मंगलवार, 8 मार्च 2011

दर्शन

पिछली बार जब अयोध्या गया था तो राम जन्मभूमि के दर्शन नहीं किये थे. कनक भवन में ही राम लला से कह दिया था कि जब आप खुद ही टीन-टप्पर के नीचे बैठे हो तो मैं कैसे दर्शन करूँ. उस अस्थाई और जीर्ण से मंदिर में मैं आपके दर्शन नहीं कर पाउँगा. अपने लिए मंदिर की व्यवस्था करो फिर आकर दर्शन करूँगा. और मैं कनक भवन और हनुमान गढ़ी के दर्शन करके ही लौट आया था. ये बात थी मई २०१० की और सितम्बर २०१० में ये इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला  आ गया कि राम जन्मभूमि वही हैं जहाँ राम लला विराजमान हैं. मन को थोड़ी शांति मिली कि चलो जो भगवान सबका फैसला करता है उस भगवान का आज इंसानों ने फैसला कर ही दिया. जो राम अखिल ब्रह्माण्ड नायक हैं उनको वो ज़मीन का टुकड़ा देने का फैसला सुना दिया गया जिस पर वो प्रतिमा रूप में विराजमान हैं. भले ही इस फैसले में अभी भी पेच फंसे हैं लेकिन पहली बार अदालत ने माना तो सही.  मैंने तो उस समय सिर्फ इसलिए दर्शन नहीं किये थे क्योंकि मैं अपने आराध्य को उस दशा में देखना नहीं चाहता था. लेकिन इतनी जल्दी और इस तरह का फैसला आ जायेगा ये नहीं सोचा था, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र बड़ा अजीबो-गरीब टाइप का है. यहाँ सत्ता के लिए छद्म रूप में तरह तरह के छल होते रहते हैं. सो, फैसला आने के बाद ही सोच लिया कि अब तो राम जन्मभूमि के दर्शन करना बनता है. १६ फ़रवरी को शादी का कार्ड देने के बहाने अयोध्या जाने का प्रोग्राम बन ही गया. पिछली बार के अनुभव लखनऊ में दिव्य जी के  साथ शेयर किये थे, तो उन्होंने भी उस समय मेरे साथ अयोध्या चलने की इच्छा जताई थी. सो इस दफै अपने साथ उनका भी लखनऊ से रिजर्वेशन करा लिया. ये मैं एक तरह से वादा भी निभा रहा था और दिव्य जी पर इमोशनल अत्याचार भी कर रहा था क्यूंकि सद्भावना एक्सप्रेस रात के तकरीबन ३:०० बजे लखनऊ पहुँचती है जिसको पकड़ने के लिए दिव्य जी को फरवरी की सर्दी सहते हुए कम से कम रात के १:०० बजे अपने घर गोमती नगर से स्टेशन के लिए निकलना पड़ता. मैंने रिजर्वेशन करा तो दिया लेकिन अन्दर ही अन्दर अपराध बोध भी सता रहा था. मुरादाबाद से ट्रेन पकड़ते वक़्त में शाम को दिव्य जी को फ़ोन तो कर दिया लेकिन सर्दी को देखते हुए आने के लिए बहुत जोर नहीं दिया और दिव्य जी ने भी जैसी राम जी इच्छा कहकर फ़ोन रख दिया. रात को कई बार उठकर देखा कि कहीं लखनऊ तो नहीं आ गया. लेकिन हर बार ट्रेन को अन्य जगह खड़ा पाया. फिर जब मेरी आँख खुली तो ट्रेन लखनऊ स्टेशन पर खड़ी थी. मैंने अपना मोबाइल चेक किया न कोई मैसेज न कोई मिस कॉल. और मैं फिर सो गया, सोचा दिव्य जी ने बारिश और ठण्ड की वजह से प्रोग्राम चेंज कर दिया होगा. सुबह अयोध्या पहुँच कर ही फ़ोन करूँगा. फिर जब आँख खुली तो फैजाबाद आने वाला था. अब अयोध्या दूर नहीं थी. सो उठकर मुंह हाथ धोकर सामान सेट करने लगा और मोबाइल उठाया तो उस पर एक मैसेज पड़ा था. खोला तो दिव्य जी का मैसेज था- "सचिन, आई ऍम एट ३६/एस-५" पढ़ते ही बर्थ से उछल पड़ा. दिव्य जी आकर अपनी बर्थ पर लेट भी गए और मैं उनको रिसीव भी नहीं कर सका. दरअसल उनकी बर्थ मेरी बर्थ से थोड़ी दूर थी. मैं कूदकर ३६ नंबर बर्थ पर पहुंचा. देखा तो दिव्य जी चद्दर ओढ़े सो रहे थे. सोचा उठाना ठीक नहीं, रात में चलें हैं, नींद पूरी भी नहीं हुयी होगी. और वापस अपनी बर्थ पर आ गया. ५ मिनट बैठा ही था कि मन नहीं माना. अब जब इतने परेशान हुए हैं तो थोडा और सही. पौन घंटे का  सफ़र बचा है, इतनी देर में तो बहुत साड़ी बातें हो जाएँगी. और मैं फिर उनके पास पहुँच गया और उनको उठा ही दिया. राम राम हुयी, फिर पूछा सर क्या सोने का मन है. बोले- "हाँ है तो". मैंने कहा "पर अब ज्यादा देर का सफ़र नहीं बचा है नींद पूरी नहीं हो पायेगी. मेरी बर्थ पर ही आ जाइये वही लेट जाइएगा". और मैं उनका छोटा सा बैग लेकर अपनी बर्थ पर आ गया. और उनसे लेटने को कहा. लेकिन अब वो भी कहाँ लेटने वाले थे. चद्दर ओढ़कर बैठ गए और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. बतियाते-बतियाते अयोध्या आ गयी.

अयोध्या पहुंचकर ठहरने कि व्यवस्था की और दर्शनों के लिए निकल पड़े. जो रिक्शेवाला स्टेशन से पकड़ा था वही कहने लगा कि दर्शन वगैरह सब करा दूंगा आधे दिन के लिए बुक कर लो. उस रिक्शे की शाही सवारी पर मैं और दिव्य जी अयोध्या भ्रमण पर निकल पड़े. सबसे पहले पहुंचे सरयू जी तट पर, होटल में नहाने के बाद निर्णय लिया था कि सरयू जी में एक बार और स्नान किया जायेगा. लेकिन जब तट पर पहुंचे तो दिव्य जी को ध्यान आया कि कपड़ों की थैली तो होटल में ही भूल आये हैं. खैर उन्होंने सरयू जी के जल से आचमन कराया और कुछ जल के छींटें दिए. वहां से निकलकर बह्ग्वान शिव के दर्शन किये और जल चढ़ाया. तब हमारे रिक्शेवाले ने बताया कि जन्मभूमि मंदिर जल्दी बंद हो जाता है, पहले वहीं दर्शन कर लिए जाएँ. सो हम अपने सारथी के साथ सीधे जन्मभूमि की तरफ बढ़ लिए.  प्रवेश द्वार पर दर्शनार्थियों से ज्यादा वर्दीधारियों की भीड़ थी. चौकसी ऐसी कि परिंदा भी पर न मार सके, लेकिन हाँ बंदरों को रोकने में नाकाम थी, जो बार-बार प्रसाद की थैली पर आक्रमण कर रहे थे. हमारी जेबों में रखा एक-एक सामान निकलवा लिया गया सिवाय धन के. मोबाइल, बेल्ट, कंघा, पेन-ड्राइव, पेन, पेंसिल हर चीज़. इसके बाद खाकी वर्दी ने अपने हाथों से शारीर की कुछ इस तरह तलाशी ली कि एक-एक अंग छू कर देख लिया. वो भी एक जगह नहीं तीन-तीन जगह. मंदिर पर हमला तो आतंकवादियों ने किया था खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है. ऐसी तलाशी जीवन में पहले एक ही बार हुई थी जब हम संसदीय रिपोर्टिंग सीखने के लिए अपनी क्लास पूरी क्लास के साथ माननीयों के क्रियाकलाप देखने के लिए संसद भवन गए थे. उस दिन भी पक्ष-विपक्ष का झगडा चल रहा था. ये पक्ष-विपक्ष का झगडा ही तमाम झगड़ों की जड़ है. खैर तलाशी के बाद जब अन्दर दाखिल हुए तो ऐसा लगा मानों किसी छावनी में आ गए हों. मंदिर कम और युद्ध का बोर्डर ज्यादा लग रहा था.  दुःख हुआ, कि प्रभु आपके दर्शन करने के लिए क्या-क्या झेलना पड़ रहा है. बख्तरबंद गाड़ी कि तरह एक जाल से ढका हुआ संकरा सा मार्ग था जिसमें से होते हुए मैं और दिव्य जी उस अस्थाई मंदिर तक पहुंचे. दूर से ही राम लला के दर्शन किये और फिर बहार की ओर चल दिए. कुछ देर तक उन परिस्थितियों के बारे में सोचकर अजीब सा लगता रहा. लेकिन फिर "होइहि वही जो राम रचि रखा..." सोचकर आगे चल दिए. प्रभु से इस प्रार्थना के साथ कि अगली बार आयेंगे तब तक भगवान को अपने स्थान पर एक मंदिर और अयोध्या को एक बेमिसाल पर्यटक स्थल मिल जायेगा. 

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