हाउस बनाकर दिया। इतना पैसा खर्चने के बाद भी निजाम के बच्चों को ये हाउस पसंद नहीं आया और बाद में इसे सरकार को ही प्रदान कर दिया गया। भारत की संपन्नता को लेकर इस तरह के सैकड़ों किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति क्या है, हमें उस पर गंभीरता से गौर करना होगा।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

ऐ पाकिस्तान बता तेरी रजा क्या है?


पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद जिस दिन मियां नवाज शरीफ की पार्टी जीत की ओर बढ़ी, उन्होंने तपाक से बयान जारी कर दिया ‘वो भारत के साथ मजबूत और दोस्ताना रिश्ते बनाना चाहते हैं और बनाएंगे, चाहे भारत आग आए या न आए’। भारत के खबरिया चैनलों में बैठे अंग्रेजीदां पत्रकार इस बयान से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने मियां नवाज शरीफ का एक ‘मासूम गऊ’ चेहरा अपनी टीवी स्क्रीनों पर दिखाना शुरू कर दिया और तब तक दिखाते रहे जब तक हमारे ‘सिंह’ प्रधानमंत्री ने भी नहीं कह दिया कि वो भी पाकिस्तानी के नए गऊ प्रधानमंत्री से बतियाना चाहते हैं।

पाकिस्तान के मामले में अब तक के अनुभवों के बावजूद पता नहीं क्यों भारतीय मीडिया को उधर से दोस्ती की इतनी ज्यादा उम्मीद रहती है। किसी को उधर से अमन की आशा रहती है, कोई वहां के कलाकारों को मंच देने के लिए पलक बिछाए रहता है, तो कोई क्रिकेट डिप्लोमेसी की पैरोकारी करता है। भारतीय मीडिया के बीच पाए जाने वाले चंद जरूरत से ज्यादा ‘क्रिएटिव’ पत्रकार बार-बार ये बताने का प्रयास करते हैं कि वे जरा अलग ढंग से सोचते हैं, उनकी सोच परंपरागत नहीं है।

आप नई सोच रखें या परंपरागत पाकिस्तान अपनी करतूतों से आपकी हर सोच पर पानी फेरता रहा था, है और रहेगा। एक नई सोच के साथ ही अटल बिहारी वाजपेयी बस में सवार होकर लाहौर गए थे। यही मियां नवाज शरीफ उस समय भी दोस्ती के राग अलाप रहे थे। पर हुआ क्या इधर वो लाहौर में बार-बार वाजपेयी से गले मिल रहे थे और उधर कारगिल में मुशर्रफ भारत की पीठ में छुरा घोंप रहे थे। कारगिल में धोखा खाने के बावजूद वाजपेयी ने तानाशाह मुशर्रफ को बातचीत के लिए आगरा बुलाया। लेकिन आगरा में भारत का नमक खाने के बाद भी मुशर्रफ ने क्या सिला दिया, वो सबके सामने है।

नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान जो इन दिनों कारस्तानियां कर रहा है, वो सोची समझी रणनीति लगती है। उधर मियां नवाज शरीफ अपनी शराफत का लबादा ओढ़े हुए हैं और विश्व को दिखा रहे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ शांति चाहता है, और इधर उनकी फौज भारत के साथ छिछोरी हरकतें कर रही है। पाकिस्तान ने इस बार अपनी आजादी के जलसे में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बानकी मून को न्यौतकर एक तरफ उनके समाने शांति का ढोंग रचा और दूसरी तरफ सीमा पर लगातार गोलीबारी करता रहा। पाकिस्तान कश्मीर के मसले पर विश्व समुदाय के सामने झूठ परोसकर बेहद धूर्त राजनीति करता आया है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों भारत को पाकिस्तान के साथ दोस्ती की उम्मीदें बरकरार हैं।

मियां नवाज शरीफ भले ही देखने में शरीफ लगें, लेकिन वो भारत के साथ शराफत से कभी पेश नहीं आएंगे। भारत को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि शरीफ की पार्टी पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के समर्थन से ही सत्ता में आई है। लिहाजा अपने आकाओं के साथ दगा करके भारत के साथ वफा करने की गलती नवाज शरीफ कर ही नहीं सकते। फिर भी कुछ भारतीय पत्रकार सिर्फ इस बात से खुश हो जाते हैं कि पाकिस्तान के शीर्ष नेता उनको नाम से पहचानते हैं और तवज्जो देते हैं, लिहाजा वो हर वक्त अपने चैनलों पर उन पाकिस्तानी नेताओं का अहसान सा उतारते दिखते हैं।

ये बात किसी से भी छिपी नहीं है कि पाकिस्तान की पूरी राजनीति भारत के साथ घृणा पर टिकी है, सो वो अमन की बात कर ही नहीं सकता। यहां से न जाने कितनी बार दोस्ती के हाथ बढ़ाए गए, लेकिन हर बार उसने दोस्ती का सिला दुश्मनी से दिया। पाकिस्तान की ये ऐंठ तो तब है जब उसके आर्थिक हालात समुंद्र में गोते लगा रहे हैं। अगर छोटा सा भी युद्ध हुआ तो पाकिस्तान छेल नहीं पाएगा, लेकिन फिर भी भारत को उकसाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा है। चाहे वो भारतीय जवानों का सिर कलम करने की दुस्साहस हो या फिर भारतीय चैकी पर हमला कर पांच जवानों की हत्या का मामला। भाड़े के आतंकियों के बलबूते पाकिस्तानी सेना हमेशा से कायराना और छिछोरा खेल खेलती आई है। इसी से भारत को समझ लेना चाहिए कि पाकिस्तान भारत का कभी हितैषी नहीं बन सकता।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...