एक दौर था जब भारत एक गरीब देश था, और उसके नेताओं के पास लोगों को देने के लिए सिर्फ आश्वासन और वादे थे। भाषण देते वक्त वे खुद भी जानते थे कि वादों को पूरा कर पाना संभव नहीं। लेकिन अब देश की स्थिति इतनी कमजोर नहीं है। देश के आर्थिक हालातों में बेहद सुधार आया है। इन्हीं सुधारों के आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना संजोया था। मगर बीच में यूपीए के दस सालों में ये सपना कहीं खो सा गया। इतनी बेहतरीन परिस्थितियों में भी अगर आज नेता अपने वादों को पूरा नहीं करते हैं तो इसका मतलब है कमजोर इच्छाशक्ति और खराब नियत। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की तूफानी जीत ने पूरे देश में एक नया आत्मविश्वास भरा है, एक नई उम्मीद जगाई है। स्वयं मोदी ने अपने भाषणों में जो विजन पेश किया है उनसे सुधार आने की संभावना जगी है। जिस तरह मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए तमाम संगठनों ने एकजुटता के साथ काम किया उसी तरह अगर भारत को सचमुच विश्वगुरू बनाना है तो उसके लिए समाज के हर वर्ग को एकजुटता के साथ काम करना होगा और सबसे पहले खुद को बदलना होगा।
बदलाव का समय, राह नहीं आसानः स्वामी विवेकानंद से लेकर श्री राम शर्मा आचार्य तक कई मनीषियों ने इस बात की घोषणा की थी कि 2011 के बाद भारत में बड़े परिवर्तन आएंगे और भारत विश्व गुरू बनकर उभरेगा। 2010 से भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए तमाम आंदोलनों के साथ इन बदलावों की शुरुआत हुई। भाजपा की जीत होगी इस बात को लेकर सब आश्वस्त थे, लेकिन इतना प्रचंड जनादेश मिलेगा इसका अनुमान भाजपा को भी नहीं था। इस जबरदस्त जीत के पीछे मोदी की मेहनत के साथ-साथ ईश्वर की कृपा भी दिखती है। अच्छी बात ये है कि मोदी अब तक देश के अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह बड़ी-बड़ी बातें करने के बजाय छोटी-छोटी बातें लोगों को समझा रहे हैं, जो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी हैं। उन्होंने लोगों से साफ-सफाई पर ध्यान देने का आह्वान किया है, उन्होंने सरकारी कर्मचारियों से मन लगाकर काम करने की बात कही है, उन्होंने गंगा में गंदगी न फेंकने की अपील की है। अमूमन एक प्रधानमंत्री स्तर का व्यक्ति इस तरह की बातें नहीं करता था। मोदी को इस चुनाव में केवल जनसमर्थन ही नहीं मिला जनश्रद्धा भी मिली है। अपने जुझारू व्यक्तित्व के चलते वो लोगों के बीच श्रद्धा का पात्र बनते जा रहे हैं। जितने आरोप मोदी पर लगे, जितनी उंगलियां उन पर उठाई गईं, जितना द्वेष उनके प्रति फैलाया गया यदि किसी दूसरे के खिलाफ फैलाया गया होता तो वो कब का खत्म हो जाता। लेकिन मोदी खुद को मजबूत और मजबूत करते गए। आज उनके विरोधियों के मुंह पर ताले जड़ गए हैं। उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि अब कौनसा हथियार चलाएं। बहरहाल, मोदी ने अब तक जिस तरह लोगों से सीधा संवाद स्थापित किया है, उसको प्रधानमंत्री के तौर पर भी जारी रखने की जरूरत है। किसी ऊंचे पद पर बैठकर लोगों से कट जाना सबसे बड़ी भूल होती है। दूसरी ओर मोदी को पार्टी के भीतर भी सादगी और जनसेवा का भाव जगाना होगा। फाइव स्टार कल्चर एक बार पहले भी भाजपा को भारी पड़ चुका है। देश की मिडिल क्लास जनता को ये कतई गले नहीं उतरता कि उनका जनप्रतिनिधि हाई प्रोफाइल जिंदगी में मस्त रहे।
एमपी नहीं पीएमः मोदी को अपने सभी सांसदों को भी ये अहसास दिलाना होगा कि कि उन्हें एमपी नहीं बल्कि अपने क्षेत्र के पीएम की तरह काम करना है। अधिकांश सांसद जीतने के बाद न्यूनतम जनसंपर्क करते हैं। जिस तरह का जनसंपर्क वो चुनाव के दौरान करते हैं उसका आधा भी अगर वो पांच साल तक करते रहें तो संसदीय क्षेत्र की तस्वीर बदल जाए। हर सांसद अगर अपने क्षेत्र के लोगों के साथ मिलकर वहां की समस्याओं को एक-एक करके सुलझाने का बीड़ा उठाए तो बड़े बदलाव आ सकते हैं। लेकिन होता इसके उलट है, सांसद महोदय बाहर जाने के बजाय घर पर जनता दरबार लगाते हैं, फिर दिन में निमंत्रण निबटाना, कहीं फीता काट दिया, तो कहीं नारियल तोड़ दिया, स्थानीय अखबार में रोज फोटो छप जाए इसका जुगाड़ करना, अमूमन इसी सबको राजनीति समझा जाने लगा है। राजनीति का मतलब लाल बत्ती, अर्दली, गनर, माइक, भाषण, सफेद गाड़ी, खादी का कुर्ता पयजामा ये सब बनकर रह गया है। जबकि देश अब नई किस्म की राजनीति चाहता है।
करियर नहीं सेवाः अधिकांश पार्टियों का ये हाल है कि स्थानीय नेता राजनीति को करियर की तरह लेते हैं। उनको अपने पीछे सत्ता की ताकत चाहिए, थाने कचहरियों में सुनवाई हो सके ऐसी हनक चाहिए, एक सामाजिक सुरक्षा चाहिए। उसी उद्देश्य को लेकर सबसे पहले व्यक्ति किसी पार्टी का कार्यकर्ता बनने की कोशिश करता है, कार्यकर्ता बनते ही टिकट पाने की कोशिश करता है, टिकट मिलते ही मंत्री बनने की जुगत भिड़ाता है और मंत्री बनते ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर टिका देता है। इस सबके बीच जो सामाजिक बदलाव का मूल काम है वह पीछे छूटता चला जाता है। जरूरत इस बात की है कि स्थानीय नेताओं का काम सुनिश्चित करना होगा। सरकार का मुखिया कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर उसकी बनाई योजनाओं का लाभ जिला स्तर तक नहीं पहुंच पा रहा, तो लोगों का रोष लाजमी है। संगठन को जिला स्तर पर मथने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, क्योंकि लोगों से सीधा जुड़ाव वहीं से बनेगा। जिला कार्यकारिणी का विजिनरी होना बेहद जरूरी है। इस दिशा में भाजपा को ही नहीं बाकी पार्टियों को भी काम करना चाहिए।
कांग्रेस को सबकः कांग्रेस को जनता ने इस बार जबरदस्त सबक सिखाया है। कुछ लोग इसे बाबा रामदेव का श्राप भी कह रहे हैं। जिस तरह चाणक्य ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए चंद्रगुप्त के माध्यम से मगध का सिंहासन हिला दिया था, उसी तरह रामलीला मैदान में हुए अपने अपमान के बाद रामदेव ने भी कांग्रेस को सत्ता-विहीन करने का संकल्प ले रखा था। खैर, भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद इस तरह के तमाम प्रसंग फेसबुक और लोगों के बीच चर्चा का विषय बने हुए हैं। लेकिन इतनी बड़ी ऐतिहासिक हार के बाद कांग्रेस का पुनःउत्थान किस प्रकार हो ये पार्टी के समक्ष एक यक्ष प्रश्न है।
योजनाएं हैं योजनाओं का क्या: कांग्रेस के हार के पीछे सबसे बड़ा कारण उसके भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और वे तमाम विफलताएं हैं जिनकी वजह से भारत को बदनामी झेलनी पड़ी। आलम ये था कि अगर सुप्रीम कोर्ट, मीडिया और सामाजिक संगठनों ने सक्रिय भूमिका न निभाई होती तो न जाने स्थिति कितनी भयावह होती। इसमें कोई दो राय नहीं सोनिया और राहुल गांधी की पार्टी के अंदर जबरदस्त पकड़ है और उनके शब्द ही अंतिम माने जाते हैं, लेकिन सोनिया और राहुल ने अपनी ये ताकत खुद के मंत्रियों के भ्रष्ट क्रियाकलापों को रोकने में इस्तेमाल नहीं की। अगर राहुल और सोनिया सही सोच के साथ चाह लेते तो मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती थी, लेकिन प्रतीत ऐसा हो रहा था मानो उन्होंने पार्टी नेताओं को खुला हाथ दे रखा है। कांग्रेस से ‘खाओ और खाने दो’ की नीति की बू आ रही थी। राहुल गांधी अपनी रैलियों में जिन कानूनों और योजनाओं की बार-बार बात कर रहे थे, वे लोगों के गले नहीं उतर रहे थे। क्योंकि योजनाएं बनाना एक बात है और उनको जमीन पर उतार कर दिखाना दूसरी। लोगों को पता था कि सारी जनकल्याणकारी योजनाएं अंततः भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। देश को व्यवस्था परिवर्तन चाहिए कानून परिवर्तन नहीं। छद्म धर्मनिर्पेक्षता के नाटक ने भी बहुसंख्यक समाज को कांग्रेस से खासा नाराज किया। खुद अल्पसंख्यकों को भी स्पष्ट नजर आने लगा था कि धर्मनिर्पेक्षता का राग अलाप कर कांग्रेस केवल माइनोरिटी कार्ड खेलती है और उसमें सचमुच अल्पसंख्यकों के कल्याण की भावना नहीं है।
महात्मा गांधी की शरण में कल्याणः कांग्रेस को वर्तमान परिस्थितियों में केवल एक शख्स बचा सकता है और वह है महात्मा गांधी। कांग्रेस सालों से गांधी का नाम तो इस्तेमाल करती आई है, लेकिन उनका अनुसरण लेशमात्र भी नहीं दिखता। पार्टी कार्यकर्ताओं में सेवा भाव और देश प्रेम से ज्यादा पद प्रेम दिखता है। हाई प्रोफाइल कल्चर और लोगों से दूरी बनाकर रखना भी हार का कारण है। प्रचार के दौरान भी पार्टी के स्टार प्रचारक कार्यकर्ताओं के घर में ठहरने के बजाय होटलों में ठहरना पसंद करते हैं। जबकि महात्मा गांधी की कांग्रेस में कार्यकर्ताओं को संगठन चलाने और लोगों की सेवा करने के लिए विशेष ट्रेनिंग दी जाती थी। कांग्रेस सेवा दल के कार्यकर्ता पूरे जोश के साथ लोगों के सुख-दुख में खड़े रहते थे। लेकिन आज की कांग्रेस में सेवा दल को सबसे कम तवज्जो दी जाती है।
अध्ययन अवकाशः राहुल गांधी को कुछ महीने तक केवल महात्मा गांधी के साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। महात्मा ने भारत के विकास के लिए जिस तरह का माॅडल दिया था उसको वर्तमान परिस्थिति में किस प्रकार उतारा जाए, गांवों को आत्मनिर्भर बनाने और उनका विकास करने के लिए जिस प्रकार का सपना देखा था उसे कैसे साकार किया जाए ये देखना होगा। गांव पलायन की समस्या से बुरी तरह जूझ रहे हैं, गांव के युवाओं में खेती के प्रति अरुचि तेजी से बढ़ रही है, जो खतरनाक संकेत है। राजीव गांधी ने ग्राम पंचायतों को मजबूत करने की दिशा में जरूर गंभीर कदम उठाए लेकिन वे कदम दिल्ली से गांव तक पहुंचते-पहुंचते कुरूप होते गए। ग्राम पंचायत चुनावों ने गांव के सामाजिक तानेबाने को तोड़कर रख दिया है। गांव की घटिया राजनीति वहां के सौहार्द को खाती जा रही है। दूसरी ओर शराब गांव की पहले से खराब अर्थव्यवस्था को और ज्यादा नष्ट कर रही है। जबकि महात्मा गांधी के माॅडल में शराब के लिए बिल्कुल जगह नहीं थी। इस तरह के तमाम मुद्दे हैं जिन्हें कांग्रेस को महात्मा गांधी के चश्मे से देखने की जरूरत है।
आम आदमी पार्टी का भविष्यः कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज में जनजागरण लाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह है अन्ना हजारे का आंदोलन और उनका सत्याग्रह। लेकिन इस आंदोलन से जन्मी अरिवंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सत्ता मिलने पर कोई खास करामात नहीं दिखा पाई। दिल्ली के लोगों ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में अभूतपूर्व परिणाम दिए। गली-मोहल्लों से निकले मामूली आंदोलनकारियों ने पहले से स्थापित मठाधीशों के सिंहासन हिला दिए। लेकिन अरिवंद केजरीवाल अपने 49 दिनों के शासन में पूरी तरह कंफ्यूज दिखे। उन्होंने मीडिया के कंधों का सहारा लेकर सरकार चलाने की कोशिश की। 49 दिनों में एक भी दिन ऐसा नहीं रहा जब दिल्ली में हंगामा न रहा हो और इन हंगामों में गंभीरता कम और ड्रामा ज्यादा नजर आई। चाहे वह बंग्ले का मुद्दा हो, मेट्रो में सफर का मुद्दा हो, जनता दरबार हो, या फिर उनका मफ्लर। पहले से स्थापित संस्थाओं और परंपराओं को तोड़ने की कोशिश की। कई चीजों पर तो एकदम बचकानी जिद दिखाई। अब जब किसी बिल पर चर्चा करने के लिए असेंबली है तो क्या जरूरी है कि जनलोकपाल बिल कुतुब मीनार की छत पर बैठ कर पास किया जाए। हद तो तब हो गई जब उन्होंने देश के गौरव का प्रतीक गणतंत्र दिवस परेड पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर भी उंगलियां उठाईं। दरअसल नकारात्मक राजनीति करते-करते वो खुद को सच्चाई का मसीहा और बाकी सब को चोर साबित करने में जुटे रहे। जब काम करने का वक्त आया तब भी खुद को आंदोलनकारी दिखाने की कोशिश करते रहे। वो मीडिया के माध्यम से खुद को हीरो दिखाने की कोशिश कर रहे थे और मीडिया उन्हें मसालेदार खबरों के लिए इस्तेमाल कर रही थी। जब मीडिया उन पर टाइट हुई तो कहने लगे मीडिया वाले भी चोर हैं और सबको जेल में डलवा दूंगा। जबकि महोदय खुद पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ भगत सिंह के नाम पर इंटरव्यू फिक्स कर रहे थे।
नकारात्मक राजनीति से बचेंः आम आदमी पार्टी को यदि अपना आधार बचाना है तो उसे दूसरों पर कीचड़ उछालने के बजाय कुछ करके दिखाना होगा। उसे विपक्ष के तौर पर अपने लिए एक सकारात्मक भूमिका तलाशनी होगी, जिसमें ड्रामेबाजी कम और गंभीरता ज्यादा दिखे। बड़े पैमाने पर सामाजिक कार्यों को अपनाना होगा। उन क्षेत्रों में काम करना होगा जिन पर अक्सर सरकार नहीं कर पाती। अगर सचमुच अरविंद केजरीवाल देश और समाज को बदलना चाहते हैं तो उसके लिए प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की कुर्सी की कोई आवश्यकता नहीं है, वो बाहर रहकर भी बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। देश में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देकर बड़े-बड़े बदलाव किए जा सकते हैं। चुनावी राजनीति भी करते रहे अगर जनादेश मिले तो गंभीरता से सरकार चलाकर दिखाएं। इतना तो तय है कि देश करवट ले रहा है, आने वाला समय बहुत बड़े बदलावों का समय होगा, उसमें आम आदमी पार्टी अपने लिए क्या भूमिका तय करती है ये उसी को देखना है।