रविवार, 21 मार्च 2010

दाल मुरादाबादी



आज अचानक पुष्पेश से बातचीत के दौरान मुरादाबादी दाल का जिक्र चल गया। दिल्ली कि दौड़ धूप में बहुत कम ही ऐसा होता है जब पुरानी यादों को ताज़ा किया जाये। सो साहब मन हुआ कि इस करामाती दाल के बारे में कुछ लिखा जाए। मैंने इन्टरनेट पर जब सर्च किया तो मुरादाबादी दाल के बारे में कुछ खास नहीं मिला। केवल एक फोटो और एक छोटा सा लेख। अरे जनाब ये दाल इससे जयादा तवज्जो चाहती है। तो आइये शुरू करते हैं मुरादाबाद कि सुबह से- मुरादाबाद में बसने वाला हर खास-ओ-आम मुरादाबाद की इस मूंग की दाल का मुरीद है। तमाम लोगों का सुबह का नाश्ता इसी मूंग की दाल से होता है। सुबह होते ही शहर की संकरी गलियों में ठेले वाले अपना ठेला सजा कर मुख्य मार्गों पर निकल पड़ते हैं। इसका प्रचलन इतना ज्यादा है कि लगभग पूरे मुरादाबाद में आपको जगह-जगह इस दाल के ठेले दिख जायेंगे। इस दाल को खाने का मज़ा केवल सुबह और शाम को ही है। यानी एक अल्पाहार के तौर पर। दोपहर में अगर आप खोजेंगे तो मुश्किल से ही कोई ठेला ढूंढ पाएंगे। मुरादाबाद के गुरहट्टी, चौमुखा पुल, अमरोहा गेट, टाउन हॉल, बुध बाज़ार, ताड़ीखाना, गुलज़ारिमल की धरमशाला, स्टेशन रोड, साईं मंदिर रोड जैसे इलाकों में इस दाल की तूती बोलती है। मुरादाबाद सुबह को काफी जल्दी उठता है, दिल्ली कि तरह नहीं है। गर्मियों में तो छः बजे ही हलवाइयों की भट्ठी से धुआं उठने लगता है। पहले तो गर्मियों में नौ बजते बजते ये दाल सड़क से साफ़ हो जाती थी। लेकिन अब कुछ-एक जगह पूरे दिन इसकी व्यवस्था रहती है। मुझे अच्छी तरह याद है जब हम रिक्शे से स्कूल जाते थे तो सात बजे एक ठेले वाला अपना ठेला घर से लेकर निकलता था, दाल का एक दौना चौराहों वाली माता के मंदिर में चढ़ाता था और फिर आगे बढ़ जाता था। पीछे रह जाता था उसकी भट्ठी से उठता धुआं और दाल की खुशबु। वैसे पुराने लोग कहते हैं कि मूंग की दाल बनियों का भोजन है, मुरादाबाद में बनियों की जनसँख्या भी काफी ज्यादा है ( हो सकता है कि यही कारण रहा हो इस दाल के प्रचलित होने का ) लेकिन आज तो मुरादाबाद का हर शख्स इस दाल को पसंद करता है। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी इस दाल का पूरा असर है।

इसका नाम मुरादाबादी दाल इसीलिए पड़ा कि मुरादाबाद में ही इस दाल का चलन सबसे पहले शुरू हुआ और ये वहां बेहद प्रचलित है। मेरठ और दिल्ली जैसे कुछ शहरों में भी एक-दो चाट वालों ने प्रयोग के तौर पर इसको शुरू किया लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। शादियों और दूसरे समाहरोह में भी इस दाल ने जमकर अपनी पैठ बनाई है। मुरादाबाद के लोग जब दूसरे शहर से अपने बच्चों की शादी करते हैं तो खासतौर से ये फरमाइश रखते हैं की दावत में मुरादाबादी दाल का भी इंतजाम हो। दूसरी चाट की तरह पेट पर इस दाल का कोई बुरा असर नहीं और जेब पर भी भारी नहीं (वर्तमान रेट ५, ७ और 10 रूपए)। हर तरह से फायदा ही फायदा। बाबा रामदेव ने इस दाल के महत्व को समझा है और आप इस दाल का स्वाद उनके पतंजलि योगपीठ की कैंटीन में चख सकते हैं।

ये दाल बनाने में बेहद सरल है और खाने में पौष्टिक- मैं आपको थोडा से गाइड करने की कोशिश करता हूँ... मूंग की धुली दाल को नमक डाल कर प्रेशर कुकर में खूब गाढ़ा कर लीजिये। इतना गाढ़ा भी नहीं कि चम्मच से काटनी पड़े। मतलब नोर्मल डाल से गाढ़ी होनी चाहिए। फिर इस दाल को एक दौने या कटोरे में परोसिये। असली खेल इसमें मिलाये जाने वाली चीज़ों का है। अब इसमें एक चम्मच हरे धनिये या पोदीने की चटपटी चटनी मिलाइए, एक मक्खन की टिक्की डालिए, थोडा सा पनीर घिस कर डालिए, एक साबुत लाल मिर्च भूनने के बाद तोड़ कर डालिए, थोडा सा काला नमक और हींग-जीरे का भुना हुआ पावडर मिलाइए। चाहे तो मूली या गज़र भी घिस कर डाल सकते हैं। बस आपकी दाल तैयार है।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

ये प्यास (क्यों) है बड़ी...

लो जी, दिल्ली में सड़क किनारे मिलने वाला पानी भी इस बार से महंगा हो गया है। आज ही एक रेहड़ी पर नज़र पड़ी तो देखा कि ५० पैसे वाला गिलास अब एक रूपए का हो गया है। वैसे पहले भी रेहड़ी वाले आठ आने का बहाना करके जबरदस्ती दो गिलास पाने पिला ही देते थे। इस दो गिलास पाने को पेट में एडजस्ट करने में लोगों को ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी क्योंकि गिलास रेहड़ी वालों के गिलास का साइज़ छोटा ही है। लेकिन इस बार तो दो गिलास पानी के सीधे दो रूपए ठन्डे करने पड़ेंगे। अभी तो गर्मियों की शुरुआत है, दिल्ली के गर्मी में एक गिलास पानी से काम चलने वाला भी नहीं है।

इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है जो बोतल का पाने पीते हैं, न ही उन लोगों को जो इस पाने को स्वस्थ्य के लिए अनहाईजिनिक मानते हैं। इसका असर तो फिर बेचारे कांग्रेस के आम आदमी पर ही पड़ेगा। कांग्रेस के लिए ये चिंतन का विषय हो सकता हाई क्योंकि "केवल" कांग्रेस को आम आदमी कि चिंता है।

तो भाई लोग प्याऊ परंपरा और नदियों के इस इस देश में पानी दिन-ब-दिन महंगा होता जा रहा है। दिल्ली के लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं हो रहा। हो भी कहाँ से थोड़े बहुत हों तो सरकार सोचे भी, यहाँ तो इंसानों कि सुनामी आई हुई है। वैसे कुछ ठेले वालों ने देश की परम्पराओं का भी ख्याल रखा है। देश का एक बड़ा हिस्सा है जहाँ खाली पानी पीना और पिलाना दोष समझा जाता है। वहां पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता है, यानी जल+पान। सो पानी कि रेहड़ी वालों ने अपनी रेहड़ी पर कुछ-कुछ खाने का भी सामान रख छोड़ा है। परंपरा की परंपरा और कमाई की कमाई। तो गला ठंडा करने के लिए खुद ही अपनी जेब ठंडी करें। सरकार और सामाजिक संस्थाओं से कोई उम्मीद न रखें। क्योंकि पानी पिलाने का काम उनको काफी महंगा पड़ सकता है।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

ये किसको सिखाने चली है दिल्ली सरकार

लो जी कॉमन वेल्थ गेम का साल आ धमका है। दिल्ली सरकार को पसीने आ रहे हैं। सब इस आफत को जल्द से जल्द और शांति से निपटाने की दुआ मांग रहे हैं। विदेशियों के सामने हमें अपना कैसा चेहरा पेश करना है इसका अंदाज़ा आप दिल्ली की कुछ चीज़ों को देखकर लगा सकते हैं। कल मेरी नज़र ऐसे ही किसी नमूने पर पड़ी। खांटी लोहे के बने दिल्ली के बस स्टॉप अब स्टेनलेस स्टील में तब्दील कर दिए गए हैं। इतने चमकीले कि आप अपनी सूरत भी देख लो। और उनपर चमक रहे हैं तरह-तरह के विज्ञापन, अरे भाई कमाई भी तो करनी है न। सो एक विज्ञापन दिल्ली सरकार का भी नज़र आया जो कुछ इस तरह था- रिंगा-रिंगा रोज़, बात बात पर मुंह से निकले थैंक-यू और प्लीज़... साथ में कॉमन वेल्थ गेम्स का मस्कट था जो बड़े अदब के साथ साथ मुस्कुरा रहा था और हाथ जोड़ रहा था।। दरअसल ये एक कोशिश है दिल्ली सरकार द्वारा अपने नागरिकों को थोडा सिविक सेन्स सिखाने का।

अब बताइए कि इस सरकारी सोच को आप क्या कहेंगे, कि विदेशी आ रहे हैं तो उनके सामने अच्छा बर्ताव करके दिखाओ, बाकी चाहे आप कैसे भी रहो, लड़ो-भिड़ो, एक-दूसरे का सिर फोड़ो। लेकिन विदेशियों के सामने सलीके से रहो। दूसरे आपके एजुकेशन सिस्टम को क्या हुआ। अब तो ६३ साल हो जायेंगे आज़ादी को और दिल्ली तो बाकी देश से कहीं जयादा संभ्रांत मानी जाती है, फिर यहाँ के नागरिकों को अदब सिखाने की जरुरत क्यूँ पड़ी। आप स्कूलों में ये अदब क्यूँ न सिखा पाए। सच तो यही है दिल्ली से लेकर देहात तक भारतीय शिक्षा व्यवस्था अपने नागरिकों को सिविक सेन्स सिखाने में नाकाम साबित हुई है। अब इस तरह के विज्ञापनों के माध्यम से मुंह छिपाने कि कोशिश कि जा रही है।

अभी दो दिन पहले की ही बात है बाइक की चाभी ऑफिस में छूट गयी थी तो मुझे दिलशाद गार्डेन से गाज़ियाबाद तक टेम्पो से जाना पड़ा। नौ से ज्यादा बाज़ चुके थे सो सड़क पर टेम्पुओं की आवक काम ही थी। साहिबाबाद के पास दो सवारी उतरी तो नीचे टेम्पो का इंतजार कर रहे कुछ लोग तेज़ी से अन्दर की ओर झपटे। एक सीट पर एक जमा दूसरी पर दूसरा लेकिन इन दोनों के ही साथी बहार छूट गए थे। उन्होंने भी जब जल्दबाजी में अन्दर घुसने की कोशिश की तो दूसरे को धक्का लग गया। फिर क्या था, अन्दर बैठे दोनों जनों ने अपनी सीट छोड़ी ओर वहां मल्ल-युद्ध स्टार्ट हो गया। चटाक-पटाक चांटों की आवाज़ गूंजने लगी। अन्दर बैठी एक लड़की ने टेम्पो वाले से कहा कि भैया खड़े क्या तमाशा देख रहे हो पिटना है क्या, बढाते क्यूँ नहीं। टेम्पो वाला भी मौके कि नजाकत को समझ गया ओर पांच-दस रूपए के मोह को त्याग कर उसने आगे बढ़ने में ही भलाई समझी। तभी मेरी नज़र एक बैग पर पड़ी जो उन योद्धाओं में से ही किसी का था। उसको भी चलते टेम्पो से सड़क के हवाले कर दिया गया।

ये इस देश के सिविलियंस के सिविक सेन्स का मात्र एक उदहारण नहीं हैं। इस से भी कहीं जयादा हास्यास्पद और शर्मनाक घटनाएँ रोज़ सड़कोंपर होती हैं। ऐसे में दिल्ली सरकार द्वारा लोगों से भागीदारी समझ कर अच्छा बर्ताव करने की अपील कितनी रंग लाएगी ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।

रविवार, 17 जनवरी 2010

हल्का-पन


भारी-भारी चीज़ें फेंको, आज जमाना हल्के का,
नए दौर की नई हवा है, चला जमाना हल्के का,
भारी-भारी चीजें फेंको, आज जमाना हल्के का।

हल्की गाड़ी, हल्की साड़ी, हल्के सब सामान भए,
कंप्यूटर, मोबाइल हल्के, हल्के घर के काम भए,
बीवी हल्की, टीवी हल्का, वजन भी हल्का पल्के का,
भारी-भारी चीजें फेंको आज जमाना हल्के का।

हल्का खाना डॉक्टर बोले, भारी से परहेज करो,
नया समय है लाइट फूड का मक्खन-घी को दूर धरो,
खाना मम्मी किचन में छौंके बिना तेल के तड़के का,
भारी-भारी चीजें फेंको आज जमाना हल्के का।

तन पर कपड़े वजन दे रहे, हय मजबूरी रहती है,
कपड़ों से आराम छिने है, घर की बिटिया कहती है,
फैशन देखो आम हो गया छोटे-हल्के कपड़े का,
भारी-भारी चीजें फेंको, आज जमाना हल्के का।

कठिन शब्द पल्ले नहीं पड़ते, हल्का जी साहित्य रचो,
पढ़ते-पढ़ते बोर हो रहे, आदर्शों से जरा बचो,
मंचों पर भी चलन हो गया हल्की बातें करने का,
भारी-भारी चीजें फेंको आज जमाना हल्के का।

हल्केपन की इस बयार में मनुज भी हल्का हो गया,
तन से मोटा, मन से खोखा वजन जुबां का खो गया,
तगड़े-तगड़े लोग हैं लेकिन चरित है उनका फुल्के सा,
भारी-भारी चीजें फेंको आज जमाना हल्के का।

शनिवार, 16 जनवरी 2010

सूर्य ग्रहण के बहाने

भारत जैसी विविधता वाला देश वास्तव में पूरे संसार में मिलना मुश्किल है। एक ओर घनघोर विकास है तो दूसरी ओर विकास का केवल सपना, एक ओर उल्लास है उम्मीदों से भरा तो दूसरी ओर नाउम्मीदियों की उदासी है, एक ओर चमचमाती रंगीन शामें हैं तो दूसरी ओर मायूसी भरी रातें हैं। विविधता के एक से बढ़कर एक नमूने यहां देखने को मिल जाएंगे।

15 जनवरी को सूर्य ग्रहण के मौके पर विविधता का एक और रंग देखने को मिला। एक ओर वह भारत था जो सूर्य ग्रहण को वैज्ञानिक आधार पर तोल रहा था और सूरज से आंखें चार कर रहा था, तो दूसरी ओर वह भारत था जो इसे दैवीय योग मानकर तमाम तरह के कर्मकांड में लिप्त था और इन दोनों के बीच एक और भारत था जो न इसे वैज्ञानिक आधार पर तोल रहा था और न दैवीय योग मान रहा था, उसके लिए ये रोजमर्रा की तरह आम दिन ही था। वह अपनी जिंदगी में व्यस्त सर्रर्र से दौड़ा चला जा रहा था, हर चीज से बेखबर।

खबरनवीसों के लिए ये एक और सुनहरा मौका था दिन भर चैनल पर बक-बक करने का। किसी ने एक ज्योतिषी बुलाया था तो किसी ने दस-दस। सब के सब तुले थे बड़ी-बड़ी भविष्यवाणियां करने में। जिस ने दस ज्योतिषी बुलाए उसके चांस ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि दस में से एक का तुक्का तो ठीक बैठेगा ही। ऐसे में चैनल ये दावा कर सकता है कि हमने तो पहले ही बता दिया था कि क्या होने वाला है।

दूसरी ओर सूर्य ग्रहण को दैवीय योग मानने वालों ने भी इस अवसर को अपने ढंग से मनाया। भारी तादाद में श्रद्धलुओं ने कुरुक्षेत्र जाकर ब्रह्मा सरोवर में स्नान किया और जहां-जहां गंगा के तट हैं वहां गंगा में खड़े होकर अपने, अपने परिवार और देश के लिए मंगल कामना की। देश में सूर्य ग्रहण को लेकर तमाम तरह के मत हैं। उन्हीं मतों के मुताबिक लोगों ने इस मौके पर परंपराओं को निर्वहन किया। ग्रहण के दौरान व्रत रखा, दान दिया, भजन किया, सत्संग किया, भंडारा कराया।

तीसरे लोग वे थे जिनके लिए इस दिन का कोई खास मतलब नहीं। वे हर रोज की तरह व्यस्त थे। समय से उठे, ऑफिस गए, काम निपटाया और शाम को फिर घर आ गए। टीवी पर लोगों की भीड़ को गंगा में स्नान करते देखा तो बोले- ' ओ माई गौड! इस देश में लोगों के पास कितना फालतू टाइम है। लोगों के पास कोई काम नहीं है क्या। अरे हम से कुछ काम ले लें।' इनमें एक वर्ग वह भी था जो ये कहता था कि 'परंपराएं तो हम भी जानते हैं और निभाना भी चाहते हैं, लेकिन इस भागदौड़ में कहां टाइम मिलता है। बाॅस से छुट्टी मांगेंगे तो डांट ही मिलेगी।'

वैसे दिल्ली में जब मैंने अपने तमाम दोस्तों से ग्रहण के बाबत पूछा तो अधिकांश जगहों से मुझे ये पता चला कि लोग बेशक आॅफिस आए हैं, लेकिन ग्रहण के दौरान कोई भोजन नहीं कर रहा है। सबने सवा तीन बजे के बाद ही भोजन किया। लोगों की ये एप्रोच मुझे ठीक लगी। भाई जितना बन पड़ रहा है कर रहे हैं। कम से कम बिना करे दूसरों को बुरा-भला तो नहीं कह रहे।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

आदमी मशीन बना धीरे-धीरे



आपने आजकल टीवी पर प्रसारित एक विज्ञापन तो जरूर देखा होगा, जिसमें आदमी को मशीन बनते दिखाया है। वैसे है तो ये एक बाम का विज्ञापन, लेकिन इसमें आज के दौर की सच्चाई पेश की गयी है। मल्टी नेशनल कंपनियों से लेकर नुक्कड़ पर परचून की दुकान तक एक ट्रेंड समान दिखाई देता है और वह है काम का। आर्थिक विकास और महंगाई के इस दौर में हर किसी के दिमाग में केवल मुनाफे की बात घूम रही है। और इस मुनाफे के लिए आदमी ने आज दिन और रात एक कर दी है। भारत के विकास के बड़े-बड़े आंकड़े यूं ही नहीं पेश किये जा रहे। इन आंकड़ों को प्राप्त करने के लिए पूरे देश के युवा वर्ग ने अपना खून-पसीना एक कर रखा है। ऑफिस चाहे कोई भी हो हर जगह टार्गेट पूरा करने का दबाव है। कम समय में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और सफलता का लक्ष्य। अभी पिछले दिनों अपने दोस्त से बात हुई। ऑफिस के व्यस्त शिड्यूल से थोड़ा वक्त निकाल कर उसने मुझे फोन किया। एमबीए करने के बाद आजकल गुड़गांव की एक कंपनी में कार्यरत हैं। बातों-बातों में बताया कि सुबह 10 बजे ऑफिस में घुसने के बाद शाम को 9-10 तो आराम से बज जाते हैं। कभी-कभी लगातार 36-36 घंटे भी काम करना पड़ जाता है। न किसी से मिल पाते हैं और न परिवार के लिए समय निकल पाता है। छुट्टी के नाम पर बॉस ऐसे देखता है जैसे उसकी लड़की का हाथ मांग लिया हो। ले-देकर बस वीकएंड ही बचता है। ये सब सुनकर मुझे यही लगा की हर जगह एक सा ही हाल है और ये ट्रेंड यूनिवर्सल है। इतने तनावपूर्ण माहौल में अगर देश का यूथ वीकएंड्स पर क्लबों में जाकर नशा आदि कर रहा है तो इसमें उनका ज्यादा दोष नहीं है।


'थ्री इडिएट्स' में आमिर का एक डायलोग है कि 'इंजीनियरों ने हर चीज को नापने की मशीन बनाई लेकिन स्ट्रेस को नापने के लिए कोई यंत्र इजाद नहीं किया'। काश ऐसा कोई यंत्र इजाद कर लिया गया होता तो पता चल जाता कि आज का समाज जितना तनाव में है शायद ही पहले कभी रहा हो। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान शायद ही किसी स्टूडेंट को ये अंदाजा रहा हो कि आगे चलकर पढ़ाई ऐसे रंग दिखाएगी।


मुझे लगता है कि देश की आर्थिक उन्नति में पिछली पीढ़ी ने जितनी ढिलाई से हाथ बंटाया, वर्तमान पीढ़ी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है और अगली पीढ़ी इसका लाभ उठाएगी। ये स्ट्रेस किसी भी एंगल से मुझे हाल-फिलहाल में कम होता नहीं दिख रहा है। निजी कंपनियों की बात करें तो तकरीबन हर कंपनी के कर्मचारी आपको तनावग्रस्त या फिर अवसादग्रस्त मिलेंगे। माना कि एक सीमा तक तनाव होना भी जरूरी है, लेकिन अब पानी सिर से चढ़ चुका है। सरकार के तमाम लेबर कानून धरे के धरे रह गए हैं। कंपनियां अपने मन-माफिक ढंग से कर्मचारियों को हांक रही हैं। पहले इनको यूनियनों का डर होता था, लेकिन वह डर भी धीरे धीरे जाता रहा। आप अपनी समस्या किसी मंच पर रख भी नहीं सकते। मैं यहाँ सबको एक चश्में से देखने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, इसमें एक आध अपवाद हो सकते हैं। लेकिन मोटे तौर पर यही स्थिति है। शायद यही कारण है कि आज तमाम लोगों का महानगरीय जीवन शैली से मोह भंग हो रहा है। कोई अपने गांव वापस लौट रहा है तो कोई तीर्थ स्थानों में मकान खरीद रहा है। क्योंकि इंसान आखिर इंसान है, वह मशीनी जिंदगी ज्यादा दिनों तक नहीं जी सकता। खासतौर से भारतीय समाज में।

सोमवार, 4 जनवरी 2010

New Year Resolution


आज किसी ने पूछा कि भाई तुमने न्यू इयर रेजोलूशन क्या लिया। मैंने कहा कुछ नहीं, उन्होंने पुछा कुछ तो, मैंने कहा कुछ भी नहीं।
इस न्यू इयर के चक्कर में न जाने कितने लोग गफलत का शिकार होते हैं, पता नहीं। खुद से बड़े बड़े वादे करते हैं। लेकिन सबसे मजेदार वादे होते हैं शराबियों के। वो हर नए साल पर खुद से और अपने परिवार से वादा करते हैं कि पीना छोड़ देंगे। खुद भी खुश, बीवी भी खुश, बच्चे भी खुश, माता पिता भी खुश। चलो कम से कम नया साल एक ख़ुशी तो लेकर आया।

समय बीतता है । कुछ पीने वाले जैसे तैसे जनवरी कि ठण्ड काट लेते हैं। तो कुछ इस ठण्ड को बर्दाश्त नहीं कर पाते और मित्रों कि मंडली में एक-दो पेग लगा लेते हैं। लेकिन उस दिन घर तो कतई नहीं जाते। आखिर घर वाले क्या कहेंगे कि एक महीना भी वादा नहीं निभा पाया। सो वह रात किसी दोस्त के घर पर ही बिताई जाती है। जो लोग जनवरी बिना पिए काट देते हैं उनका भी वादा होली आते आते टूट ही जाता है। अब बताओ होली है, इस पर नहीं पियेंगे तो कब पियेंगे, कौन सहेगा दोस्तों के उलाहने । होली पर तो चलेगी इस पर परिवार के लोग भी कुछ नहीं कहेंगे, आखिर तीन महीने तक बिना पिए रहा हूँ। घर वालों के लिए तो इतना ही बहुत है। इस तरह न्यू इयर पर लिए हुए संकल्प की टाय-टाय फिस्स हो जाती है। तो भला बताओ ऐसे संकल्प का क्या फायदा।

अपन ने भी पहले कई संकल्प लिए हैं। जैसे पढाई के दिनों के दौरान संकल्प लिया था कि रात ग्यारह बजे से पहले नहीं सोयेंगे और सुबह पांच बजे हर हालत में सो कर उठेंगे। एक महिना तो दूर ये संकल्प एक हफ्ते भी नहीं चल पाया। सो अपन ने अब ये न्यू इयर के चक्कर में पड़ना छोड़ दिया है। वैसे जिंदगी से ज्यादा पंगा नहीं लेना चाहिए। इश्वर ने कुछ सोचकर एक व्यवस्था के तहत लोगों कि मानसिकता का निर्माण किया है। किसी भी दो व्यक्तियों को एक सा नहीं बनाया। सबका माइंड सेट अलग अलग है। पीने वालों कि अलग दुनिया है न पीना वालों कि अलग। दोनों ही एक-दूसरे के समाज को बुरा भला कहते हैं। एक वर्ग है जो कहता है कि जिन्दगी एक बार ही मिली है, आगे का कुछ पता नहीं इसलिए जमकर जियो। दूसरा पक्ष कहता है कि जिन्दगी बड़े भाग्य से मिली है इसलिए अपने कर्मों पर नज़र रखो। ये बहस भी अनंत काल तक के लिए अनंत है। अपन भी वैसे दूसरी कटेगरी के आदमी हैं। कर्मों पर नज़र रखने में विश्वास रखते हैं। इसलिए अब अपना दिमाग ज्यादा लगाना बंद कर दिया है। अब तो बस ऊपर वाले के इशारों पर नाचना शुरू कर दिया है। इसलिए नो संकल्प।

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...