बचपन में स्वतंत्रता दिवस का मतलब एक ऐसा दिन जब स्कूल में प्रिंसिपल द्वारा झंडारोहण, एक पकाऊ भाषण और उसके बाद चपरासी के हाथों कागज के खलते में मिलने वाले बूंदी के दो लड्डू। स्कूल में एक घंटा खर्चने के बाद पूरा दिन अपना घर पर खेलने कूदने के लिए।
ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ी इस आजादी के मायने पता चलते गए। प्रिंसिपल की जो बातें पहले समझ नहीं आती थीं, धीरे-धीरे समझ आने लगीं। समझ आने लगीं देश के अंदर व्याप्त समस्याएं, चुनौतियां, भ्रष्टाचार और चरमराता सिस्टम।
तरुणाई के समय जैसे तकरीबन हर युवा के मन में देशभक्ति का जज्बा जागता है, वो आकर विद्यमान हो गया। मन में तरह-तरह के संकल्प जागे, देश के लिए ये करेंगे, वो करेंगे, एक बड़ा बदलाव लाएंगे। कोई दिशा या ठोस रणनीति नहीं थी। बस एक जज्बा था, भावना थी। परिवर्तन के लिए राजनीतिक मंच सबसे ठोस जगह हो सकती थी, लेकिन दूर-दूर तक राजनीति से कोई नाता नहीं था। सो, पत्रकारिता को माध्यम चुना।
लेकिन पत्रकारिता में आकर पता चला ये तो खालिस व्यापार है। पहले तो विज्ञापनों को लेकर ही मीडिया की नैतिकता पर सवाल उठाए जाते थे, लेकिन अब तो इतने सवाल खड़े हो गए हैं कि सवाल भी खड़े-खड़े थक चुके हैं। और ये हालात केवल पत्रकारिता के ही नहीं हैं, प्रत्येक पेशे में नैतिक गिरावट दर्ज की जा रही है। पुलिस और राजनीति तो यूं ही बदनाम है, मेडिकल, ज्यूडिशियरी, रिटेल, बैंकिंग, रीयल एस्टेट कोई सा भी सेक्टर उठा कर देख लें हर जगह नैतिक पतन दिखेगा।
महात्मा गांधी ने 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी पर कहा था कि जहां तक देश के सात लाख गांवों का सवाल है अभी भारत को सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी मिलनी बाकी है। उन्होंने देश के पहले जश्न-ए-आजादी में शिरकत भी नहीं की थी। बल्कि आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने की भी बात कही थी। तब उन्होंने कांग्रेस को भंग करने की बात क्यों कही होगी, ये आज की कांगे्रस को देखकर भलीभांति समझ आता है। गांधी युगदृष्टा थे। जिस कांग्रेस को उन्होंने अपने मेहनत से सींचा था, उसी कांग्रेस के कार्यकर्ता आगे चलकर देश के साथ क्या करेंगे, गांधी पहले ही समझ चुके थे। खैर उनकी बात तब भी नहीं सुनी गई, आज तो सुनेगा ही कौन।
गांधी की किताब ‘मेरे सपनों का भारत’ के पन्ने पल्टे जाएं तो पता चलता है कि वो देश की तमाम समस्याओं पर किस तरह सोचते हैं। छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने स्पष्ट दिशानिर्देश दे रखे हैं। जो शराब देश की रगों में सोची-समझी रणनीति के तहत उड़ेली जा रही है, उस शराब का तो उन्होंने घोर विरोध किया है। उन्होंने यहां तक लिख डाला कि उन्हें भारत का गरीब होना पसंद है, लेकिन देश का शराबी होना उनका मंजूर नहीं। उसी गांधी के देश में आज दूध की डेरियों से ज्यादा शराब के ठेके हैं। देश में मिल रहे प्रत्येक खाद्य पदार्थ में आज मिलावट है, केवल शराब ही है जिसमें कोई मिलावट नहीं और पूरी तरह शुद्ध रूप में जमकर बेची जा रही है।
गांधी जी ने जिन नैतिक मूल्यों की बात की थी, वे नैतिक मूल्य सत्ता की भूख ने चबाचबाकर खा लिए। यथा राजा तथा प्रजा के सिद्धांत को फलीभूत करते हुए राजनीति का नैतिक पतन अंततः देश के नागरिकों में गहराई तक समाता चला गया। ऐसा पाखंड शायद ही किसी देश में देखने को मिलता हो जहां के राजनीतिज्ञ और धर्मज्ञ मंच पर खड़े होकर आदर्शवाद का गान करें और मंच से उतरते ही भ्रष्टाचार और अनैतिकता के कीर्तिमान स्थापित करते हों। देश ने चाहे जैसा भी विकास किया हो लेकिन देश के चरित्र में जबरदस्त गिरावट आ चुकी है। हम पश्चिमी देशों में भले ही तरह-तरह के दोषारोपण करें, लेकिन एक चीज साफ है कि वहां के लोग मूल रूप से ईमानदार हैं, और हम लोग मूल रूप से बेईमान। हम रिश्तों को लेकर खासतौर से अपना गुणगान करते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा अवैध रिश्तों के कीर्तिमान इसी देश में स्थापित हैं। फर्क बस इतना है कि पश्चिम में रिश्तों पर खुलकर बात होती है और हम दबे-छिपे अवैध रिश्तों को पालते हैं।
आज एक नेता ऐसा नहीं बचा जिसके आदर्श बच्चों को पढ़ा सकें। राजनीति के हमाम में सब नंगे नजर आते हैं। इसलिए देश के नैतिक विकास के लिए राजनीति का नैतिक उत्थान सबसे पहले जरूरी है। जिस राम राज्य की कल्पना हम वर्षों से करते आए हैं, उस राम राज्य के लिए पहले ये समझना होगा कि राजा राम ने उस राज्य को स्थापित करने के लिए किस स्तर का तप किया। जब राम जैसा तपस्वी राजा हो तो प्रजा में धर्म की स्थापना खुदबखुद हो जाती है।
21वीं सदी का भारत ऐसा होगा और वैसा होगा, जैसे सपने देखना छोड़कर यथार्थ की धरा पर अगर काम नहीं शुरू किया गया तो भारत की स्थिति इस से भी खराब हो सकती है। दुशमन लगातार देश की सीमाओं को सिकोड़ता जा रहा है। पाकिस्तान और चीन की बात तो क्या करें, बांग्लादेश जैसा देश भी हमारे कुछ गांवों में पर कब्जा जमाए हुए है। नेपाल में जब से नई सरकार बनी है, बहुत ज्यादा भारत के प्रति सद्भावना नहीं दिखा रही है। नेपाल में वामपंथियों के उदय को चीन का वरदहस्त प्राप्त है। अब वहां ज्यादा भरोसा बचा नहीं है। भूटान को भारत ने एलपीजी और केरोसीन पर सब्सिडी क्या कम की उसने भी चीन का दामन थामने की धमकी दे डाली। दक्षिण में श्रीलंका भी चीन के साथ जमकर गलबहियां कर रहा है। ये परिस्थितियां कोई विशेष हर्ष नहीं पैदा करती हैं।
1947 में डाॅलर एक रुपये का था, 1991 में जब प्रकांड अर्थशास्त्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने एलपीजी (लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) की पाॅलिसी दी उस समय डाॅलर 18 रुपये का था। इस बीच देश में विकास के बड़े-बड़े दावे किए गए। इंडिया शाइनिंग से लेकर भारत निर्माण तक का सफर तय किया गया। लेकिन आज इस आर्थिक शक्ति संपन्न भारत में डाॅलर ने सारे कीर्तिमान तोड़ डाले और हमारा रुपया सीनियर सिटिजन बन गया। इस वास्तविकता को भुलाने के लिए हम पुराना राग अलापते रहते हैं कि भारत कभी सोने की चिडि़या था। पिछले दिनों ही पढ़ा कि उस समय हैदराबाद के निजाम विश्व के सबसे रईस आदमी थे। जब वर्तमान राष्ट्रपति भवन यानि उस समय का वाॅयसराॅय हाउस बना तो हैदराबाद के निजाम ने ल्युटियंस को इससे भी बड़ा घर बनाने के लिए कहा। ल्युटियंस ने उनकी बात तो मान ली, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत नहीं चाहती थी कि दिल्ली में कोई भी बिल्डिंग वाॅयसराॅय हाउस से बड़ी बने। लिहाजा ल्युटियंस ने निजाम को हैदराबाद हाउस बनाकर दिया। इतना पैसा खर्चने के बाद भी निजाम के बच्चों को ये हाउस पसंद नहीं आया और बाद में इसे सरकार को ही प्रदान कर दिया गया। भारत की संपन्नता को लेकर इस तरह के सैकड़ों किस्से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति क्या है, हमें उस पर गंभीरता से गौर करना होगा।