शनिवार, 17 दिसंबर 2011

आ रहा है 2012!



वर्ष 2012 आ रहा है। टीवी चैनल वालों ने जमकर तैयारी कर रखी है। बार और पब वाले भी चांदी कूटने के लिए तैयार बैठे हैं। केक कटेगा, सबको बंटेगा, गुब्बारे फूटेंगे, डांस, पार्टी, मस्ती वगैराह, वगैराह। लेकिन 2012 के बारे में कई भविष्यवाणियां भी जुड़ी हैं। इस साल की भीषणता को लेकर काफी भविष्यवाणियां हुई और उन पर काफी बहस भी। किसी ने कहा कि पानी वाली प्रलय होगी तो किसी ने कहा कि आसमान से शोले बरसेंगे। 2011 की अंतिम कुछ घटनाओं को देखा जाए तो अगले साल भीषण युद्ध के समीकरण जरूर बन रहे हैं, वो भी सबसे ज्यादा आबादी वाले दक्षिण एशिया में। लक्ष्य बनेंगे पाकिस्तान, अफगानिस्तान, अमेरिका, चीन और भारत। 2011 में भले ही अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारने में सफलता प्राप्त कर ली हो, लेकिन अभी भी अलकायदा के कई बड़े खिलाड़ी आतंक का कारखाना चला रहे हैं, जिनकी अमेरिका को तलाश है। इस तलाश में अमेरिका ने पाकिस्तान के तमाम नागरिकों की भी बलि ले ली, लेकिन बात तब और भी ज्यादा बिगड़ गई जब अमेरिकी हमले में 28 पाकिस्तानी सैनिक काल के गाल में समा गए। अमेरिका कहता है कि गलती से हुआ, लेकिन उससे इतना भी नहीं हुआ कि साॅरी बोल दे। ओबामा को दुख तो हुआ, लेकिन साॅरी कहने में उनकी जुबान पथरा गई। बुरी तरह तिलमिलाए पाकिस्तान ने अमेरिका से एयरबेस खाली करने का फरमान जारी कर दिया और खूब खरी-खोटी सुनाई। पाकिस्तान के फौजी आका ने तो एक कदम आगे बढ़कर अपने सैनिकों को खुली आजादी दे दी कि अमेरिकी सैनिकों को मारने के लिए आदेश का इंतजार भी न करें। पाकिस्तानी कट्टरपंथ और आईएसआई तो पहले से ही अमेरिका से खार खाए बैठी थी, उनके लिए तो अब हालात असहनीय हो चुके हैं। संबंध खराब होते देख अमेरिका ने भी अपने टुकड़े डालने बंद कर दिए और 70 करोड़ डाॅलर की मदद रोक दी है। अब पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति तो किसी से छिपी नहीं है। अमेरिकी मदद के बिना कितने दिन कमर सीधी रख पाएगा कहा नहीं जा सकता। उस पर अपना ही बोया आतंक का बीज खुद उसको ही निगलने को तैयार बैठा है।

अमेरिकी-पाक रिश्ते सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। अमेरिका को ओसामा के बाद अब जावाहिरी की खोज है, उसको पाए बिना वो मैदान छोड़ेगा नहीं। पाक को केवल अब चीन का ही सहारा है और चीन अमेरिका और भारत की आंखों की किरकिरी है। मोटे तौर पर देखा जाए तो युद्ध के लिए माकूल प्लेटफाॅर्म तैयार हो गया है। अगर ये युद्ध होता है तो अमेरिका के लिए ये अफगानिस्तान और इराक के बाद तीसरा युद्ध होगा। उधर ईरान भी अमेरिका पर आंखें तरेर रहा है। माना की अमेरिका बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन इतने सारे देशों से एक साथ पंगा लेकर उसने आफत मोल ले ली है। इराक और अफगानिस्तान में खरबों डाॅलर लुटाने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था तीसरे युद्ध को किस हद तक झेल पाएगी कहा नहीं जा सकता। उधर आईएमएफ की ताजा चेतावनी में कहा गया है कि पूरा विश्व एक और आर्थिक महामंदी की ओर बढ़ रहा है, जिससे कोई भी देश अछूता नहीं रह पाएगा। लीबिया, सीरिया और मिस्र की अशांति भी कुछ कम घातक सिद्ध नहीं हुई। कुल मिलाकर 2012 की शुरुआत में विश्व के खतरनाक मोड़ पर खड़ा हुआ है।

भारतीय उपमहाद्वीप में अगर युद्ध छिड़ता है तो भारत भी अछूता नहीं रहेगा। परोक्ष या अपरोक्ष किसी न किसी रूप से भारत को इसमें भागीदारी करनी होगी। पड़ोसी देश पाकिस्तान में आजादी के बाद से लोकतंत्र मजबूत रह ही नहीं पाया। लोकशाही पर फौज और कट्टरपंथ का वर्चस्व हमेशा रहा। वहां की राजनीति कश्मीर से ऊपर उठकर सोच ही नहीं पाई और हमेशा फौज और आईएसआई के दबाव में रही। खुदा न खास्ता अगर अमेरिका ने पाकिस्तान के खिलाफ सीधा युद्ध छेड़ दिया तो फिर पाकिस्तान जैसी कोई चीज नक्शे पर बचनी मुश्किल होगी, क्योंकि वहां लोकतंत्र टिक ही नहीं सकता। केवल फौज शासन कर सकती है, जिसे अमेरिका बर्दाश्त नहीं करेगा। तो 2012 में जिस बड़े उठा-पटक की बात कहीं जाती रही थी, उसके संकेत अभी से मिल रहे हैं। आगे आगे देखिए होता है क्या?

बुधवार, 23 नवंबर 2011

बाप मर गए अंधेरे में और बेटे का नाम लाइट हाउस!


तो जी यूपी की मिट्टी से चुनावी खुशबू आनी शुरू हो गई है और धीरे-धीरे पूरे देश में फैलती जा रही है। चैनलों पर गर्म-गर्म पकौड़ों के माफिक गर्मागर्म बहसों का दौर शुरू हो गया है। एक के बाद एक शिगूफे छेड़े जा रहे हैं और चैनलों को मुद्दे पर मुद्दे मिल रहे हैं। पत्रकार लोग ऐसे संजीदा होकर सवाल पूछ रहे हैं मानो उन्हें अपनी टीआरपी से ज्यादा सचमुच देश की चिंता सताने लगी है। जनता को लुभाने के लिए दाव पर दाव फेंके जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि ‘उत्तर परदेस’ को चार टुकड़ों में बांट दो तो कोई बेचारे और मजलूमों के कर्ज माफ करा रहा है। बस किसी तरह ये 19 करोड़ भिखारी उनके फेवर में बटन दबा दें। लेकिन ये भिखारी कुछ ज्यादा ही श्याणे हो गए हैं। इत्ती आसानी से बटन नहीं दबाने वाले। ये लोकपाल वाले भी तो भड़काने में लगे हैं इन भिखारियों को। ऊपर से वो हरिद्वार वाले बाबा और दूसरे वो बंगलुरू वाले ये दोनों भी जनता को जागरूक करने पर तुले हैं। ‘उत्तर परदेस’ के स्कूलों में तो इस तरह की शिक्षा देने की गंुजाइश रखी ही नहीं कि लोगों का जमीर जाग सके, वो अपने दिमाग का इस्तेमाल कर सकें। चाहे कितना भी पढ़ाई कर लें, ऐसी सोशल इंजीनियरिंग की है कि लोग जाति और धर्म से ऊपर उठकर वोट डाल ही नहीं सकते। बाकी रहा-सहा काम आरक्षण का मुद्दा कर देता है। पिछले 64 सालों से आरक्षण का बाण ठीक निशाने पर लगता आया है। लेकिन अबकी बार ये सामाजाकि और आध्यात्मिक नेता सारा गुड़ गोबर करने पर तुले हैं। अरे ‘उत्तर परदेस’ की चुनावी कढ़ाई में जरा सा आरक्षण का तड़का लगाया जाता, कर्ज माफी का मसाला डाला जाता और बंटावारे की कढ़ाई पर जब चढ़ाया जाता तो जनता खुद-ब-खुद गफलत में पड़ जाती कि किसको वोट दें और किसको न दें। लेकिन पता नहीं ये लोग कहां से आ गए हैं बीच में टांग अड़ाने भ्रष्टाचार और काले-पीले धन का मुद्दा लेकर। अब बताओ जरा अपने विपक्षियों से निपटें या इन समाज के ठेकेदारों से। ‘उत्तर परदेस’ के चुनावी मैच में ये एक्स्ट्रा प्लेयर्स गड़बड़ किए दे रहे हैं। 

अब बताओ इसमें कौनसी बात हो गई कि बंटवारे का प्रस्ताव पांच मिनट में पास हुआ या पांच घंटे में या फिर जनता को किसी ने भिखारी कहा या शहंशाह, कुर्सी के गेम में थोड़ा बहुत तो चलता है। लेकिन इन खबरिया चैनलों को तो बस मुद्दा चाहिए। 24-24 घंटे के चैनल खोल रखे हैं, दिखाने के लिए कुछ है नहीं, टीआरपी बचानी है, सो जरा सी बात का बतंगड़ बना देते हैं। चेहरे पर पाउडर पोत कर ऐसे बहस करते हैं मानो देश की सबसे ज्यादा चिंता इन्हीं पत्रकारों को है। केवल अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए पब्लिक का इमोशनल सपोर्ट पाने की कोशिश करते रहते हैं। खैर चैनल और अखबार वालों से तो निपट लिया जाएगा। इनकी कमजोर नब्ज तो नेताओं के हाथ में ही होती है। चुनाव में जब पैसों की बोरियों के और दारू की बोतलों के मुंह खुलेंगे तो सारी पत्रकारिता पानी भरती नजर आएगी। लेकिन ये लोकपाल वाले और बाबा लोग जरूर नाक में दम कर सकते हैं। पब्लिक का बहुत ज्यादा जागरूक होना भी ठीक नहीं है साहब। पब्लिक जितना अंधेरे में रहे उतना अच्छा। जिनकी पीढि़यां दर पीढि़यां अंधेरे में रहती चली आई हैं, तो उनके बच्चों का नाम लाइट हाउस रखने से कोई थोड़े ही रोशनी हो जाएगी। विकास के नाम पर बंटवारे का जो पासा फेंका है, तो आपको क्या लगता है कि सचमुच हमें विकास की चिंता सता रही है। अरे चुनावी गोटी है, चली चली न चली। पांच साल में चुनाव आते हैं अरबों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। इसी काले धन की बदौलत पूरी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त तेजी आ जाती है। लेकिन लगे हैं लोग काले धन का ढोल पीटने। ये काला धन है जिसकी बदौलत देश की इकोनाॅमी में इतना बूम नजर आ रहा है। माॅल पर माॅल खड़े हो रहे हैं, छोटे-छोटे शहरों में भी रीयल एस्टेट आसमान से बातें कर रहा है। बिना काले धन के हो जाता ये सब। करते रहते पैंठ और हाट से शाॅपिंग। अब भगवान झूठ न बुलवाए। अगर देश-विदेश में आज भारतीय अर्थव्यवस्था की चर्चा हो रही है तो उसमें काले धन का बहुत बड़ा योगदान है, ये मत समझ लेना कि उसमें वित्तमंत्री की कोई कारीगरी है। अब समझते तो हैं नहीं। अगर भ्रष्टाचार मिट गया तो पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। आम जनता के दुख और परेशानी देखकर क्या हमारा दिल नहीं पसीजता? हमारा भी दिल रोता है। पर करें क्या? सिस्टम ही कुछ ऐसा है। तमाम दलितों के यहां हमने रातें गुजारी हैं। ऐसा नहीं है कि हमें कुछ पता नहीं है। लेकिन सिस्टम कुछ ऐसा है कि जरा सी छेड़छाड़ करने की कोशिश की तो सबसे ज्यादा नुकसान उसी को होगा जो उसे बदलने की कोशिश करेगा। तो जी जैसा चल रहा है चलने दो। पब्लिक भी अब इसी सिस्टम की आदि हो चुकी है। ज्यादा भड़काने की कोशिश की तो हालात मिस्र और सीरिया जैसे हो सकते हैं। (‘‘उत्तर परदेस’’ के जनहित में देश के ‘जिम्मेदार’ नेताओं द्वारा जारी!!!!)

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

पैसा बटोरने वाले कॉलेजों से बेहतर तो तिहाड़ जेल निकली!

एक शो रूम में तिहाड़ के उत्पाद.  
अब इसे समय की विडंबना कहें या फिर बदलते समीकरण कि संभ्रांत कॉलेजों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स चेन स्नेचिंग और वाहन चोरी जैसी घटनाओं में पकड़े जा रहे हैं और तिहाड़ जेल में सजायाफ्ता कैदी पढ़-लिख कर प्लेसमेंट प्राप्त कर रहे हैं। खबर है कि तिहाड़ जेल के 100 कैदियों को विभिन्न कंपनियों ने अच्छे पैकेज पर लिया है। जो सबसे मोटा पैकेज दिया गया है वो है छह लाख प्रति वर्ष। कैंपस प्लेसमेंट में ऐसे कैदियों ने भाग लिया जो जेल में रहकर विभिन्न प्रोफेशनल कोर्स कर रहे थे और जिनकी सजा आने वाले एक साल में पूरी होने वाली है। तिहाड़ जेल इससे पहले भी अपनी विशेषताओं के चलते चर्चा में रही है। कैदियों पर जितने प्रयोग इस जेल में किए गए, वे देश की किसी भी जेल में नहीं हुए। कितने ही मामले ऐसे हैं जिनमें अपराधियों के लिए तिहाड़ जेल एक वरदान साबित हुई।

तिहाड़ की नमकीन.
तिहाड़ जेल का ट्रेड मार्क है टीजे.
यहां पर सवाल फिर वही उठता है कि सवा सौ करोड़ के देश में केवल एक जेल ऐसी है जिसमें कैदियों को सुधारने की दिशा में कदम उठाए जाते हैं। एक मानवाधिकार संगठन के वर्ष दो हजार के आंकड़ों को देखा जाए तो देश की सभी जेलों में कुल 211720 कैदी रखे जा सकते हैं, लेकिन उनमें 248115 कैदी कैद हैं। भारतीय जेलों की रिहायशी दर 117.19 प्रतिशत तक पहुंच गई हैं। तिहाड़ जेल भी इस समस्या से अछूती नहीं रही है। लेकिन फिर भी तिहाड़ जेल में कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। लेकिन अगर जिला स्तर पर जाकर देखें तो जेल वास्तव में नर्क का द्वार हैं। कैदियों के लिए विशेष कार्यक्रम तो दूर की बात है, वहां बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। वातावरण ऐसा है कि अगर यहां की जेलों में कोई छोटा अपराधी जाता है तो वहां से और बड़ा अपराधी बनकर निकलता है। मतलब अगर अन्ना हजारे की भाषा में कहें तो क्राईम का ग्रजुएट जाता है और डाॅक्टरेट करके निकलता है। जेलों का महाभ्रष्ट तंत्र कुछ इस प्रकार का है कि पैसे के दम पर वहां कानून की धज्जियां सरेआम उड़ाई जाती हैं।

उदाहरण के लिए मेरठ के जिला कारागार में कई बार जब छापे मारे गए तो वहां कैदियों के पास से मोबाइल मिले, पैने हथियार बरामद किए गए और न जाने क्या क्या! हर बार छापा पड़ता है और हर बार ऐसा होता है। कैदियों तक ये सामान पहुंचाते हैं उनसे मिलने आने वाले उनके परिजन, लेकिन उनको रखने की इजाजत आखिर कौन देता है। जेल प्रशासन देखकर भी चीजों को अनदेखा कर देता है। जेल के अंदर कैदियों की जरूरत का सामान बेचने के लिए दुकान भी होती है। लेकिन चीजों के दाम बाजार से पांच गुना लिए जाते हैं। खुद जेल में मौजूद जेल स्टाफ चंद पैसों के लिए कैदियों की उंगलियों पर खेलते हैं। ये तो बेहद छोटी किस्म की चीजों का उल्लेख किया। बड़ी-बड़ी कारस्तानियों को अंजाम दिया जा रहा है। इस सब की जानकारी जेल के जेलर समेत पूरे मेरठ प्रशासन को भी है। लेकिन फिर भी चीजें चल रही हैं। सिर्फ औपचारिकता के लिए कभी-कभी छापे मार दिए जाते हैं। उसके बाद स्थिति जस की तस। और ऐसा केवल मेरठ में नहीं है, देश की समस्त जेलों में अमूमन यही हाल है, कहीं थोड़ा कम तो कहीं थोड़ा ज्यादा।

जिला प्रशासन के पास इतना वक्त ही नहीं कि कैदियों के बारे में थोड़ा रचनात्मक ढंग से सोचकर जेल का एक सुधारगृह के रूप में तब्दील करे। यहां तक कि जो बाल सुधार गृह या बच्चा जेल हैं उनमें भी बच्चों को सुधारने की दिशा में कुछ रचनात्मक नहीं किया जा रहा। कुछ सामाजिक संगठन समय-समय पर जरूर वहां अपनी गतिविधियां आयोजित करते रहते हैं। ऐसा भी नहीं कि जिला प्रशासन के पास सोच नहीं है। लेकिन जेलों को अगर सुधार गृह बनाने की कोशिश की गई तो वहां से आने वाली कमाई पर ब्रेक लग जाएंगे। शायद ही कोई जेलर ऐसा चाहे। तिहाड़ की तरह भारतीय जेलों में तमाम प्रयोग किए जा सकते हैं। सवाल ही नहीं कि इंसान के अंदर सुधार न आए। कुछ अपराध न चाहते हुए भी परिस्थितिवश करने पड़ते हैं। लेकिन अगर जेल में भी नारकीय परिस्थिति मिले तो इंसान की मानसिक हालत और जड़ हो जाती है। तिहाड़ को माॅडल मानकर भारतीय जेलों में जेल इंडस्ट्री भी बनाई जा सकती है। कैदियों की अभिरुचि के मुताबिक उनको प्रशिक्षित किया जा सकता है या उनसे कोई भी रचनात्मक काम कराया जा सकता है। वरना जेलों में अपराधी जाते रहेंगे और वहां से घोर अपराधी बनकर बाहर आते रहेंगे।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

राग-ए-उमर


जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को गद्दी ज्यादा रास आ रही है। रास आए भी क्यूं न ये उनकी खानदानी गद्दी है जिस पर कभी उनके पिता और उससे पहले उनके दादा विराजमान थे। और भारतीय लोकतंत्र अगर इसी पैटर्न पर चलता रहा तो आगे चलकर उमर की संतानें इस गद्दी की शोभा बढ़ाएंगी। ये वही अब्दुल्ला परिवार है जिसने कभी सत्ता से बाहर रहना नहीं सीखा। जब ये परिवार दिल्ली में होता है तो इसके सुर कोई और होते हैं और जब ये कश्मीर में होता है तो दूसरे। सत्ता की लोलुपता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उसका सुख भोगने के लिए ये परिवार उनका भी दामन थाम सकता है जिनको ये अपना दुश्मन कहता है, जिनके साथ इनका न विचार मेल खाता है और न विचारधारा। जिस भाजपा को सुबह से शाम तक गरियाने में जो पार्टी कभी पीछे नहीं रहती उसी पार्टी के मुखिया भाजपा को समर्थन देकर वाजपेयी मंत्रीमंडल में मंत्री भी बन जाते हैं। किसी भी कीमत पर सत्तासुख भोगने वाले लोग क्या कभी राष्ट्रहित में निर्णय ले सकते हैं? उनकी नजरों में सदैव कुर्सी प्रथम होती है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की जो मांग कर रहे हैं उसको उनकी सत्ता की महत्वाकांक्षा और इमोशनल वोट बैंक पाॅलिटिक्स के नजरिए से क्यों न देखा जाए? खैर बात हो रही है गद्दी पर रासलीला की। उमर ने शिगूफा छेड़ा है कि जम्मू-कश्मीर में प्रयोग के तौर पर कुछ इलाकों से सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून हटा दिया जाए।

मुख्यमंत्री के इस बयान से देश में एक बहस छिड़ गई है। तमाम तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार संगठनों ने लामबंद होकर उनका समर्थन करना शुरू कर दिया है। पूर्वोत्तर राज्यों और कश्मीर की समस्या को एक ही चश्मे से देखने की कोशिश की जा रही है। जबकि दोनों जगह ये कानून लगाने के पीछे अलग-अलग कारण हैं। मणिपुर की इरोम शर्मिला का उदाहरण देकर कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मांग की जा रही है। कल एनडीटीवी पर प्राइमटाइम में इस विषय पर एक बहस दिखाई जा रही थी, जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता कम पत्रकार राहुल पंडिता भारतीय सेना को समाज का शत्रु बताने पर तुले थे। उनकी बातों में झलक रहा था मानो भारतीय सेना विश्व की समस्त सेनाओं में मानवाधिकारों का सबसे ज्यादा हनन कर रही है। और अपने इन्हीं कुतर्कों के आधार पर वे कश्मीर से एफ्सपा हटाने की मां कर रहे थे। बहस में मौजूद आर्मी के रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी ने तो उनकी अच्छी खबर ली और जमकर सुनाया। बहस के दौरान जनरल बख्शी को इतना गुस्सा आ गया कि पंडिता का चेहरा पीला पड़ गया।

(देखें विडियो-http://khabar.ndtv.com/PlayVideo.aspx?id=215864 )

जनरल बख्शी का गुस्सा लाजमी था। मानवाधिकार के दो-चार कानून पढ़कर और उसके नाम पर विदेशों से फंड इकट्ठा करके मलाई मारने वाले चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने छिछले ज्ञान से भारतीय सेना पर उंगली उठाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। ऐसी हरकत करते हुए वे ये भूल जाते हैं कि अगर जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में सेना की मौजूदगी न होती तो आज देश के गई टुकड़े हो गए होते। वे भूल जाते हैं कि कितने जवानों ने देश को अखंड रखने के लिए अपने प्राणों की आहुतियां दीं।

खुद को लीग से हटकर दिखाना और नाॅर्मल चीजों पर एब्नाॅर्मल राय देना या तो फैशन बन गया है या फिर उसमें कोई न कोई फायदा निहित होता है। लेकिन दुखद पक्ष ये है कि इस ट्रेंड में हमने अपनी सेना को भी टार्गेट करना शुरू कर दिया है। इससे हमारे उन सैनिकों पर जो देश के लिए अपना खून बहाते हैं क्या असर पड़ेगा इसका अंदाजा लगाना कठिन है। हो सकता है कि इस कानून की वजह से एक-दो घटनाएं ऐसी घटित हुई हों जिसमें मानवाधिकारों का हनन हुआ हो। लेकिन अगर इस कानून का आधार न होता तो कश्मीर के अलगाववादी संगठन कब का उसे निगल गए होते। इस कानून का ही डर है कि आतंकी अपना सिर उठाने से घबराते हैं। यही कानून का सहारा है कि फौज हर साल अपने दम पर अमरनाथ यात्रा संपन्न कराती है। जम्मू-कश्मीर पुलिस के भरोसे अमरनाथ यात्रा कभी नहीं पूरी की जा सकती। आज जिस कश्मीर में जिस शांति की दुहाई दी जा रही है वो भी फौज के दम पर ही है। एक दिन के लिए भी अगर फौज को वहां से बुला लिया जाए तो उमर अब्दुल्ला अपनी लाड़ली कुर्सी ढूंढते रह जाएंगे। लाखों विस्थापित कश्मीरी पंडितों के मसले पर आज तक जम्मू-कश्मीर सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई, वो सरकार अगर मानवाधिकार की बात करती है तो समझ से परे है। ताली एक हाथ से नहीं बजती। अच्छा हुआ होता अगर एफ्सपा हटाने से पहले विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाने के बारे में कोई कदम उठाया होता।

रविवार, 6 नवंबर 2011

ये कौन नचा रहा है देश की आवाम को कठपुतली की तरह!!!



महंगाई डायन है, महंगाई चु़ड़ैल है, महंगाई भूतनी है! हर गली, हर गांव, हर मोहल्ले, हर चैराहे, हर शहर में महंगाई ऐसी खुल्ली होकर नाच रही है जैसे मुंबई के क्लबों में बार बालाएं नाचती थीं। भारत के मिडिल क्लास के लिए महंगाई एक डरावना सपना बन गई है। एक भी तो ऐसी चीज नहीं बची जिसको सस्ता कहा जा सके। एक भारतीय रेल के जनरल डिब्बों के किराए को छोड़कर हर चीज के दाम महीना तो दूर हर हफ्ते बढ़ जाते हैं। 10 रुपये में निरमा का जो 500 ग्राम का पैकेट आता था वो अब 400 ग्राम का हो चुका है। कंपनियां अपने ग्राहकों को साइकोलाॅजिकली ट्रीट कर रही हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि चीजों का वजन इस तरह घटेगा कि बाजार में 100 ग्राम, सवा तीन सौ ग्राम के भी पैकेट मिला करेंगे। पहले सब्जी वाले सीधे किलो भर का रेट बताते थे। अब वही सब्जी वाले एक पाव का रेट बताते हैं। बताएं भी क्यों न, जो सब्जी अभी थोड़े दिन पहले तक 10-15 रुपए किलो मिल जाती थी, वही सब्जी अब 10-15 रुपए पाव बिक रही है। एक पाव सब्जी लेने पर सब्जी वाला ऐसे देखता था मानो कहां का कंगाल आ गया हो। अब तो चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ 100 ग्राम सब्जी भी तोलकर देने को तैयार है।

लेकिन हम भारतीयों की सबसे अच्छी बात यही है कि हम हर परिस्थिति में एडजस्ट कर लेते हैं। हमने महंगाई के साथ भी एडजस्ट करना सीख लिया है। घर की गृहणी से लेकर बच्चों तक को समझ हो गई है कि महंगाई बहुत ज्यादा है माता-पिता के सामने नाजायज मांगें न रखें। अबकी दीवाली पर जब मैं मुरादाबाद में पटाखों के बाजार में गया तो देखा कि बच्चे नन्हीं-नन्हीं थैलियों में पटाखे खरीदकर ले जा रहे थे। किसी के पास पटाखों का जखीरा नहीं था, मानो केवल नेग करने के लिए पटाखे खरीद रहे हों। पटाखा बाजार में बैठे दुकानदार भी कुछ खास उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे। महंगाई के चलते दुकानदारों ने भी माल कम ही मंगवाया था। अब से तीन-चार साल पहले मैंने उसी शहर में लोगों को बोरे भर-भर कर पटाखे खरीदते देखा था।

लेकिन इस महंगाई का सबसे दुखद पक्ष यही है कि सबसे ज्यादा मार रोटी पर है। खाने-पीने की वस्तुओं के जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं, वह बेहद निराशाजनक है। इलेक्ट्राॅनिक्स आइटम हों या आॅटो बाजार यहां काॅम्पटीशन के चलते बहुत ज्यादा महंगाई की मार नजर नहीं आती। बल्कि कार और बाइक खरीदना तो कहीं आसान हो गया है, लेकिन पेट्रोल की बढ़ती कीमतों के बीच उनको चलाना एक टेढ़ी खीर है। लेकिन रोजमर्रा की जरूरतों से जुड़ी चीजों पर तो महंगाई ऐसे चढ़कर बैठ गई है जैसे मुर्गी अपने अंडों पर बैठती है। आटा, चावल, दालें, तेल, चीनी, सब्जियां, फल, दूध, दही, पनीर जैसी चीजों के दाम आम आदमी को चैन से सोने नहीं दे रहे। खाने की चीजों के दाम तब आसमान छू रहे हैं जब हम रिकाॅर्ड फसल उत्पादन का दावा करते हैं और हमारे भंडार भरे हुए हैं। लेकिन इस रिकाॅर्ड उत्पादन का लाभ न तो गांव के किसान को हो रहा है और न शहर के उस ग्राहक को हो रहा है जो परचून की दुकान से आटा खरीदता है। इन दोनों के बीच में कोई है जो बहुत मोटा कमा रहा है। वो कौन है, कैसा दिखता है, क्या करता है, ये किसी को नहीं पता। वो एकदम उस ब्रह्म के समान है, जो है लेकिन दिखता नहीं। उसकी लीला कुछ ऐसी है कि देश की पूरी जनता को कठपुतली के समान नचा रहा है। वो कोई बहुत गहरा और समझदार कलाकार है, जो बड़ी सफाई के साथ किसानों का पसीना पी रहा है और जनता का टैक्स हड़प रहा है। जैसे ब्रह्म को जानना बहुत कठिन है उसी प्रकार इस कलाकार को भी पहचानना बेहद मुश्किल है। जैसे कठिन साधना के उपरांत अगर कोई ब्रह्म को जान लेता है तो उसको जानने के बाद उसी के जैसा बन जाता है, उसी प्रकार इस कलाकार को जब कोई पहचान लेता है तो वो भी उसी के रंग में रंग जाता है। इसलिए आम लोगों की परिस्थिति जस की तस बनी रहती है।

विडंबना ये है कि अर्थव्यवस्था का ये हाल तब है जब देश का प्रधानमंत्री एक अर्थशास्त्री है। अर्थशास्त्री भी ऐसा-वैसा नहीं, जिसके अर्थज्ञान का की चर्चा दसों दिशाओं में होती रही है। देश के पास एक ऐसी सरकार है जो मंचों पर केवल आम आदमी की बात करती है। जिसके युवराज अपना फोटो खिंचवाने और रोटी खाने के लिए गरीब से गरीब की झोंपड़ी खोजते फिरते हैं। पता नहीं युवराज अपनी आंखों पर कौनसा चश्मा लगाकर जाते हैं कि उनको उन परिवारों की समस्याएं नहीं दिखतीं। क्योंकि ये भी हमारे समाज की संस्कृति का हिस्सा है कि हम अतिथि के सामने अपनी समस्याओं का रोना नहीं रोते। ये सामने वाले की पारखी नजर होती है जो बिना कहे चीजों को समझ लेती है।

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

दिग्विजय सिंह और एडवर्टाइजिंग का सिद्धांत!!



एडवर्टाइजिंग के क्षेत्र में एक सिद्धांत प्रचलित है- ‘एक झूठ को अगर 100 बार कहा जाए तो  वो सच बन जाता है।’ कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह आजकल इसी सिद्धांत पर खेल रहे हैं। बाबा रामदेव और अन्ना के आंदोलन ने जब कांग्रेस की पूरे देश में थू-थू कराई तो कांग्रेस ने अपने सिपेहसालार दुर्मुख दिग्विजय के माध्यम से हमेशा की तरह संघ कार्ड चला दिया। पहले उन्होंने बाबा रामदेव के आंदोलन में संघ का हाथ बताकर मीडिया के सामने चिल्लाना शुरू किया और फिर बाद में अन्ना के अनशन की सफलता में भी संघ का हाथ-पांव बता दिया (वैसे मैडम ने तो उनसे कहा था कि ये भी बोल दें कि कांग्रेस के झंडे में जो हाथ है वो भी संघ का है)। दोनों ही आंदोलनों में जो कार्यकर्ता दिन-रात पसीना बहा रहे थे वे तमाम संगठनों से आए थे और उनमें संघ के कार्यकर्ता भी शामिल थे। तमाम काॅर्पोरेट हाउसों से लेकर देश के आम आदमी तक सभी इन आंदोलनों के समर्थन में थे। कांग्रेस के वे नेता जो देश में सुधार देखना चाहते हैं वे भी अपनी-अपनी तरह से इन आंदोलनों का समर्थन कर रहे थे। लेकिन केवल संघ का नाम लेकर आंदोलन के उद्देश्य से ध्यान हटाने की जो दिग्गी-कोशिश हो रही है वो एक कुंठाग्रस्त स्थिति को प्रदर्शित करती है। संघ विश्व का सबसे बड़ा संगठन है। देश का हर तीसरा-चैथा आदमी या तो उसका कार्यकर्ता है, या उसकी विचारधारा को मानने वाला है, या किसी न किसी रूप में उससे जुड़ा है। जब राष्ट्र निर्माण और चरित्र निर्माण की बात हो तो उसमें कहीं न कहीं संघ की उपस्थिति मिल ही जाएगी। तो इस दृष्टि से संघ की उपस्थिति को इन दोनों आंदोलनों में नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन ये कहना कि पूरा आंदोलन ही संघ का था या रिमोट कंट्रोल संघ के हाथ में था ये बेहद बचकाना और मूर्खतापूर्ण है।

ये तो नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस महासचिव बौखलाहट में इस तरह के बयान जारी कर रहे हैं। मध्यप्रदेश से स्थाई देश निकाला मिलने के बाद दिग्विजय सिंह की मानसिक स्थिति में बहुत छटपटाहट तो है, उस पर केंद्र सरकार में उनको मंत्री भी नहीं बनाया गया, और फिर वो अभी इतने बूढ़े भी नहीं हुए हैं कि उनको कहीं का राज्यपाल नियुक्त कर दिया जाए। वैसे भी राज्यपाल तो बेहद धीर-गंभीर और कम बोलने वाले व्यक्तित्वों के लिए बना पद है, अब दिग्विजय तो उसमें कहीं फिट नहीं बैठते। वर्तमान में कांग्रेस के अंदर सबसे ऊट-पटांग बोलने वाली लीग के अग्रणी नेता दिग्विजय ही हैं। कांग्रेस ने सोच-समझकर उनको अपना मोहरा बनाया है, लेकिन दिग्विजय अपने बड़बोलेपन में ये नहीं देख रहे हैं कि वे अपना कितना निजी नुकसान कर रहे हैं। वे उन लोगों पर उंगलियां उठा रहे हैं जिनपर न केवल भारत के लोगों ने बल्कि विदेशी भारतीयों और विदेशी नागरिकों ने भी भरोसा जताया है। दिग्विजय चुन-चुनकर अन्ना, रामदेव और श्री श्री पर उंगलियां उठा रहे हैं (लेकिन कोई ये न कहे की वो किसी का सम्मान नहीं करते , वो आतंकियों का पूरा सम्मान करते हैं) । इन तीनों के अनुयाई पूरे विश्व में मौजूद हैं। और ये लोग कोई पाप तो नहीं कर रहे? जो काम देश की राजनीति को करना चाहिए था आज वो काम सामाजिक संगठनों को हाथ में लेना पड़ा है। आज भ्रष्टाचार के मसले पर देश में ऐसी जागरुकता है जैसी कभी नहीं थी। भारत गरीब देश नहीं है बल्कि उसको जानबूझकर गरीब बनाए रखा गया। और क्योंकि आजादी के 64 सालों में अधिकांश राज कांग्रेस का रहा है तो देश की वर्तमान पीड़ाओं के प्रति सबसे ज्यादा जवाबदेही कांग्रेस की ही बनती है। इसमें कांग्रेस को तिलमिलाने की कोई जरूरत नहीं है। अच्छा होता कि कीचड़ उछालने का खेल खेलने के बजाय कांग्रेस ने गंभीरता से स्थिति पर विचार किया होता। विदेश में जमा काला धन देश में वापस लाने या भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में केवल और केवल भारत की जनता की भलाई है। प्रत्येक भारतीय की भलाई है। न किसी जाति विशेष की और न ही किसी धर्म विशेष की। लेकिन कांग्रेस ने अन्ना को गिरफ्तार करके और बाबा पर लाठी भांजकर अपनी छवि को और भी ज्यादा मिट्टी में मिला दिया। इसका जवाब जनता समय आने पर जरुर देगी।

दरअसल कांग्रेस का संचालन उसके नीति निर्धारकों के साथ-साथ पब्लिक रिलेशन कंपनियां भी देख रही हैं। दिग्विजय सिंह को मोहरा बनाने की सलाह किसी पब्लिक रिलेशन फर्म की ही रही होगी। और संघ कार्ड खेलने की सलाह भी उन्ही की देन है, जो पूरी तरह एडवर्टाइजिंग के सिद्धांत पर आधारित है। पर न जाने ये लोग दिग्विजय से किस जन्म का बदला ले रहे हैं। पार्टी ने एक इंसान को छुट्टा बोलने की इजाजत दे रखी है और वो इंसान इतना ज्यादा बोल रहा है कि तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोस्ट हेटेड पर्सनेलिटी बन गया है। शायद दिग्गी राजा को ये अंदाजा भी नहीं होगा कि जिस दिन कांग्रेस सत्ता से हाथ धोएगी उस दिन उनका एक भी समर्थक नहीं बचेगा. जब कहीं बहस चलती है तो खुद दिग्गी के समर्थक भी उनका बचाव करने के लिए शब्द नहीं ढूंढ पाते हैं। लेकिन अभी दिग्गी के चेहरे पर सत्ता की चमक है। जिस दिन सत्ता हाथ से जाएगी तो उनका क्या भविष्य होगा कहा नहीं जा सकता!!

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

राग दरबारी की स्वर्गयात्रा!!


आज जब हिंदी जगत के वरिष्ठ साहित्यकार श्री लाल शुक्ल की मृत्यु की खबर मिली तो अचानक मुझे अनुराग की बात याद हो आई जो उसने ‘राग दरबारी’ के बारे में कही थी। मेरठ में पत्रकारिता के दिनों में एडिशन छोड़ने के बाद रात के 12 बजे जो बैठकी जमती थी उसमें अक्सर राग दरबारी और श्री लाल शुक्ल की चर्चा उठती थी। राग दरबारी भले ही 1968 में लिखी गई हो लेकिन वो आज भी वर्तमान पत्रकारिता को आइना दिखा सकने की कुव्वत रखती है। अनुराग का कहना था कि राग दरबारी पढ़ते वक्त बार-बार ऐसे मौके आए जब वो ठठ्ठा मार कर हंस पड़ता था। घर वाले भी उसकी ओर हैरत से देखने लगते थे कि ऐसी कैसी किताब है कि अच्छे-खासे शांत इंसान को बार-बार हंसने पर मजबूर कर रही है। अनुराग की सभी पत्रकारों को राय थी कि हर एक पत्रकार को राग दरबारी अवश्य पढ़नी चाहिए वो भी मांगकर नहीं खरीदकर। मेरे कई साथी पत्रकारों के पास राग दरबारी थी, लेकिन मांगने पर किसी ने पढ़ने के लिए नहीं दी। क्योंकि गई हुई किताब के वापस लौटने के चांस न के बराबर होते हैं और राग दरबारी ऐसी किताब नहीं जिसको खो दिया जाए।

जब कंडवाल जी ने एक बार राग दरबारी का जिक्र किया जो उनके मुख से सीधे ये निकला कि जिस किताब के पहले ही पृष्ठ पर भारतीय सड़कों की दुर्दशा के बारे में इतना तगड़ा व्यंग्य लिखा हो कि ‘ट्रक का जन्म ही सड़कों का बलात्कार करने के लिए हुआ है’, तो अनायास ही उसको और भी ज्यादा पढ़ने की इच्छा जागृत हो जाती है। कंडवाल जी की इस प्रशंसा में उनका अपना दर्द भी छिपा था, क्योंकि दिन भर बाइक पर रिपोर्टिंग करने वाला रिपोर्टर जब अपनी खबरें पंच करके देर रात घर लौटता है तो उसके आगे-आगे सड़क की धूल उड़ाते ट्रकों का सबसे ज्यादा शिकार वही बनता है। श्री लाल शुक्ल का यही अंदाज था कि उनकी लेखनी हर इंसान के दिल की बात या दिल के दर्द को बयां करती थी। आप चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़े हुए हो आप उनकी रचनाओं में खुद को कहीं न कहीं फिट कर ही लोगे।

सबसे मजेदार बात ये कि शुक्ल जी ने एक खास पद पर रहते हुए आम आदमी की बात कही। सिविल सर्वेंट को भारतीय समाज में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है और शुक्ल जी जिस जमाने में सिविल सर्वेंट थे उस जमाने में तो सिविल सर्वेंट होने का मतलब आप समझ ही सकते हैं। प्रशासकों पर अक्सर ऐसे आरोप लगते हैं कि वे आम आदमी की भावनाओं को नहीं समझते, लेकिन शुक्ल जी ने न केवल आम आदमी की भावनाओं को समझा बल्कि उसको बखूबी अपनी लेखनी के दम पर किताबों में उतारा भी। रिटायर होने के बाद या रिटायरमेंट के आसपास प्रायः अधिकांश प्रशासक लेखक बन ही जाते हैं, लेकिन वो अलग किस्म का लेखन होता है, जिसको एक इलीट वर्ग ही समझ सकता है। लेकिन शुक्ल जी ने पद पर रहते हुए ऐसे व्यंग्य लिखे जो जनसाधारण के दिलों को छू गए, ये उनकी अपनी विशेषता थी। शुक्ल जी भले ही मृत्युलोक से स्वर्गलोक की यात्रा पर चले गए हैं, लेकिन इतना तय है कि उनका व्यंग्य राग सुनकर वहां विराजमान ब्रह्मदेव की भी हंसी छूट जाएगी।

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

आओ मनाएं मिलावटी दीवाली!!!



त्योहारों का मौसम है! मन में ढेर सारी खुशियां हैं (खासतौर से बच्चों के, बड़े तो खुश होने का केवल अभिनय करते हैं) और जेब में ढेर सारे पैसे हैं (मनमोहन सिंह द्वारा दिए गए 32 रुपयों से कहीं ज्यादा)। महंगाई भी है, लेकिन दीवाली तो हमने तब भी मनाई थी जब पूरे विश्व में महामंदी का दौर था। हमें हमारे त्योहार मनाने से कोई नहीं रोक सकता। इस देश के माता-पिता कमाते ही त्योहार मनाने के लिए हैं। बच्चों को कतई मायूस नहीं कर सकते। प्रेमचंद की ईदगाह में भी गरीबी के दिन झेल रही दादी ने हामिद के हाथ पर ईद मनाने के लिए तीन पैसे रखे थे। वो बात दीगर है कि वो ईदगाह के मेले से अपने लिए खिलौने लाने के बजाय अपनी दादी के लिए चिमटा लेकर आया था। ये तो हमारे रिश्तों की मिठास है। त्योहार तो भारत की पहचान हैं। हम उनको मनाए बिना नहीं रह सकते, चाहे प्रधानमंत्री हमारे हाथ पर 32 रुपए रखें और चाहे पश्चिमी देश महामंदी में डूब जाएं।

दीवाली तो सबकी है (जेल में बंद यूपीए के मंत्रियों को छोड़कर) और सभी मनाने को उत्सुक हैं। माल तैयार है और बाजार सजे पड़े हैं। बाजार के बाजीगरों ने ग्राहकों को लुभाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। सबकी पौ बारह है। हालांकि महंगाई नंगी होकर भूतनी की तरह नाच रही है। इस महंगाई से निपटने में भारत सरकार भले ही विफल रही हो, लेकिन चीन हम भारतीयों का दर्द भलीभांति समझता है। उसने हमारे दर्द को समझते हुए अपने यहां से सस्ता माल भारत भेज दिया है। पता नहीं क्यों विशेषज्ञ लोग यूं ही कहते रहते हैं कि चीन भारत का दुश्मन है! इस चुड़ैल महंगाई से निपटने में तो चीन भारतीयों का दोस्त ही साबित हो रहा है! मूर्तियां, बिजली की टिमटिमाती लडि़यां, पटाखे, इलेक्ट्राॅनिक्स, चीन ने सबकुछ भेज दिया है आपके लिए।

अब जो चीजें चीन से नहीं भेजी जा सकतीं, उन चीजों में भारतीय मिलावट कर-कर के लोगों की दीवाली मनवा रहे हैं। नकली मावा, नकली मिठाई, नकली सोना-चांदी, सबकुछ मिलावटी। हालात इतने सड़ गए हैं कि किसी भी चीज पर भरोसा नहीं किया जा सकता। कल बात छिड़ी तो आंटी बताने लगीं कि बाजार में डाई मिली हुई मेहंदी आ रही है, जिससे किसी भी गृहणी का हाथ हल्का न रचे। डाई के असर से सबके हाथ स्याह सुर्ख रचते हैं। पहले कहते थे कि जिन पति-पत्नी में ज्यादा प्यार होता है उनकी मेहंदी ज्यादा रचती है। अब तो प्यार भी नकली है देखने में पता ही नहीं चलेगा कि सच्चा या झूठा। तो मेहंदी भी अगर झूठ बोल रही है तो गुरेज क्या है? मिलावटी मावा और मिठाइयां तो अब पुरानी बात हो चुकी हैं। लोगों ने मिठाइयों का विकल्प भी खोज लिया है। मुंह मीठा कराने की जगह नमकीन कराया जा रहा है- कुरकुरे, लेहर, हल्दीराम वगैराह-वगैराह!!

पिछले दिनों रिश्तेदारी में एक बच्चे का जन्म हुआ तो सोचा कि चांदी की नजरियां भेंट कर दी जाएं, ताकि उसे दुनिया की नजर न लगे। मुरादाबाद में था, सो वहीं के एक सुनहार की दुकान पर गया और एक जोड़ा पसंद करके उसके दाम पूछे। उसने उन रजत कंगनों को इलेक्ट्राॅनिक तराजू में ऐसे तौला मानो अपनी ईमानदारी का परिचय दे रहा हो। बोला जी 600 रुपये के पड़ेंगे। मैंने कहा- भाई मिलावटी तो नहीं है। चांदी में बहुत मिलावट सुनने को मिल रही है। बोला- भाई साहब आपको पूरे बाजार में असली चांदी मिलने की ही नहीं है। सब 60 परसेंट है। हम तो बताकर बेचते हैं। चांदी का असली वाला क्वीन विक्टोरिया का सिक्का 1200 रुपए का पड़ेगा। कौन ग्राहक दे देगा इत्ते रुपए। सबको 500-600 वाले चाहिए। अब मेरठ में हू-ब-हू वैसा ही सिक्का तैयार हो रहा है। आप पहचान नहीं सकते। बस 600 रुपए का है। दीवाली पे जमके बिकेगा। मैंने मन में सोचा जब ये इन कंगनों को अपने मुंह से 60 परसेंट प्योर बता रहा है तो हरगिज ये 20 परसेंट ही प्योर हैं। मेरी उसके साथ कोई नाते-रिश्तेदारी तो थी नहीं जो वो मुझसे हरीशचंद्रपना दिखाएगा। सो मैंने कहा 500 रुपये लगाओ, एक नोट में काम चलाओ। न नुकुर करते हुए उसने 500 पकड़ ही लिए और अपन ये जानते हुए भी कि माल नकली है खुशी-खुशी घर आ गए।

भयानक स्थिति है। इंसान से लेकर मशीन तक, भावनाओं से लेकर चरित्र तक, फलों से मिठाइयों तक, दूध से लेकर दही तक, पानी से लेकर खून तक, मंत्री से लेकर संत्री तक, खुशियों से लेकर दुःख तक, नौकरी से लेकर छोकरी तक, सरकार से लेकर संस्थाओं तक, धर्म से लेकर न्याय तक, हंसी से लेकर आंसुओं तक सबकुछ मिलावटी है हो गया है इस देश में। तो साथियों आप सभी को मिलावटी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!!!!!!!!

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

त्योहार और नेताओं की शुभकामनाएं!!!!


आप लोगों को पता है कि आप लोगों के त्योहार इतने मंगलमय और शुभ क्यों होते हैं? क्योंकि हमारे नेतागण हम सबको त्योहारों की हार्दिक शुभकामनाएं जो देते हैं। शहर में जिधर निकल जाओ उधर बोर्ड ही बोर्ड लगे हैं, जिन पर विभिन्न पार्टियों के छुटभैये नेता अपना फोटो लगाकर आपको त्योहारों की शुभकामनाएं दे रहे हैं वो भी थोक में। फ्लैक्स बोर्ड के आ जाने से इनको बड़ा आराम हो गया है। लेकिन बार-बार पैसा न खर्च करना पड़े तो एक ही बोर्ड पर भविष्य में आने वाले ढेर सारे त्योहारों की बधाई एक साथ दे देते हैं। आ तो रही है दीवाली पर गाजियाबाद से लेकर मेरठ तक लगे बैनर और बोर्ड चीख-चीख कर नववर्ष 2012 तक की शुभकामनाएं एडवांस में आपको दे रहे हैं। बोर्ड का रंग देखकर ही आपको उनकी पार्टी का पता चल जाएगा। कोई नीला, कोई भगवा, कोई तिरंगा तो कोई हरा। क्योंकि यूपी में चुनावी साल है, तो अपनी-अपनी पार्टी से ‘टिकटेच्छु’ नेता दिल खोलकर आपको अपनी शुभकामनाएं दे रहे हैं। बोर्ड पर शुभकामना के उस नेता का फोटो जिसके खर्च पर बोर्ड लगा है, उसके बगल में उसकी पार्टी के किसी बड़े नेता का फोटो, जिसके दम पर टिकट मिलने की उम्मीद है, और फिर सबसे नीचे कतार में कुछ छुटभैयों के फोटो। शहर की सड़कों पर लगे अपने फोटो देखकर इन महानुभावों के कलेजों को वैसी ही ठंडक पहुंचती है जैसी किसी नौजवान को कोकाकोला पीने के बाद मिलती है।

मैं तो यही सोचकर रह जाता हूं अगर हमारे ये शुभचिंतक और परमहितैषी नेतागण आम लोगों को त्योहारों की शुभकामनाएं न देते तो हमारे त्योहार शुभ कैसे होते? ये इन लोगों की शुभकामनाओं का ही नतीजा है कि आम जनमानस के त्योहार शुभ और मंगलमय होते हैं। बधाई और शुभकामनाएं देने में डिस्ट्रिक्ट लेवल के लीडरान बड़े आगे होते हैं। पार्टी के अध्यक्ष का बर्थडे हो या किसी मंत्री या मुख्यमंत्री का, पूरा शहर बधाइयों से पटा नजर आएगा। मजेदार बात ये कि एक आदमी जो जनप्रतिनिधि भी नहीं है, पूरे शहर की तरफ से बधाई दे देता है। खुद ही पूरे शहर की नुमाइंदगी करने लगता है और अगर नेता जी पर बोर्ड लगवाने के पैसे न हों तो शहर के किसी लाला जी को पकड़कर उनसे पैसा खर्च करवाता है और बोर्ड के नीचे छोटा-छोटा लिखवा देता है- सौजन्य से फलाने लाला जी झानझरोखा वाले।

इन होर्डिंग्स को देखकर ही शहर वालों को अंदाजा लग जाना चाहिए कि उनके नेता उनकी कितनी चिंता करते हैं। ये उनकी बधाइयों और शुभकामनाओं का ही नतीजा है कि उनके त्योहार इतने अच्छे बीतते हैं। साथ ही हर शहरवासी का यह कर्तव्य भी बनता है कि इन बधाइयों के पीछे छिपी नेताओं की इच्छाओं को भी पहचानें और उन इच्छाओं को पूरा भी करें। आखिर कोई आपके लिए इतने पैसे खर्च कर रहा है, आपके त्योहार की चिंता कर रहा है, तो आपका इतना तो फर्ज बनता ही है न कि आप उसकी इच्छाओं का भी ख्याल करो। ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम उस बोर्ड को ध्यान से पढ़ तो सकते ही हो जिस पर आपके के त्योहार के लिए शुभकामना लिखी है। अब ये मत बोलना कि महंगाई की वजह से त्योहार मनाना मुश्किल है। महंगाई और बधाई में कैसा रिश्ता? नेताओं का काम है शुभकामना देना। अब अगर आपके पास अपने बच्चों को त्योहार पर खुश करने लायक पैसे नहीं हैं तो ये आपकी परेशानी है इसमें महंगाई का क्या रोल है। इसलिए आम लोगों की तरह मत सोचो, हर समय महंगाई और पैसे का रोना मत रोओ। जैसे नेताओं ने एक बोर्ड लगाकर आपको कहा हैप्पी दीवाली आप भी वैसे ही घर में एक बोर्ड लगाकर अपने बच्चों को बोलो हैप्पी दीवाली!!!

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

अतिथि ‘कस्टमर’ भवः


भारतीय संस्कृति में अतिथि को देवता का दर्जा दिया गया है। अतिथि ही को क्या, हर उस चीज को जिसकी मर्यादा की रक्षा जरूरी थी उसे देवी-देवता का दर्जा दे दिया गया। चाहे वह वन देवता हो, ग्राम देवता या जल देवता, भाव यही था कि इंसान इन की अहमियत समझे। लेकिन इस भाव को समझे बगैर मशीन की तरह मंत्रों को याद कर लिया और लगे रटने। अतिथि देवो भवः के पीछे कहीं न कहीं पर्यटन की बेहद गहरी सोच छिपी थी और यही कारण है कि पर्यटन मंत्रालय इस मंत्र को जगह-जगह विज्ञापनों में इस्तेमाल भी करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच बेचारे अतिथि को ‘देव’ समझा जा रहा है। जहां तक पर्यटन का सवाल है तो पर्यटक स्थलों पर आने वाले सैलानियों को केवल ग्राहक की नजर से देखा जाता है। हालात इतने बुरे हैं कि अच्छे से अच्छा घूमने के शौकीन का मन मैला हो जाए। लेकिन ये सब अनुभव करने के लिए आपको कम बजट में एक आम सैलानी की तरह घूमने जाना होगा, अगर किसी वीआईपी तमगे के तले या फिर बोरे में नोट भरकर आप जाते हैं तो कोई दिक्कत नहीं।

रेलवे स्टेशन पर उतरते ही आॅटो और रिक्शे वालों के छल-कपट से लेकर अतिथि को सू-सू कराने वाले सुलभ शौचालयों तक और शुद्ध शाकाहारी भोजनालय से लेकर समर्पित धर्मशालाओं तक हर जगह सेवा भाव की जगह लूट भाव आ चुका है। किसी भी पर्यटक स्थल के रेलवे स्टेशन या बस स्टेशन पर पर्यटक के उतरते ही तमाम अतिथि सेवक उसको गिद्धों की तरह घेर लेते हैं। और अगर आप उस शहर में पहली बार घूमने गए हैं तो इन आॅटो और रिक्शे वालों का सहारा लेने के सिवा आपके पास कोई दूसरा चारा नहीं होता। ‘सर’ और ‘मैडम’ जैसे अति सम्मानित शब्दों के साथ वे एक झूठी मुस्कुराहट के साथ आपके पथप्रदर्शक बनने के लिए उत्सुक हैं। आपको होटल चाहिए या लाॅज, धर्मशाला चाहिए या मुसाफिरखाना इनकी हर जगह, हर रेंज में जान पहचान होती है। बस आपको अपना बजट बताना है बाकी अपना कमीशन तो ये होटल वाले से ले ही लेंगे।
स्टेशन के मुहाने पर इन अतिथि सेवकों से बात करते-करते अगर आपको प्यास लग आए तो ये आपकी गलती है। अब वहीं पास वाले खोखे से खरीदो पानी की बोतल जो प्रिंट रेट से 2-3 रुपए महंगी मिलेगी। अगर आप उस इज्जतदार खोखे वाले को टोकोगे तो दो बातें होंगी। या तो वो आपको यह कहकर झिड़क देगा कि- यहां तो इतने की ही मिलेगी, लेनी है लो, नहीं लेनी मत लो! या फिर कुटिलता से मुस्कुराकर कहेगा- दो-तीन रुपये ही तो कमाने हैं, वैसे भी धंधा एकदम मंदा चल रहा है। और आप उसे कानून पढ़ाने की कोशिश तो कतई न करें। यानि उसको एमआरपी का अर्थ समझाना मतलब भैंस के आगे बीन बजाना।

फिर जैसे-तैसे जब आप होटल पहुंचोगे तो वहां होटल वाला आपकी गर्दन का नाप लेकर उसी हिसाब से आपकी जेब ढीली करवा लेगा। अगर आप मिडिल क्लास से बिलांग करते हैं तो आपके मन में ये ख्याल जरूर आएगा- साला कहां तो हमारे यहां पूरे महीने का किराया 1200 रुपए होता है और कहां ये कमबख्त एक रात के 1200 मांग रहा है। पर मरता क्या न करता, तिस पर सफर की थकान, सो आप कलेजे पर पत्थर रखकर उसके हाथों में एडवांस थमा देंगे, क्योंकि होटल वाला आपको बताना नहीं भूलेगा कि पीक सीजन चल रहा है। इससे कम कहीं नहीं मिलने वाला।

फिर साहब आप थोड़ा कूल होकर जब शहर घूमने निकलेंगे तब? तब फिर दो बातें होंगी- अगर आप किसी धार्मिक नगरी में गए हैं तो पंडे आपके पीछे पड़ जाएंगे और अगर किसी हिल स्टेशन पर गए हैं तो गाइड, ट्रैवल एजेंट आपके पीछे पड़ेंगे। पंडित जी भी आपको ‘सर’ कहकर ही बुलाएंगे। हमारे संविधान में तो साफ-साफ लिखा गया है कि ‘सर’ और ‘लाॅर्ड’ जैसे टाइटल देश में नहीं दिए जाएंगे। लेकिन ‘सर’ नाम का टाइटल जितना भारत में पाॅपुलर है उतना शायद ही विश्व के किसी कोने में हो। सब के होठों पर मीठे-मीठे बोल और दिल में आपके पैसे ठंडे कराने की हसरत।

घूमने गए हैं तो खाए बिना तो काम चलेगा नहीं। अव्वल तो घर से खाना लेकर चलने का चलन खत्म हो चुका है अगर कोई लेकर चलता भी है तो कितना चलेगा। रेस्तरां में खाने जाइये तो साहब पता चलेगा कि कोई भी सब्जी हाफ प्लेट नहीं मिलेगी और जब छोटी सी कटोरी में फुल प्लेट लग कर आएगी तो आप समझ जाएंगे कि हाफ प्लेट क्यों नहीं मिलती। मेन्यू में सबसे सस्ती सब्जी खोजते-खोजते आपकी आंखें तरस जाएं और जब हारकर दाल की तरफ देखों तो दाल फ्राई भी 80 रुपए प्लेट। दाल मक्खनी की तरफ देखना भी गुनाह। जिस आलू को कोई नहीं पूछता वही आलू जीरा के नाम से 60 रुपए में बिक रहा है। सलाद चाहिए तो पैसे अलग से देने होंगे। बाकी बची रोटी तो साहब प्लेन रोटी 8 रुपए और बटर रोटी 10 रुपए। बटर और प्लेन में सिर्फ दो रुपए का अंतर इसलिए रखा गया है ताकि आप दो रुपए बचाने की कोशिश न करें और सीधे बटर रोटी ही आॅर्डर करें।

घूमते-घूमते यदि आपको लघुशंका लग आए तो फिर से दो बातें होंगी। अगर आप थोड़े से बेशर्म टाइप होंगे तो आपके लिए किसी भी पेड़ या दीवार का सहारा काफी है। लेकिन अगर आप थोड़े से शर्मदार हैं और खुद को सभ्य कैटेगरी में समझते हैं तो आप सुलभ शौचालय खोजेंगे। शौचालय के द्वार पर एक मेज होगी और उस मेज के पीछे एक काला सा व्यक्तित्व आपकी मजबूरी का फायदा उठाने के लिए बैठा होगा, जो आपको सू-सू कराने के एवज में कम से कम दो रुपए और अधिकतम पांच रुपए चार्ज करेगा।

इन सब हालातों से जूझते-जूझते जब आप घर वापस लौटोगे तो आपकी जेब जरूरत से ज्यादा ठंडी होगी। घर वाले जब इस उम्मीद से आपकी तरफ देखेंगे कि आप उनके लिए क्या लाए तो आपके पास सुनाने के लिए बातों के अलावा कुछ नहीं होगा। अंततः आपको घुमक्कड़ मन आपको आपकी घुमक्कड़ी के लिए घुड़केगा।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

बच्चों के पास खुशी ही खुशी और बड़ों के पास गम ही गम...

बच्चों के पास खुश होने के कितने सारे कारण होते हैं। बारिश को देखकर खुश, बर्फ को देखकर खुश, नई पेंसिल पाकर खुश, हवा में उड़ता पंख देखकर खुश, ट्रेन की खिड़की से झांककर खुश, पापा से मिली अठन्नी पाकर खुश, छोटी सी कहानी सुनकर खुश, चवन्नी की टाॅफी पाकर खुश, मम्मी के आंचल में छिपकर खुश, बिल्ली को भगाकर खुश, तितली को पकड़कर खुश, काॅक्रोच को छूकर खुश, भूत की कहानी से डरकर भी खुश और आपस में झगड़कर भी खुश, गाड़ी की सवारी करके खुश, चाचा की पीठ पर लटककर भी खुश। कितनी स्वाभाविक होती है उनकी ख़ुशी. रोम रोम से ख़ुशी झलक रही होती है. एक बार सोचने लगा कि भगवान ने बच्चों को खुश होने के कितने सारे कारण दिए हैं, और बड़ों के पास खुशी के कितने कम कारण होते हैं। फिर अगले पल सोचा कि जिन चीजों पर बच्चे खुश होते हैं, उन पर कभी बड़े लोग भी खुश हुआ करते थे। लेकिन अब वे बड़े हो गए हैं, उनको बच्चों की तरह खिलखिलाना शोभा नहीं देता। हर समय मुंह चढ़ाकर रखने की उनकी आदत होती है। वे बड़े हो गए हैं इसलिए वे छोटी-मोटी चीजों पर खुशी का इजहार नहीं करते। वे बड़े हैं तो उनको खुशी भी बड़ी चाहिए। आमतौर पर बड़े लोग जिन चीजों पर खुश होते हैं वे हैं पैसा, पद, शौहरत, सम्मान, अच्छा भोजन, आराम, सुरा और सुंदरी। इसके अलावा और किसी चीज पर बड़े लोगों को अंदरूनी खुशी नहीं मिलती। बाकी एक-दूसरे को देखकर मिलते मुस्कुराते बड़े लोग वास्तव में सिर्फ बनावटी खुशी का इजहार कर रहे होते हैं। जबकि बच्चे दिल खोलकर हंसते हैं और खुशी का इजहार करते हैं। वैसे हम बड़े लोग बच्चों से इतने चिड़ते हैं कि  उनकी ख़ुशी छीनने में भी कोई कसार नहीं छोड़ी है. कहीं हमने उनपर अपने सपनों को लाड दिया हैं तो कहीं उनको पैसे कि दौड़ में शामिल कर दिया है. लेकिन वे फिर भी खुश रहते हैं.  बच्चों और बड़ों की खुशियों में इतना अंतर क्यों है? क्या इसलिए कि वे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं और उनको जिंदगी का ज्यादा तजुर्बा है। या इसलिए कि बनावटी हंसी हंसना आज के समय की जरूरत है। या फिर इसलिए कि सच्ची खुशी केवल बच्चों के लिए होती है। पता नहीं क्यों बड़े लोगों का दिमाग इतना क्यों चलता है कि वो हर चीज को तर्क की धार पर कसने लगते हैं।

सोमवार, 16 मई 2011

यमुना एक्सप्रेस वे- एक कहानी अनकही

(ये स्टोरी मैंने चेन्नई से प्रकाशित होने वाली एक नयी "इंक" मैगजीन के लिए लिखी थी जिसे अंग्रेजी में अनुवाद करके पृष्ठ संख्या ९९ पर छापा गया है-  www.inkthemagazine.com  क्यूंकि अब ये स्टोरी प्रकाशित हो चुकी है तो आज अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ. )

ग्रेटर नॉएडा का परी चौक 
मंजिलों तक ले जाते हैं रास्ते, नई उम्मीद जगाते हैं रास्ते, कभी कोई गीत तो कभी नई कहानी सुनाते हैं रास्ते। रास्ते बदलाव के सूचक हैं, रास्ते नई शुरुआत के सूचक हैं, रास्ते सूचक हैं जीवंतता के, रास्ते सूचक हैं विकास के। भारत में सड़कों और रास्तों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना ये देश। चंद्रगुप्तमौर्य ने जिस सड़क का सपना देखकर उसकी शुरुआत की थी, उसको शेरशाह सूरी ने आगे बढ़ाया और कलकत्ता से पेशावर तक ग्रैंड ट्रंक रोड का विशाल निर्माण कराया। तब से लेकर आज तक लगातार भारत में सड़कों का जाल बिछाया जाता रहा है। चाहे वो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का गोल्डन क्वाड्रिलेटरल हो या ईस्ट-वेस्ट और नाॅर्थ-साउथ काॅरिडोर, यूपी की मुख्यमंत्री मायावती का गंगा एक्सप्रेस-वे का सपना हो या यमुना एक्सप्रेस वे की हकीकत। सड़कें भारत के विकास में सबसे बड़ी मददगार बन गईं और जहां सड़क नहीं पहुंची वहां के लिए बाधा। नई सड़क जब किसी इलाके से गुजरती है तो वहां के बाशिंदों के जीवन को कई तरह से प्रभावित करती है। एक ओर यही सड़क उन इलाकों को आर्थिक उन्नति देती है, तो दूसरी ओर वहां की आबोहवा और संस्कृति को निगल भी जाती है।

यमुना एक्सप्रेस वे- दिल्ली को ताज नगरी आगरा से जोड़ने के लिए तैयार किया जा रहा ये खालिस कंकरीट का 165 किलोमीटर लंबा विशालकाय ढांचा दिल्ली-आगरा के बीच सफर को बेहद सुगम बनाने जा रहा है, समय की बचत से लेकर आर्थिक विकास तक तमाम संभावनाएं इस रोड से जुड़ गई हैं। न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि समूचे भारत की दृष्टि से ये सड़क ऐतिहासिक है। ताज महल के दीदार करने आने वाले विदेशी सैलानियों के सामने ये सड़क एक नए भारत की तस्वीर पेश करेगी। लेकिन इसके आसपास जो पुराना भारत बसा था वो भी बदला-बदला सा नजर आएगा। जी हां, बात कर रहे हैं उन 1187 गांवों की जिनसे होकर यमुना एक्सप्रेस वे गुजर रहा है। चैहड़पुर, घरबरा, मुरशदपुर, जगनपुर, नौरंगपुर, सिलारपुर, रीलखा, छपरगढ़, रौनीजा, मिर्जापुर, नीलानी, जेवर, जिकरपुर और टप्पल ये कुछ ऐसे गांवों के नाम हैं जिनका आने वाले समय में नक्शा बदलने वाला है। आने वाला समय इन गांवों में रहने वाले लोगों के लिए उम्मीदों की फुलवारी लेकर आएगा या फिर नाउम्मीदी के कांटे ये तो वक्त ही बताएगा, बहरहाल इतना तो तय है कि ये गांव अब गांव नहीं रहेंगे बल्कि देश के सबसे बड़े अर्बन जोन का हिस्सा होंगे, जो ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे के दोनों तरफ पांव पसारने वाला है। यमुना एक्सप्रेस वे को लेकर पत्रकारों ने जमकर अपनी स्याही खर्च तो की है, लेकिन इसके आसपास बसे इन गांवों के अंदरूनी हालात जानने की कोशिश नहीं की गइ। वैसे मुख्य रूप से ये गांव गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र हैं, लेकिन यहां यादव, पंडित, ठाकुर, जाट और दलितों की भी अच्छी खासी तादाद है। जनरल इमरजेंसी के दौरान 19 अप्रैल 1976 को जब संजय गांधी की पहल पर नोएडा शहर की स्थापना हुई थी, तब शायद सोचा भी न गया होगा कि ये कारवां ग्रेटर नोएडा तक ऐसा बढ़ेगा कि देश का सबसे बड़ा अर्बन जोन कहलाएगा। लेकिन नोएडा की जिन जमीनों को अधिग्रहित करके उनपर उद्योग लगाए गए वो जमीनें कम उपजाऊ थीं, लेकिन अंधाधुंध विकास की दौड़ में अब जिन जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है वे बेहद उपजाऊ और कमाऊ हैं। वे न केवल वहां के किसानों का पेट पाल रही हैं बल्कि देश के खाद्यानों में भी बड़ा योगदान दे रही हैं। इन्हीं सब जमीनी हकीकतों को जानने के लिए हम निकल पड़े यमुना एक्सप्रेस-वे के इर्दगिर्द बसे गांवों का जायजा लेने के लिए और वहां के किसानों और युवाओं से मुलाकात की।

चौहड़पुर में आवभगत
यमुना एक्सप्रेस वे के आसपास के गांवों का जायजा लेने की शुरुआत हमने चैहड़पुर गांव से की। ग्रेटर नोएडा में बतौर इंश्योरेंस एजेंट काम कर रहे श्यामवीर ने मेरी अगवानी की और सीधे अपने घर ले गए। वे अपनी मारूती आॅल्टो में आगे-आगे और मैं अपनी हीरो हाॅन्डा स्प्लेंडर बाइक से उनके पीछे-पीछे। उस विशालकाय हाईवे के नीचे  से कब कहां एक छोटा सा रास्ता चैहड़पुर की तरफ मुड़ गया पता ही न चला। फिर उस छोटे से रास्ते ने एक गली का रूप ले लिया जो सीधे श्यामवीर के घर के बाहर खुली जगह पर जाकर खत्म हुई। सीधे अपने ड्राइंग रूम के सामने उन्होंने अपनी गाड़ी पार्क की और उसी के बगल में मैंने अपनी बाइक लगा दी। आंगन में गाड़ी, फिर एक वेरांडा और उसमें दो कमरे। अंदर कमरे में बैठते ही उन्होंने अपने भाई को आंखों ही आंखों में इशारा किया और वो हमारे लिए पानी ले आया। फिर उन्होंने अपने जेब से मोबाइल निकाला और गांव के कुछ लोगों को फोन करके अपने घर पर ही बुला लिया। हमने चर्चा शुरू की ही थी कि तीन लोग और कमरे में आ गए। ‘राम राम जी...’ और तीनों हमारे सामने सोफों पर बैठ गए। अपना परिचय देने के बाद मैंने फिर से बातचीत शुरू की ही थी कि श्यामवीर का भाई हम सबके लिए चाय ले आया, जिसमें पानी कम और दूध ज्यादा था। ‘अरे कुछ खाने को भी ला’ श्यामवीर ने भाई को हिदायत दी। ‘ला रहा हूं जी’ कहकर वो बाहर गया और दो प्लेट लेकर आया। एक प्लेट में पारले जी के बिस्किट थे ओर दूसरी प्लेट में नमकीन। अब चाय की चुस्कियों के साथ मैंने बातचीत को आगे बढ़ाया, लेकिन मैं सोच रहा था कि भारत के जिन गांवों में पहले दूध, मट्ठा, दही और गुड़ से मेहमानों का स्वागत होता था आज उन्हीं गांवों में चाय और बिस्किट अब आम हो गया है।

जब जमीन थी तब विकास नहीं आज विकास है पर जमीन नहीं
यमुना एक्सप्रेस वे पर बसे चैहड़पुर जैसे गांवों की कहानी बड़ी अजीब है। जब किसानों के पास खेती के लिए जमीन थी तो उस समय उनके पास संसाधन नहीं थे, आज जब संसाधन हैं तो उनके पास मेहनत करने के लिए जमीन नहीं बची। 1989 तक गांव के पास से गुजरने वाली यमुना पर बांध नहीं था। पुरानी दिनों को याद करते हुए श्यामवीर बताते हैं कि बरसात के दिनों में दो-दो महीने तक स्कूल नहीं जा पाते थे। जब कुछ पानी उतरता तो स्कूल जाना शुरू करते, लेकिन वो भी पैंट उतार कर रास्तों से गुजरना पड़ता था। लेकिन अब यमुना पर बांध भी है और आने-जाने के लिए रास्ते भी, लेकिन नहीं बची है तो करने के लिए खेती। यमुना एक्सप्रेस वे में भूमि अधिग्रहित हो जाने के बाद गांव वालों के पास खेती के लिए तकरीबन पांच प्रतिशत ही जमीन बची है। स्थिति ये आ गई है कि इन गांवों का जो किसान कल तक दूसरों के पेट भरता था आज खुद बाहर से अनाज खरीदकर अपना जीवन यापन करने को मजबूर है। ये बेहद चिंताजनक स्थिति है कि देश के अन्नदाता के सामने ही आज अन्न का संकट खड़ा है।

जाएं तो जाएं कहां?
चैहड़पुर के ही संजय भाटी की 15 बीघा जमीन 2003 में यमुना एक्सप्रेस वे डेवलपमेंट अथाॅरिटी ने अधिग्रहित कर ली। जमीन चले जाने के बाद की स्थिति पर चर्चा करते हुए संजय कहते हैं कि ये हाईवे किसानों के लिए नहीं बनाए जा रहे हैं। इनका असली फायदा कहीं और होने वाला। किसान तो इस रास्ते का महज एक रोड़ा मात्र है, जिसे सरकार ने एक रकम देकर हटा दिया है। एक साथ रकम आ जाने से किसानों का फौरी तौर पर जरूर फायदा हुआ है, लेकिन आने वाले समय में किसानों को इसका भारी खामियाजा भुगतना पड़ेगा। नोएडा से इतर ग्रेटर नोएडा के आसपास स्थित गांवों की जमीनें उपजाऊ हैं। यहां गन्ना, गेहूं, और धान जैसी फसलें अच्छे स्तर पर उगाई जाती थीं। जबकि नोएडा के आसपास की जमीनों की पैदावार बहुत कम थी। इसलिए ग्रेटर नोएडा के आसपास के गांवों का किसान कमोबेश खुशहाल था। लेकिन अब उनके पास पैसा तो है पर उसका सदुपयोग करने के लिए उतनी शिक्षा नहीं है। एक बार बात शुरू हुई तो संजय एक बहाव में बहते चले गए और अपने मन की गांठों को खोलने लगे। वे बताते हैं कि किसानों को मुआवजे के साथ उसकी जमीन के छह प्रतिशत के बराबर का प्लाॅट भी दिया गया। लेकिन प्लाॅट भले ही मुफ्त दिया गया हो, लेकिन उसके डेवलपमेंट फीस और सर्किल रेट इतने महंगे हैं कि किसानों को भारी पड़ रहे हैं। किसानों के लिए की गई प्लाॅटिंग में काभी भेदभाव भी किया गया है। वहां की सड़कों और सीवरों की क्वालिटी बेहद खराब है। ग्रेटर नोएडा में जहां कम से कम सड़कों की चैड़ाई 12 मीटर है वहीं किसानों को दी गई काॅलोनी में सड़कें केवल 7.5 मीटर की ही है। चाय पीते-पीते संजय थोड़े गंभीर होकर एक बड़ी गहरी बात कहते हैं ‘सरकार जिन प्रोजेक्ट्स के पीछे जनता का फायदा और समाज का फायदा बताती है, दरअसल उनके पीछे बेहद चुनिंदा लोगों का फायदा छिपा होता है। एक सरकार द्वारा एक ही कंपनी को ग्रेटर नोएडा के सारे प्रोजेक्ट्स दिए गए हैं। जनता का फायदा तो महज एक छलावा है। इन प्रोजेक्ट्स में असली फायदा तो राजनीति और नौकरशाही के शिखर पर बैठे चंद लोगों का है।’

बदलते व्यवसाय
संजय बताते हैं कि एक्सप्रेस वे ने गांवों की एक पीढ़ी को खाली बिठा दिया है। वे कहते हैं ‘हमारा मुख्य काम खेती था, अब इस उम्र में कोई हम से कहे कि हम कंप्यूटर सीखें तो हम नहीं कर सकते। जिसका जो काम है वो उसी को शोभा देता है। एक्सप्रेस वे के साथ-साथ रेजिडेंशियल एरिया ज्यादा डेवलप किया जा रहा है। अगर उद्योग ज्यादा आते तब भी किसानों को थोड़ा फायदा हो सकता था।’ बातचीत में पता चला कि आज गांव के ज्यादातर युवा जो थोड़े पढ़े-लिखे हैं वो प्राॅपर्टी डीलिंग का काम कर रहे हैं। जो पढ़े-लिखे कम हैं वे या तो कंपनियों में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं या फिर अपनी ट्रैक्टर-ट्राॅली से किराए पर मिट्टी ढोते हैं। उसमें भी बार-बार उनका चालान काट दिया जाता है। 

शिक्षा का अभाव
सड़कें बनीं, विकास हुआ, नए-नए संसाधन खड़े हुए और इस विकास ने समाज के दो वर्गों को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया। एक ओर वे लोग हैं जो इलीट क्लास कहलाते हैं और दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनको ये इलीट क्लास देहाती कहकर पुकारती है। दोनों वर्गों की संस्कृति, शिक्षा, रहन-सहन, खान-पान, बोलचाल और आर्थिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है। और अब ये दोनों वर्ग आमने-सामने हैं। एक मजबूरी के तहत आसपास रह रहे हैं, एक अनकहे और अनसुने तनाव के साथ। इलीट क्लास का मानना है कि गांव के लोग हिंसक हैं और अनएजुकेटिड हैं। जबकि गांव के लोग मानते हैं कि उनको एवाॅइड किया जाता है। ग्रामीण क्षे़त्र की सबसे बड़ी समस्या है अच्छी शिक्षा का अभाव। पैसा आ जाने से आज गांव के हर घर में कलर टीवी है, गाड़ी है और रहने के लिए अच्छा घर है। लेकिन इस स्टैंडर्ड को सस्टेन करने के लिए उनके पास उतनी शिक्षा नहीं है। संजय भाटी के साथ आए गांव के ही एक निवासी लोई ओढ़े काफी देर से खामोश बैठे थे। अपना नाम तो नहीं बताया पर इतना ही बोले ‘सरकार को हमारे बच्चों की शिक्षा का ख्याल करना चाहिए। ग्रेटर नोएडा में नाॅलेज पार्क बनाया गया और तमाम प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट खोले गए। यहां तकरीबन डेढ़ लाख स्टूडेंट पढ़ रहे हैं, लेकिन हमारे बच्चों को एडमिशन देने से सब बचते हैं। उनको दबंग कहा जाता है। ऐसे तो ये बच्चे कहीं के नहीं रहेंगे।’ बताया जाता है कि ग्रेटर नोएडा की गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी जो मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है, वहां प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस इतनी ज्यादा है कि वो प्राइवेट इंस्टीट्यूट्स को भी मात देती नजर आती है। वो किसी भी दृष्टि से ग्रामीण स्टूडेंट्स की जरूरतें पूरी करती नहीं दिखती।

क्या किया पैसे का?
मनोज भाटी 
ये सवाल काफी कौतूहल का विषय रहता है कि आखिर किसान उस मुआवजे की रकम का करते क्या हैं, जो जमीन के एवज में या तो सरकार से या फिर प्राइवेट बिल्डर्स से मिलती है। हमारी मुलाकात हुई ग्रेटर नोएडा के जुनपत गांव में रहने वाले मनोज भाटी से। मनोज की खानदानी जमीन दो बार अधिग्रहण की चपेट में आई। पहली बार 2002 में जब उनको 40 लाख का मुआवजा मिला और दूसरी बार 2007 में जब उनको 1 करोड़ 77 लाख का मुआवजा हाथ आया। इतनी बड़ी रकम अचानक मिल जाना और फिर उसको सही दिशा दे पाना एक बड़़ी चुनौती थी। अपने ठेठ देसी अंदाज में मनोज अपनी कहानी मेरे सामने बयां करते चले गए। उन्होंने बेबाकी से स्वीकार किया कि गांव के लोग पैसे को सही जगह लगाना नहीं जानते। इसके चलते थोड़े ही समय में मुआवजा खत्म हो जाता है और अभाव की स्थिति आ जाती है। मुआवजा मिलते ही सबसे पहला काम होता है- एक गाड़ी खरीदना और फिर गांव में एक शानदार घर बनवाना। मनोज ये भी स्वीकारते हैं कि कई घरों को शराब की लत ले डूबी। बहरहाल मनोज अपने बारे में बताते हैं ‘हमने तो जी दादरी कस्बा में एक बड़ो मकान बनायो, और वाकू किराये पै उठा दियो। अब हमैं जी महीना के बीस हजार बैठे बिठाए मिल जावै हैं। बाकी खाली समय में मेरो प्राॅपर्टी डीलिंग और सैटरिंग को काम है।’ मनोज ने अपनी देसी भाषा में पूरी स्थिति मेरे सामने साफ कर दी। आज इस क्षेत्र के ज्यादातर युवाओं का यही हाल है। उनके पास बहुत पैसा है, लेकिन एक अच्छा 

रोजगार है नहीं और खेती वो कर नहीं सकते।
मनोज ये भी बताते हैं कि क्षेत्र के कई किसानों ने जमीन के बदले जमीन खरीदने की दिशा में भी कदम बढ़ाए हैं। अपने गांवों में जमीन खत्म हो गईं तो किसानों ने बुलंदशहर और अलीगढ़ की तरफ के गांवों में जमीनें खरीदनी शुरू कीं, ताकि उनका परंपरागत और खानदानी पेशा न छूटने पाए। ऐसा करके जहां कुछ लोगों को सफलता हाथ लगी तो वहीं कुछ किसान विफल भी रहे। दूर दराज के गावों में जमीन खरीदना काफी रिस्की खेल था। क्योंकि वहां के लोकल लोगों द्वारा यहां के किसानों की जमीनों पर कब्जा करने के कई मामले प्रकाश में आए। रंजिशें पनपने लगीं, थाने-कचहरियों के चक्कर लगने लगे और रकम फंसी सो अलग। इस सबके बाद क्षेत्र के किसानों ने दूर दराज इलाकों में बिना जान-पहचान के जमीन खरीदने का सिलसिला कम कर दिया।

राजनीति का चस्का
पैसा आ जाने के बाद युवाओं में राजनीति का चस्का भी जबरदस्त है। हाल ही में संपन्न हुए ग्राम पंचायत और जिला पंचायत चुनावों में युवाओं ने जमकर भागीदारी की। युवाओं के पास धन भी है, समय भी है और अपने सपनों को अमलीजामा पहनाने के लिए आवश्यक पौरुष भी। पूरे ग्रेटर नोएडा में चिपके पाॅलिटिकल पोस्टर्स पर युवाओं के चेहरे मुस्कुराते नजर आते हैं और ये युवा किसी इलीट क्लास के नहीं बल्कि ठेठ गंवई हैं जो अपने धन के बल पर राजनीति में अपना भाग्य आजमाने उतर पड़े हैं। युवाओं में गाड़ी और राजनीति के बाद जो दूसरा ट्रेंड देखने को मिल रहा है वो है लाइसेंसी हथियार रखने का। शादियों में अंधाधुंध फायरिंग करने के अलावा अपनी जींस में विदेशी पिस्टल लगाना एक शगल बन गया है। शायद यही सब कारण हैं कि ग्रेटर नोएडा के इलीट क्लास को गांव के ये लोग दबंग और वाॅयलेंट लगते हैं।

बढ़ गया दहेज का चलन
जब से इस क्षेत्र के किसानों को जमीन के एवज में मोटे-मोटे मुआवजे मिले हैं तब से यहां के दूल्हों की पौ बारह हो गई है। इन गांवों के लड़कों के रेट सातवें आसमान पर हैं। इन गांवों के लड़के भले की कुछ न कर रहे हों फिर भी उनकी शादी में लड़की वालों को औसतन 20 से 40 लाख तक खर्च करने पड़ रहे हैं। अपनी बेटी के साथ उनको देनी पड़ रही है एक शानदार चमचमाती गाड़ी और मोटा कैश। कारण वही कि लड़की वालों को इस क्षेत्र के लड़कों में उनके मुआवजे की वजह से ज्यादा संभावना नजर आती है। उनकी बेटी के रहने के लिए एक अच्छा घर और खाता-पीता परिवार। ये भी कोई अचरज की बात नहीं कि इसी क्षेत्र के इमलिया गांव में आई बारात एक मिसाल बन गई। दूल्हा हेलीकाॅप्टर से जो आया था। थोड़ा आगे बढ़कर खुद मुख्यमंत्री मायावती के गांव तक चलें तो यहां एक लड़के को शादी में बीएमडब्ल्यू कार दी गई। ये बात दीगर है कि लड़का एक मंत्री का बेटा था। जबकि मर्सिडीज कार तो कई लड़कों को मिल चुकी है। दहेज की ये होड़ इस क्षेत्र के लिए बेहद हानिकारक साबित हो रही है। ग्रेटर नोएडा के गांवों में दहेज का इतना तगड़ा काॅपटीशन चल निकला है कि लड़की वालों की आफत आ गई है। भरे समाज के बीच लड़के की लगन चढ़ती है और लड़की वाला उसको उपहार स्वरूप तमाम कैश, गाड़ी और तमाम घरेलू साजो सामान से नवाजता है। फिर गांव के पंडित जी सभी के बीचो-बीच खड़े होकर एनाउंसमेंट करते हैं कि गांव के इस होनहार सपूत को दहेज में क्या-क्या मिला है। और इस प्रथा को बल मिलता चला जाता है। कुछ सामाजिक संगठन दहेज के खिलाफ लामबंद तो हुए हैं लेकिन उनकी मुखालफत करने वाले ज्यादा हैं और समर्थन करने वाले कम।

सुरेन्द्र नागर
कुड़ी खेड़ा गांव यूं तो अभी अधिग्रहण की चपेट में नहीं आया है, लेकिन बहुत जल्द यहां भी अधिग्रहण का खेल शुरू होने वाला है। गांव के किसान पहले से ही सजग हो सतर्क बैठे हैं कि किस प्रकार अपनी जमीन का ज्यादा से ज्यादा मुआवजा लिया और फिर अक्समात मिलने वाले धन का किस तरह सही उपयोग किया जाए। सुरेंद्र नागर इस गांव से एमबीए की पढ़ाई करने वाले पहले युवा थे। इन्होंने पहले गाजियाबाद के एक इंस्टीट्यूट से बीबीए और फिर ग्रेटर नोएडा के ही गलगोटिया काॅलेज से एमबीए किया। आज सुरेंद्र अपने गांव के सबसे एलिजिबल बैचलर हैं और उनकी देखादेखी आज उनके गांव के कम से कम दस लड़के एमबीए कर रहे हैं। कोर्स करने बाद ही सुरेंद्र को आईसीआईसीआई बैंक में अच्छी नौकरी भी मिल गई। लेकिन नौकरी के सत्तर झंझट सुरेंद्र को पसंद नहीं आए और एक दिन ये फैसला ले लिया कि अब अपना काम करना है। सुरेंद्र ने अपने एमबीए के ज्ञान को लाभी उठाते हुए ग्रेटर नोएडा में ही शेयर मार्केट का बिजनेस शुरू कर दिया। साथ में परिवार के प्राॅपर्टी डीलिंग के काम में भी हाथ बंटाने लगे। सुरेंद्र भले ही बहुत पढ़-लिख गए हों लेकिन उनका अंदाज एकदम देसी है। गलगोटिया काॅलेज का माॅडर्न एन्वाॅयरमेंट उन पर बहुत प्रभाव नहीं डाल पाया। 25 साल का ये युवक मानता है कि शादी के मामले में युवाओं को माता-पिता की मर्जी का ख्याल रखना चाहिए। अपने आॅफिस में चाय-पकौड़ों से मेरा इस्तकबाल करने के साथ-साथ सुरेंद्र अपनी भावनाएं व्यक्त करते चले गए ‘अभी इस क्षेत्र में एजूकेशन की बहुत कमी है। अगर एजूकेशन की तरफ जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो युवा बहक भी सकते हैं। उनके अंदर भरपूर एनर्जी है- धन की भी और तन की भी और इस एनर्जी को सही दिशा देना बेहद जरूरी है। वरना वो क्राइम में भी उतर सकते हैं।’

पंचायत को पूरा अधिकार
इन गांवों के आसपास भले ही एक सुपर माॅडर्न वल्र्ड खड़ा हो रहा हो। लेकिन आज भी ये गांव अपनी जड़ों को नहीं छोड़ पाए हैं। आज भी गांवों में पंचायतें फैसले लेती हैं। लड़का-लड़की का अपनी मर्जी से ‘लव मैरिज’ करना अवैध माना जाता है। आॅनर किलिंग की घटनाएं होती हैं, लेकिन उनको इस कदर समाज का समर्थन प्राप्त है कि वे घटनाएं प्रकाश में भी नहीं आ पातीं। युवा अपनी दुनिया में कितने भी मनचले और उन्मुक्त क्यों न हों, लेकिन गांव के बड़े बुजुर्गों के सामने आज भी जुबान नहीं खोल पाते।

अर्बन जोन
उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला लेते हुए यमुना एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ के इलाकों को अर्बन जोन घोषित कर दिया है। ग्रेटर नोएडा का ये अर्बन जोन नोएडा से कम से कम दस गुना बड़ा होगा। इससे छह जिलों के 1187 गांव शहरी सीमा में आ जाएंगे। एक्सप्रेस वे के बाईं तरफ 10 से 15 किमी का क्षेत्र और दाईं तरफ यमुना नदी तक का क्षेत्र इस अर्बन जोन की हद में आ जाएगा। सरकार का तर्क है कि एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ बेतरतीब तरीके से होने वाले विकास की जगह एक सिस्टेमैटिक डेवलपमेंट करने के लिए ये फैसला जरूरी था। इस फैसले का इन गांवों पर क्या असर होने जा रहा है इसका अंदाजा अभी से लगाया जा सकता है। सुरेंद्र नागर कहते हैं कि ‘जो लोग अब तक दाल-रोटी को तरजीह देते थे उनको जबरदस्ती डोमिनोज पिज्जा परोसने की कोशिश है’। 

संस्कृति
गांवों के आसपास भले ही विकास अपने पांव पसारता जा रहा है, लेकिन गांवों की संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। जब मैं श्यामवीर के साथ चैहड़पुर गांव में घुस रहा था तो गांव के मुहाने पर ही कुछ महिलाएं गोबर से उपले बनाने व्यस्त थीं। जब उन्होंने मुझे अपनी ओर देखता पाया तो उन्होंने झट से पर्दा कर लिया। गांवों के लड़कों ने भले ही जींस पहननी शुरू कर दी है लेकिन महिलाएं भी पारंपरिक सूट और साड़ी ही पहनती हैं। बस इतना जरूर है कि उनकी साड़ी अब थोड़ी महंगी हो गई है। हां, अगर खत्म हो रही है तो मर्दानी धोती। गांव के बूढ़े भी अब धोती कुर्ता की जगह कुर्ता पयजामा पहन रहे हैं। वैसे अब तो संसद में धोती वाले नेता कम होते जा रहे हैं। उत्तर भारत में धोती हो या दक्षिण भारत की लूंगी युवाओं में इस परिधान के प्रति रुझान काफी तेजी से घट रहा है। शहरों में तो धोती वैसे भी रुढि़वादी और दकियानूसी विचारधारा का प्रतीक होती है।

इंश्योरेंस एजेंट
बातचीत में पता चला कि गांवों में अभी मैकडोनाल्ड बर्गर और डोमिनोज पिज्जा का चलन तो नहीं, लेकिन इंश्योरेंस एजेंट धड़ल्ले से पहुंच रहे हैं। गांव वालों को अचानक मिली अकूत संपत्ति को सही जगह इंवेस्ट करने की तरीके सुझाने के लिए तमाम कंपनियों के एजेंट्स गांव की धूल फांक रहे हैं। ये भी कोई अतिश्योक्ति नहीं कि ज्यादातर एजेंट इन्हीं गांवों के रहने वाले हैं, जो आपसी विश्वास और भाईचारे के आधार पर लोगों को पाॅलिसियां बेच रहे हैं। हालांकि लोगों की ये भी शिकायत थी कि कुछ एजेंट्स उनका पैस लेकर भाग गए, जो शहर से आए थे और ये लोग उनको जानते भी नहीं थे।

और अब नाइट सफारी
यमुना एक्सप्रेस वे के आसपास के गांव में रहने वाले लोगों के बीच अब ‘नाइट सफारी’ का एक नया शिगूफा आ रहा है। इस क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोग तो नाइट सफारी का मतलब भी नहीं जानते। लेकिन अगर सबकुछ ठीक रहा तो ये अजीबोगरीब नाम जल्द ही उनके बीच प्रचलित होने वाला है। जी हां, नाइट सफारी मतलब एक ‘नाॅक्टरनल जू’ यानि रात को देखा जाने वाला चिडि़याघर। विश्व भर में अब तक केवल तीन देशों में ही नाइट सफारी हैं- सिंगापुर, चीन और थाइलैंड। यदि प्रयास सफल होते हैं तो भारत इस तरह का चैथा देश होगा। ग्रेटर नोएडा अथाॅरिटी सूत्रों की मानें तो विश्वप्रसिद्ध जू डिजाइनर बरनार्ड हैरिसन, जिन्होंने सिंगापुर नाइट सफारी को डिजाइन किया था, ग्रेटर नोएडा नाइट सफारी को भी डिजाइन करेंगे। 222 एकड़ में बनने वाले इस मेगा प्रोजेक्ट में तमाम तरह के वन्यजीवों को लाने की तैयारी है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए यहां हाई प्रोफाइल कैसीनो और रेस्तरां भी तैयार करे जाएंगे। इतना तो तय है कि इस नाइट सफारी के बनने से एनसीआर के लोगों को मस्ती का नया अड्डा और देश के लोगों को एक शानदार पर्यटन स्थल मिलने जा रहा है, लेकिन एक्सप्रेस वे के आसपास बसे गांवों में रहने वाली आबादी की जिंदगी को ये किस तरह प्रभावित करेगा ये देखना होगा। बहरहाल इस नाइट सफारी को सेंट्रल जू अथाॅरिटी और सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिल गई है। गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी के पास बनने वाले इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण भी किया जा चुका है। जब ये नाइट सफारी अस्तित्व में आएगी तब शायद गांवों के लोग इसके आसपास चाय और जूस के खोखे लगाते नजर आएं। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि हाइजीन के नाम पर उनको इसकी भी इजाजत न दी जाए।


’’यमुना एक्सप्रेस-वे पूर्णतयाः व्यवासयिक दृष्टिकोण पर आधारित है। इसमें किसान और गांवों का कोई लाभ नहीं है। इस एक्सप्रेस-वे को बनाने में जिस तरह की नीतियां अपनाई गई हैं, उससे वेस्ट यूपी का ग्रामीण अंचल बर्बाद हो जाएगा। इस क्षेत्र में मुख्यतौर पर गुर्जर, पंडित, ठाकुर और जाटों के पास अधिकांश जमीनें हैं। ये एक तरह से इन जातियों को कमजोर करने का भी जरिया है। इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रहा अपराध आने वाले बुरे समय की ओर इशारा कर रहा है। सरकार को किसानों की पूरी जमीन न लेकर आधी जमीन लेनी चाहिए थी, ताकि उनका परंपरागत काम उनके हाथ से नहीं छिनता। साथ ही 25 प्रतिशत जमीन किसानों के लिए विकसित करके देनी चाहिए थी, ताकि वे उसमें कोई व्यवसाय आदि कर सकें। सरकार फार्म हाउस तो बना रही है लेकिन वे उद्योगपतियों के लिए हैं। इस क्षेत्र को जो अर्बन जोन में कन्वर्ट करने का फैसला आया है वो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इसको लागू नहीं होने दिया जाएगा। किसान अभी शांत हैं, इसका मतलब ये नहीं कि आंदोलन समाप्त हो गया। आंदोलन फिर शुरू होने वाला है, हम अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। जमीन अपनी शर्तों पर देंगे और अपने रेट पर देंगे। चाहे हमारी जान ही क्यों न चली जाए।’’
-मनवीर सिंह तेवतिया, अध्यक्ष, सर्वदल किसान संर्घष समिति


Quick Facts about Yamuna Expressway
§  Districts Touched: 6 (Gautam Buddha Nagar, Bulandshahr, Aligarh, Mahamaya Nagar (Hathras),Mathura and Agra)
§  Villages Touched: 1187
§  Rural Population affected:  24 Lakhs
§  Length - 165.53 km
§  Right of Way - 100m
§  Number of Lane - 6 Lanes extendable to 8 lanes
§  Type of Pavement - Rigid (Concrete)
§  Interchange - 7
§  Main Toll Plaza - 3
§  Toll Plaza on Interchange Loop - 7
§  Underpass - 35
§  Rail Over Bridge - 1
§  Major Bridge - 1
§  Minor Bridge - 42
§  Cart Track Crossing - 68
§  Culverts – 204
§  Slated to Complete in: April 2011
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मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

चर्चा ये आम है आज कल....


कौं रे कलुआ ऐसी का खबर छपी है, जो घूर घूर कै अख़बार मैं घुसो जा रो है.

कुछ न दद्दा.... वे हे न अपने चचा कलमाडी, उनके ताईं पुलिस पकड़ कै लै गयी.

कौन वो कॉमनवेल्थ करोडपति कलमाडी

हाँ दद्दा वोई

फिर अब?

अब का दद्दा पार्टी वारे भी किनारा कर गए हैं. मैडम ने लिकाड़ दओ  पार्टी सै.

बताओ मुसीबत मैं सब संग छोड़ जाए हैं.

अरे कैसे मुसीबत दद्दा... करोड़ों डकारते बखत सोचनी चहिए ही न. मुसीबत तो खुद की बुलाई भई है.

अरे तौ का बिचारे नै अकेले डकारे हे. और भी तो हे संग मैं. उनको नाम कोई न लै रओ. 
 
नाम तौ दद्दा कई के आ रए हैं। शीला चाची कौ भी अंदर करान की मांग उठ रई हैगी। विपच्छ वारे बड़ो हो-हल्ला मचा रए हैं।

देखौ तो एक तौ बिचारन नै अपने यहां खेल कराए और अब जेल भी जानो पड़ रौ है।

जेल-वेल तौ कोई ना जा रौ दद्दा। सब बाहर है जांगे। जे तो लोगन के ताईं फुद्दू बनान के नाटक हैं। जा सै पहलै भी तो कितने नेता पकड़े गए हे, पर काई कौ जेल भई। सब खुल्ले घूम रये हैंगे सांडन के तरह।

पर मोय तो तरस आबै बिचारे कलमाडी पै। बिचारे को अकेले को नाम खराब है रओ है, घी तो औरन नै भी पियो हो।

पियो तो हो दद्दा, पर सबसै ऊपर तो कलमाडी ही हो। जो चाहतो तो सबको रोक लेतो। पर चुपचाप तमाशो देखतो रओ और सबके संग अपनी बैंकैं भरतो रओ। तौ इत्ती फजीहत होनी ही चहिए।

हम्म्! चलौ अब का कर सकै हैं। लगै अब भ्रष्टन की हजामत को समय आ गओ है। जे सब हजारे को कमाल है।

अरे दद्दा कमाल काई को न है। जे सब दिखावो है। कुछ दिनन की बात है खुलो सांड की तरह घूमैगो सड़कन पै, कुछ न होने वारो। बाद में करोड़न की मलाई खाएगो।

पर जौ सजा है गई तौ खेलन की आफत आ जाएगी।

सो क्यौं दद्दा?

सब नेतन की हवा खराब है जाऐगी। फिर कोई अपने यहां खेल न कराने वारो। सब मनै कर दिंगे, जी हमें कोई खेल न कराने।

सुन तो रये हैं कि शीला चाची की घबराई फिर रई हैं। गर कलमाडी नै उनको नाम लै लओ तौ फिर समझो दद्दा बिगड़ गई बात।

अरे वो कलमाडी है कलमाडी! नाम न लेन के भी रुपया खा लैगो कांग्रेस सै।

ही ही ही!!! तुम भी दद्दा क्यौं मजा लै रे हो बुढ़ापे मै।

अरे मैं का मजा ले रौं हौं। मजा तो दिल्ली वारे लै रे हैं।

पर दद्दा जो अगली फेरै सबनै अपने यहां खेल कराने सै मनै कर दई तौ?

न सब न मनै करंगे। वो जो है न मोदी गुजरात वारो, वो करा दैगो नैक देर मैं अपने यहां। बाकी बातन में दम सो लगै।

का पते दद्दा वानै भी मनै कर दई तौ?

तौ फिर कलुआ अपने गांव मै ही करा लिंगे।

जो बात सई है, दद्दा। उनको खर्चा बच जाएगो।

खर्चा कैसे बचैगो कलुआ?

अरे, खेलन के ताईं खेल गांव बनानो पड़ै न। गांव तौ जो पहले सै है बस खेल-खेल कराने हैं।

हा हा हा हा। अरे कलुआ तू तौ समझदार है गओ है अखबार पढ़-पढ़ कै।

सब तुम्हारो आसिरबाद है दद्दा।

जीतो रै जीतो रै! चल अब खेतन पर घूम आऐं।

चलौ दद्दा!!!!!!!!

रविवार, 10 अप्रैल 2011

संस्कृत भाषा को बचाने के लिए पिछले चार दिन से अनशन पर बैठी एक संस्कृत टीचर


भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे का अनशन रंग लाया और सरकार झुक गई। एक व्यवस्थित ढंग से चलाए गए अभियान के सामने सरकार को घुटने टेकने पड़े। लेकिन हर आंदोलन सफलता के अंजाम तक नहीं पहुंचा करता। कई बार व्यवस्था इतनी ढीठ होती है कि अनशन पर बैठे व्यक्ति के प्राण हर कर ही बाज आती है। दिल्ली में रोहिणी के सेक्टर 15 स्थित सेंट एंजेल्स स्कूल के बाहर भी एक ऐसा ही अनशन चल रहा है। गत 7 अप्रैल से स्कूल की संस्कृत शिक्षिका श्रीमति आशा रानी पाठ्यक्रम से संस्कृत हटाने के विरोध में अनशन पर बैठी हैं। दरअसल स्कूल ने कक्षा पांच से कक्षा नौ तक संस्कृत का सूपड़ा साफ करके जर्मन और फ्रेंच भाषा को लगाने का फैसला किया है। इस फैसले से न केवल संस्कृत टीचर नाराज हैं बल्कि स्कूल के स्टूडेंट्स और पैरेंट्स भी परेशान हैं। आशा रानी की मांग है कि कम से कम बच्चों को विषय चुनने का मौका तो दिया जाना चाहिए। लेकिन स्कूल प्रबंधन एक सुनने को तैयार नहीं है। पिछले चार दिन से आशा रानी आमरण अनशन पर बैठी हैं।

जड़ में भ्रष्टाचार

दरअसल स्कूल की इस मनमानी की जड़ में भी भ्रष्टाचार ही है। स्कूल प्रबंधन अपने स्टाफ को कम सैलरी देकर कागजों में ज्यादा पर दस्तखत करवाता है। इस भ्रष्ट चलन का आशा रानी कई बार विरोध कर चुकी थीं। यहां तक कि स्कूल प्रबंधन की उनके साथ खासी तनातनी भी हो चुकी थी। अब स्कूल प्रबंधन आशा रानी से निजात पाना चाहता है। इसके लिए प्रबंधन ने फैसला किया कि स्कूल से संस्कृत विषय ही हटा दिया जाए। न रहेगी संस्कृत और न रहेगी उसको पढ़ाने वाली आशा रानी। लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान संस्कृत भाषा को हटाने का निर्णय न तो बच्चों को रास आ रहा है और न अभिभावकों को। इसलिए इसके विरोध में आशा रानी स्कूल के गेट पर अनशन पर बैठ गई हैं।

कोई सुनवाई नहीं

आशा रानी के इस अभियान से स्कूल प्रबंधन पर कोई खास असर पड़ता नहीं दिख रहा है। दरअसल मीडिया ने भी इस मामले अभी उस तरह नहीं दिखाया है, बल्कि ये कहें कि मीडिया में अभी ये मामला आया ही नहीं है। आशा रानी ने बस अपने दम पर बिना किसी सोची-समझी रणनीति के अभियान छेड़ दिया है। लेकिन रोहिणी सेक्टर 15 के निवासियों के बीच आशा रानी की ये मांग और विरोध प्रदर्शन लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। वैसे इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात कोई क्या होगी कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर और देव वाणी संस्कृत को जर्मन और फ्रेंच की भेंट चढ़ाया जा रहा है। उम्मीद है कि आशा रानी का ये अनशन जरूर रंग लाएगा।



अधिक जानकारी के लिए संपर्क सूत्र

आशा रानीः 8826050123
सेंट एंजल्स स्कूलः 27291521, 27294021, 27298621



सोमवार, 4 अप्रैल 2011

दुकानदारी के नुस्खे!!!




दिल्ली से लेकर देहरादून तक और बीकानेर से लेकर बाराबंकी तक दुकानदारों के पास अपना सामान बेचने और दुकानदारी का तकरीबन एक सा ही पैटर्न है। अपना सामान बेचने के लिए न जाने उनको क्या-क्या तरीके आते हैं। ये तरीके उन्होंने किसी स्कूल या एमबीए की क्लास में नहीं सीखे। बस पापी पेट की जरूरतों ने उनको सबकुछ सिखा दिया। पहले वे धर्म का आचरण करते हुए दुकानदारी करते थे। फिर देखा कि बहुत ज्यादा धर्म का आचरण करने से मुनाफा नहीं हो रहा तो उन्होंने थोड़ा साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाई। फिर देखा कि दूसरे की दुकानदारी कुछ ज्यादा ही चल रही है तो मिलावट यानि झूठ का सहारा लिया। मिलावट ये कहकर शुरू की कि आटे में नमक के बराबर मिलावट करनी ही पड़ेगी, तभी व्यवहार चलेगा। देश की एक प्रसिद्ध धार्मिक नगरी का सच्चा प्रसंग है, वहां का नाम जानबूझकर नहीं लिखना चाहता। वहीं के एक बड़े संत ने मुझे बताया था। उस नगरी में आने वाले तीर्थ यात्री वहां से तुलसी की माला बहुत खरीदते हैं। लेकिन उस पूरी नगरी में तुलसी के नाम पर सब नकली मालाएं मिलती हैं। लेकिन उस माला का सबसे ऊपर वाला मनका असली तुलसी का होता है। महाराज जी ने बताया कि नगरी के दुकानदार तुलसी के उस एक मनके को पकड़कर नगरी के ईष्ट देव की कसम खाते हैं और ग्राहक को विश्वास दिलाते हैं कि माला तुलसी की ही है। इसे कहते हैं स्मार्ट मार्केटिंग। ऐसा ही हाल अमूमन पूरे देश का है। शुद्धता केवल लिखने और दिखाने के लिए है। नकली और दोयम दर्जे के माल को भी दुकानदार खूबसूरती के साथ बेच रहे हैं। मिट्टी से लेकर सोने तक सबमें मिलावट है। अब तो लगता है जहर में भी मिलावट आ रही है। पिछले दिनों मेरठ के एक गांव में जाना हुआ तो वहां के लोग आपस में बात कर रहे थे कि फलां की बहू ने सेलफाॅस की पूरी शीशी गटक ली, अस्पताल ले गए और वो बच गई। गांव के लोग तो इसे डाॅक्टरों की कुशलता बता रहे थे, लेकिन मुझे लगता है कि जहर में ही मिलावट होगी। अब तो न जीना आसान रह गया है और न मरना।

मिलावटी सामान को मिलावटी बातों के साथ दुकानदार किस तरह बेचते हैं, इसका नमूना हम रोजमर्रा की जिंदगी में देखते ही हैं। दुकानदारों के कई फेवरेट डायलाॅग हैं जो वे हर ग्राहक के सामने मारते मसलन- ‘‘ये तो आपके लिए ही इतने कम रेट लगा दिए हैं वरना तो ये महंगा आइटम है’’, क्यों जी हम आपके दामाद लगते हैं क्या?, ‘‘अरे भाई साहब इतना मार्जिन कहां है जितना आप सोच रहे हो, बस एक आध रुपया कमाना है’’ क्यों यहां बैठकर आप तीर्थाटन कर रहे हो क्या?, ‘‘अरे साहब इसमें कोई प्राॅफिट नहीं है, जितने का आया है उतने का ही दे रहे हैं’’ क्यों आपने बाबा जी का लंगर खोल रखा है क्या?

इस तरह के जुमले दुकानदार अपने यहां आने वाले हर ग्राहक पर इस्तेमाल करते हैं। मार्केटिंग वालों के बीच तो ये कहावत भी है कि आपका हुनर तब है जब आप गंजे को कंघा बेच दो। लेकिन अगर इतनी बातें न बनाकर सीधे-सीधे ईमानदारी से अपना माल बेचें तो कहीं ज्यादा ठीक है। इस तरह की करतूतों से तो लोगों का आपसी विश्वास की कम होता है। ईमादारी की दुकानदारी को जमने में थोड़ा वक्त जरूर लगेगा लेकिन अगर एक बार जम गई तो लंबी चलेगी। इस बात को वे लोग अच्छी तरह जानते हैं जो खानदानी बिजनेसमैन हैं। जो नौसिखिए हैं वो जल्दी से जल्दी दो और दो पांच करने में लगे रहते हैं।

रविवार, 3 अप्रैल 2011

कमऑन इंडिया! यूँ ही जारी रखो बड़े सपने देखने का सिलसिला



‘‘ये हौसले की कमी ही तो थी जो हमको ले डूबी, वरना भंवर से किनारे का फासला ही क्या था...’’ विश्व कप के फाइनल मैच में भारतीय क्रिकेट टीम ने ये बात सिद्ध कर दी कि अगर हौसले बुलंद हों तो नामुमकिन को भी मुमकिन किया जा सकता है। 1983 में विश्वकप जीतने के बाद से भारत लगातार वो इतिहास दोहराने की कोशिश कर रहा था, लेकिन लगातार उसको असफलता ही मिल रही थी। लेकिन उन असफलताओं का न तो हमारी टीम पर और न हमारे देश के लोगों पर कोई असर पड़ा। हर हार के बाद हम झल्लाते थे, गाली बकते थे, अपनी टीम को कोसते थे और फिर नाॅर्मल हो जाते थे। हमने कभी अपने जोश को कम नहीं होने दिया। वल्र्ड कप न जीत पाने के बावजूद देश में क्रिकेट के प्रति दीवानगी लगातार बढ़ती रही। और इस हद तक बढ़ी कि क्रिकेट एक अलग धर्म बन गया। हर विश्वकप में हम अपनी टीम का जोश बढ़ाते थे, उम्मीदें जगाते थे कि इस बार सपना साकार कर दो और देश को विश्वकप दिला दो। ये उम्मीदें भी लोगों में यूं ही नहीं जगी थीं। 1983 के वल्र्ड कप में उस अप्रत्याश्ति जीत के बाद लोगों में ये विश्वास आ गया था कि हम में पूरे विश्व से लोहा लेने का दम है। बस हमें अपने हौसले बुलंद रखने की जरूरत है।

और हमारे बुलंद हौसले आखिरकार कल रंग लाए जब 2 अप्रैल 2011 को भारत ने फिर से 1983 का इतिहास दोहरा दिया। 121 करोड़ भारतीयों का सपना आखिरकार साकार हो गया। इस सपने को साकार करने में भले ही हमें 28 सालों का संबा समय लगा, लेकिन हमारे धैर्य, हमारे जज्बे और हमारे हौसले की दादा देनी ही पड़ेगी। मेरे एक मित्र के मित्र ने उनको फोन किया और कहा कि अगर आज भारत नहीं जीतती तो मैं ये मान लेता कि मेरे जीते जी इस देश में विश्व कप नहीं आएगा। उनके इस वाक्य में आशा और निराशा एक साथ झलक रही थी। ऐसी ही आशा और निराशा प्रत्येक भारतीय मन में उठ रही थी। कल अगर विश्वकप भारत के पास नहीं आता तो लोगों को बहुत बड़ी निराशा हाथ लगती, हम फिर अपनी टीम को कोसते, लेकिन फिर से 2015 के लिए उम्मीदों बांध लेते।

इस जीत पर सचिन तेंदुलकर से ज्यादा खुशी शायद की किसी को हो रही हो। जिंदगी के 37वें पायदान पर खड़े सचिन का ये सातवां वल्र्ड कप था। सचिन का 2015 वाला विश्वकप खेलना मुश्किल माना जा रहा है। इस लिहाज से ये विश्वकप जीतना बेहद जरूरी था। इस जीत से सबसे बड़ा सबक यही मिलता है कि हमें कभी मन से हार नहीं माननी चाहिए। अपनी इच्छाओं और सपनों को कभी मरने नहीं देना चाहिए। किसी शायर ने कहा है न कि बहुत खतरनाक होता है सपनों का मर जाना... । सपने अगर जीवित हैं तो वे एक न एक दिन सच होकर ही रहेंगे। ये बात कल के फाइनल मैच में सिद्ध हो गई। इसलिए सपनों को नहीं मरने देना है। हारों से निराश नहीं होना है। जय हिंद!!!!  

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...