गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मुझे ले चल मेरे गांव

मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव,
जहां बाग में कूके कोयल और पीपल की छांव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव।

जहां मातु के अनुशासन में रहती थीं सब बेटी,
सबको नाच नचा देती थी बुढ़िया लेटी-लेटी,
एक आंगन में ही रहते थे मिलकर सारे भाई,
प्रेम की डोरी इतनी मोटी कभी न पनपे खाई,
घर का मुखिया शान से देता था मूंछों पर ताव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

लाज का घूंघट करके बहुएं जब घर से चलती थीं,
देख उन्हें बूढों की नजरें खुद-ब-खुद झुकती थीं,
सभी बुजुर्गों का गांव में बहुत अदब था होता,
ऊंचे बोल नहीं दादा से कह सकता था पोता,
शहर से मुझको जल्दी ले चल मन नहीं पाता ठाव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन...

खाली वक्त में बैठ के बाबा जब रस्सी बटते थे
सूरज की किरणों से पहले लोग सभी उठते थे,
पेड़ों से छनकर आती थी कूह-कूह की बोली,
टेसू के फूलों को मलकर खेली जाती होली,
फिर मुझको उस रंग में ले चल पडू मैं तेरे पांव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

घर की छत पर रखते थे मिट्‌टी के खेल खिलौने,
गिल्ली डंडा संग कंचे सावन के झूल झुलौने,
चार आने में मिल जाती थी मीठी मीठी गोली
दस पैसे में भर जाती थी खीलों से ये झोली
गुड की भेली मोटी मिलती एक रुपए की पाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

हरियाली के बीच बसा था सहज सरल सा जीवन,
जल्दी सोना जल्दी उठना स्वस्थ खुशी का उपवन,
धुआं तो मेरे आंगन में भी चूल्हे से उठता था,
शहर की सडकों के जैसा कभी न दम घुटता था,
दिल्ली का प्रदूषण तो दिल पर देता है घाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

11 टिप्‍पणियां:

  1. अब भी ऐसे गाँव कहीं हैं?तभी तो हिन्दी के मशहूर कवि कैलाश गौतम को लिखना पडा -गाँव गया था गाँव से भागा!
    काश इस सुन्दर सी कविता सरीखा गाँव कोई अब भी होता !

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  2. Bahut sundar poem h sir..
    Kafi bareek chijo ko b point out kiya aapne...
    bahut acha....

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  3. अपने गांव को कभी याद न करने वालो के अन्तरमन को खोलने की चाबी है यह कविता बहुत सुन्दर

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