मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

वीआईपी क्रियाकर्म


वीआईपी  ट्रीटमेंट की बीमार लालसा इन्सान के अन्दर आखिर किस हद तक हो सकती है. जीते जी तो इन्सान चाहता ही है कि वो जहाँ भी जाए उसे वीआईपी ट्रीटमेंट मिले. जो जीवन में कभी वीआईपी ट्रीटमेंट का लुत्फ़ नहीं उठा पाते वो भी कम से कम एक बार जरूर उठाते हैं- अपनी शादी के दिन. और अगर ज्यादा ही भूख वाला इन्सान हुआ तो अपने नखरे और तेवर दिखाकर जिंदगी भर के लिए ससुराल में भी वीआईपी ट्रीटमेंट का जुगाड़ कर लेता है.

लेकिन दिल्ली में तो गज़ब ही स्थिति है. लोगों को मरने के बाद भी वीआईपी  ट्रीटमेंट चाहिए. खबर है कि दिल्ली के निगम बोध घाट पर क्रियाकर्म की तीन व्यवस्थाएं हैं- वीआईपी, सेमी वीआईपी और साधारण. मरते-मरते भी मृतक की आत्मा को ये अहसास दिलाना है कि तुम एक साधारण इन्सान थे और साधारण तरीके से मर गए. तुमने इस जीवन में कुछ भी ऐसा असाधारण नहीं किया जो तुम्हारा वीआईपी तरीके से अंतिम संस्कार किया जाए.

संविधान में 'समानता' की तथाकथित व्यवस्था वाले देश में इस तरह का भेद-भाव मनुष्य को पूरे जीवन भुगतना पड़ता है. लेकिन मरने के बाद भी भुगतना पड़े तो ये ज़रा हद की बात है. जन्म के समय अस्पताल में वार्डों का भेद-भाव, स्कूल में एडमिशन के समय भेद-भाव, सड़क पर चलते समय भेद-भाव, सरकारी दफ्तरों में तो चिर-स्थायी भेद-भाव, नौकरी में भेद-भाव और अब मरने के बाद फूंकने में भेद-भाव. धन्य है प्रभो... 

वैसे आरटीआई एक्टिविस्ट एससी अग्रवाल की अर्जी के बाद निगम बोध घाट की सेमी वीआईपी  वाली व्यवस्था अब तोड़ी जा रही है. खबर है कि घाट की व्यवस्था आर्य समाज देखता है और उसी की देखरेख में सेमी वीआईपी  चिता प्लेटफ़ॉर्म बनाये गए थे. जिनको हटाया जायेगा. लेकिन वीआईपी वाली व्यवस्था बनी रहेगी.

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

प्रतिभाएं ढूंढते रह जाओगे!


आज के हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एक नया ट्रेंड दिख रहा है, स्टुडेंट्स बड़ी बड़ी कम्पनियों के मोटे-मोटे प्लेसमेंट ठुकराकर अपनी रूचि के मुताबिक अपने खुद के व्यवसाय शुरू करने को प्राथमिकता दे रहे हैं. स्टुडेंट्स को लुभाने के लिए कम्पनियों की ओर से मोटी रकम का चुग्गा डाला जा रहा है लेकिन तमाम स्टुडेंट्स ऐसे हैं जो इस चुग्गे को चुगने के लिए तैयार नहीं. वो अपने सपनों की दुनिया अपने हिसाब से बुनना चाहते हैं. वो किसी के सिस्टम में बंधकर खुद को बंधुआ नहीं बनाना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि वे नाकारा बनकर रहना चाहते हैं. लेकिन कॉर्पोरेट जगत में चल रही मोटे-मोटे पैकजों की दौड़ में वो शामिल नहीं होना चाहते. सपने उनकी आँखों में भी हैं लेकिन उन सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने ऐसे लोगों का साथ चुना है जो उनको सबसे अच्छी तरह से समझते हैं, यानी उनके अपने दोस्त. दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी के ये नए और जवाँ इंजिनियर अपने दोस्तों संग खुद का बिजनेस शुरू करने की दिशा में कदम बढा रहे हैं. कुछ ऐसा नया काम जो परंपरागत काम से कहीं ज्यादा रोचक हो, क्रिएटिव हो और मन को सुकून देने वाला हो. जहाँ न टार्गेट का टंटा हो और न बॉस का डंडा. जिस काम को करने के बाद जीविकोपार्जन के साथ-साथ जीवन की सार्थकता भी नज़र आये.

व्यक्ति की जीविका का साधन भी कहीं न कहीं दो मौलिक सवालों से जुड़ा हुआ है कि- मैं कौन हूँ? और मैं इस धरा पर किसलिए आया हूँ? जब तक आपका काम आपके जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं करता तब तक वो काम आपको आनंद नहीं दे सकता. आप केवल मशीन की तरह उस काम को करते रहेंगे और नोटों की गड्डियां बनाते रहेंगे. जब किसी दिन थककर  एकांत में बैठोगे तब अचानक कहीं से ये सवाल मन में कौंधेगा कि ये मैं कहाँ चला जा रहा हूँ? और आप इस सवाल का जवाब नहीं दे पाओगे? इस सवाल का जवाब बस यही है कि एक भीड़ चली जा रही थी और मैं भी बिना सोचे-समझे उस भीड़ में शामिल हो गया.

मैंने भी जब पत्रकारिता से जुड़ने का फैसला किया था तब कहीं न कहीं मन में यही भाव था कि पत्रकारिता आम जनमानस की बात कहने का सशक्त माध्यम है. यहाँ मैं उनकी बात उठाऊंगा जो अपनी बात कहीं नहीं उठा पाते. लेकिन पत्रकारिता के अन्दर आकर तो केवल ख़बरों की होड़ और पैसों की दौड़ दिखी. इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को फायदा पहुँचाना नहीं बल्कि अपने मालिक को फायदा पहुँचाना था. मालिक का फायदा करने में चाहे पब्लिक का फायदा हो या नुकसान उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. काम के एवज में दाम मिलने के साथ-साथ संतुष्टि मिलनी भी जरूरी होती है. दोनों में से एक भी न मिले तो मिलती है केवल फ्रस्ट्रेशन. आज के कॉर्पोरेट जगत में जिस तरह से खुद के ही तय किये हुए असंभव टार्गेट अचीव करने की होड़ मची है वो वहां के कर्मचारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है. बाजारू कॉम्पटीशन में आज नंबर एक बनने की होड़ है. इसके लिए चाहे सिद्धांतों से समझौता करना पड़े या अपने कर्मचारियों के हितों के साथ. ऐसे में खासतौर से युवा कर्मियों को  घुटन महसूस होती है. जब तक वे ये सब समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.


किसी को भी सच्ची संतुष्टि तभी मिल सकती है जब उसके प्रयास सच्चाई के आस-पास हों, उसकी अंदरूनी प्रतिभा के आस-पास हो और परहित के आस-पास हो. जिस काम को करने से अपने लिए धन कमाने के साथ-साथ ये भाव भी हो कि मैं कुछ गलत नहीं कर रहा वो काम दीर्घकालिक संतुष्टि दे सकता है. "नौकरी = न-करी" : अगर कमाने के साथ-साथ समाज को भी कुछ देना चाहते हो तो कुछ अपना काम करो, अगर नितांत सच्चाई के मार्ग पर ही चलना चाहते हो तो अपना मार्ग अलग बनाओ. क्योंकि अभी सफलता के जितने भी मार्ग हैं वे सभी झूठ से होकर गुजरते हैं.


दिल्ली टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में ये जो ट्रेंड दिख रहा है वो बेहद सराहनीय है. युवाओं को अब किसी की नौकरी की दरकार नहीं, वो अपना रास्ता खुद बनायेंगे, उनमें इतना दम है कि वे खुद नौकरियों का सृजन करेंगे. जिस तरह हर जगह प्रतिभा की अनदेखी करके चाटुकारों को प्राथमिकता दी जा रही है, उसका परिणाम यही होगा कि एक दिन प्रतिभाएं तलाशे नहीं मिलेंगी, वे सब अपने अलग रास्ते पर चल रही होंगी.

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मुझे ले चल मेरे गांव

मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव,
जहां बाग में कूके कोयल और पीपल की छांव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन मुझे ले चल मेरे गांव।

जहां मातु के अनुशासन में रहती थीं सब बेटी,
सबको नाच नचा देती थी बुढ़िया लेटी-लेटी,
एक आंगन में ही रहते थे मिलकर सारे भाई,
प्रेम की डोरी इतनी मोटी कभी न पनपे खाई,
घर का मुखिया शान से देता था मूंछों पर ताव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

लाज का घूंघट करके बहुएं जब घर से चलती थीं,
देख उन्हें बूढों की नजरें खुद-ब-खुद झुकती थीं,
सभी बुजुर्गों का गांव में बहुत अदब था होता,
ऊंचे बोल नहीं दादा से कह सकता था पोता,
शहर से मुझको जल्दी ले चल मन नहीं पाता ठाव,
मुझे ले चल मेरे गांव रे मन...

खाली वक्त में बैठ के बाबा जब रस्सी बटते थे
सूरज की किरणों से पहले लोग सभी उठते थे,
पेड़ों से छनकर आती थी कूह-कूह की बोली,
टेसू के फूलों को मलकर खेली जाती होली,
फिर मुझको उस रंग में ले चल पडू मैं तेरे पांव,
मुझे ले चल मेरे गांव...

घर की छत पर रखते थे मिट्‌टी के खेल खिलौने,
गिल्ली डंडा संग कंचे सावन के झूल झुलौने,
चार आने में मिल जाती थी मीठी मीठी गोली
दस पैसे में भर जाती थी खीलों से ये झोली
गुड की भेली मोटी मिलती एक रुपए की पाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

हरियाली के बीच बसा था सहज सरल सा जीवन,
जल्दी सोना जल्दी उठना स्वस्थ खुशी का उपवन,
धुआं तो मेरे आंगन में भी चूल्हे से उठता था,
शहर की सडकों के जैसा कभी न दम घुटता था,
दिल्ली का प्रदूषण तो दिल पर देता है घाव
मुझे ले चल मेरे गांव...

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

मठाधीश होने के मायने!

"राम राज्य में प्रजा सर्वोपरि थी. प्रजा का कार्य राजा की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. राजा राम राज भवन में आकर हर रोज लक्ष्मण को आज्ञा देते कि देखो लक्ष्मण द्वार पर कोई कार्यार्थी तो नहीं आया है. लेकिन राम राज्य में व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि लोगों को काम लेकर राजा के पास आने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर रोज लक्ष्मण बाहर जाकर देखते और लौटकर यही जवाब देते कि द्वार पर कोई भी नहीं है. एक बार लक्ष्मण जब बाहर देखने गए तो उनको एक कुत्ता दिखा, जिसके माथे से रक्त बह रहा था और वो लक्ष्मण की ओर ही देख रहा था. लक्ष्मण ने उससे पूछा कि उसको क्या काम है, तो कुत्ते ने कहा कि वह अपनी बात राजा राम से ही कहना चाहता है. लक्ष्मण ने ये बात राज सभा में जाकर बताई तो राजा राम ने तुरंत उस कुत्ते को अन्दर बुलवाया.


राम ने उससे पूछा कि उसकी ये हालत किसने की है तो उसने बताया कि- नगर में सर्वार्थसिद्ध नमक एक विद्वान भिक्षु है तो ब्राह्मणों के घर में रहता है उसने अकारण ही मुझ पर प्रहार किया है. मैंने उसका कोई अपराध नहीं किया था. राजन आप मुझे न्याय दें.

कुत्ते की बात सुनकर राम ने एक द्वारपाल को भेजकर सर्वार्थसिद्ध नाम के उस भिक्षु को बुलवा लिया. राजा राम ने उस भिक्षु से पूछा कि- तुमने अकारण ही इस कुत्ते पर क्यों प्रहार किया. तब उस भिक्षु ने जवाब दिया कि महाराज मेरा मन क्रोध से भर गया था इसलिए मैंने इसे डंडे से मारा. भिक्षा का समय बीट चुका था तब भी भूखा होने के कारण मैं भिक्षा के लिए दर दर घूम रहा था. ये कुत्ता बीच रस्ते में खड़ा था. मैंने बार बार कहा कि मेरे रस्ते से हट जाओ, लेकिन ये अपनी ही चाल में मस्त चला जा रहा था. भूख के कारण क्रोध आ गया और मैंने इस पर प्रहार कर दिया. मैं अपराधी हूँ आप मुझे दंड दीजिये. राजा से दंड पाकर मेरा पाप नष्ट हो जायेगा.

तब राम ने अपने सभासदों से पूछा कि इस भिक्षु को क्या दंड दिया जाए क्योंकि दंड का सही प्रयोग करने पर ही प्रजा सुरक्षित है. राम की राजसभा में उस समय बहुत से विद्वान मौजूद थे उन सभी ने मंथन करने के बाद राजा से कहा कि- महाराज ब्राह्मण दंड द्वारा अवध्य है. उसको शारीरिक दंड नहीं मिलना चाहिए, यही शास्त्रों का मत है. लेकिन राजा सबका शासक होता है.

उन सबकी ऐसी मंत्रणा सुनकर उस कुत्ते ने कहा कि महाराज आपने प्रतिज्ञापूर्वक मुझे न्याय देने की बात कि है. अगर आप मुझ से संतुष्ट हैं और मेरी इच्छानुसार वर देना चाहते हैं तो मेरी बात सुनिए. आप इस ब्राह्मण को मठाधीश बना दीजिये. इसको कालंजर में एक मठ का आधिपत्य प्रदान कर दीजिये.

राम ने तुरंत उस ब्राह्मण को मठाधीश घोषित कर दिया. वह ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और हाथी की पीठ पर बैठाकर उसको वहां से विदा किया गया.

तब राम के मंत्रियों ने मुस्कुराते हुए पूछा कि महाराज ये दंड था या पुरस्कार. इसपर राम ने कहा कि कर्मों की गति बड़ी गहरी और न्यारी है, किस कर्म का क्या नतीजा भोगना पड़ता है इसका तुमको नहीं पता ये इस कुत्ते को पता है. फिर श्री राम के पूछने पर उस कुत्ते ने पूरी सभा के समक्ष बताया- रघुनन्दन मैं पिछले जन्म में कालंजर के मठ में मठाधीश था और धर्मानुकूल आचरण करता था. मुझे ज्ञात नहीं मैंने पद पर रहते हुए कोई धर्म के प्रतिकूल कर्म किया हो. लेकिन फिर भी मुझे ये घोर अवस्था और अधम गति मिली. तो सोचिये ये ब्राह्मण जो इतना क्रोधी है, धर्म छोड़ चुका है, दूसरों का अहित करता है, क्रूर, कठोर, मूर्ख और अधर्मी है, ये तो अपने साथ ऊपर और नीचे की सात पीढ़ियों को भी नर्क में गिरा देगा."

ये प्रसंग अचानक मुझे वाल्मीकि रामायण में मिल गया. मुझे लगा कि इसको लिखना बहुत जरूरी है. आज जहाँ देखो मठाधीशों का बोलबाला है. तमाम संस्थाओं के मुखिया बने बैठे लोग एक तरह से मठाधीश ही तो हैं. पत्रकारिता में तो ये शब्द खासतौर से विद्यमान है. महर्षि वाल्मीकि ने इस प्रसंग के माध्यम से बहुत सरल तरीके से समझा दिया है कि मठाधीश होने के क्या मायने

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे हैं!

टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया, पोलिटिक्स, कॉर्पोरेट और दलालों का गठबंधन खुलकर सामने आ गया. किसी एक दल, किसी एक कॉर्पोरेट हाउस और किसी एक पत्रकार पर ऊँगली उठाने से काम नहीं चलेगा, यहाँ पूरे कुएं में भांग घुली है. कस्बाई पत्रकारिता से लेकर राष्ट्रीय पत्रकारिता तक दलाली का खेल जमकर खेला जाता है. मीडिया हाउस में भर्ती  के वक़्त भी मालिक इस बात का ख्याल रखता है कि अच्छे काम करने वालों के साथ साथ अच्छे सेटर्स भी भर्ती करने जरूरी हैं. आड़े समय में अच्छे काम करने वाले कम काम आते हैं, उस वक़्त तो केवल सेटर्स ही काम बनाते हैं. 

मैं भी पत्रकारिता के शुरू के दिनों में आदर्शों की बड़ी दुहाई देता था. एक बार श्याम भाई साहब के सामने भ्रष्टाचार को गरियाना लगा तो उन्होंने कहा कि तुम जो बार-बार भ्रष्ट लोगों को गरियाते हो तुमको नहीं लगता कि भ्रष्ट लोग तुम से ज्यादा समझदार हैं और तुमसे ज्यादा मेहनत करते हैं. मैंने कहा ऐसा क्यों? तो वो बोले कि सीधे-सीधे तो कोई भी चल लेता है, तारीफ तो तब है जब आप टेढ़े चलो और गिरो भी नहीं. भ्रष्ट लोग नियमों को इतनी खूबसूरती से तोड़ते हैं कि किसी को कानों कान हवा भी नहीं लगती. दस में से एक पकड़ा जाता है और जो पकड़ा जाए वही चोर बाकी सब शाह.

ऐसा नहीं था कि श्याम भाई साहब को भ्रष्ट लोगों से कोई विशेष प्रीती थी, लेकिन वो मुझे व्यावहारिक सच्चाई समझा रहे थे. श्याम भाई साहब अपनी जगह सही थे. भ्रष्ट लोग इमानदार लोगों से काफी स्मार्ट होते हैं और आत्मविश्वासी भी. न केवल सारे कायदे कानूनों को अपनी जेब में रखते हैं बल्कि नियमों का इतना गहरा अध्ययन करते हैं कि नियम भी टूट जाए और नाम भी न आयेआज जब फिर से तमाम घोटाले खुल रहे हैं तो मुझे फिर श्याम भाई साहब की बात याद आ रही है.

२ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तमाम लोग फंसते नज़र आ रहे हैं. राजनीति तो हमेशा से ही घोटालों और भ्रष्टाचार के केंद्र में रही है, लेकिन इस बार दूसरों को आइना दिखाने वाली मीडिया से लेकर नामी कॉर्पोरेट हाउस भी इसकी चपेट में हैं. मंत्रिमंडल में किस तरह जगह बनाई जाती है, ठेके कैसे मिलते हैं, दल्लों की कितनी अहम् भूमिका है, ये सब समझने का एक अच्छा मौका है. विपक्ष को बैठे बिठाये मसाला मिल गया है. भ्रष्टाचार से जो नुकसान हुआ सो हुआ अब संसद को ठप्प  कर के दूसरा नुकसान किया जा रहा है. इस देश में विपक्ष का एक रटा-रटाया ढर्रा है. सहो हो या गलत उसको हर कीमत पर सत्ता दल की निंदा करनी हैखुद को इस तरह पेश करना है कि हम से ज्यादा दूध से धुला पूरी धरती पर कोई नहीं. जबकि असलियत यही है कि पक्ष और विपक्ष दोनों ही एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं.

सच्चाई ये है कि भ्रष्टाचार और सदाचार में बेहद बारीक़ रेखा है. सही चश्मा लगाकर देखा जाए तो हर इन्सान किसी न किसी रूप में भ्रष्ट है. कोई चरित्र से भ्रष्ट है तो कोई व्यक्तित्व से. कोई धन के सामने नतमस्तक तो कोई पद के तो कोई तन के. अगर बुराई ही देखने निकल पड़ें तो किसी का भी बच पाना मुश्किल है. लेकिन जब आपका आचरण ज्यादा बड़े स्तर पर नुकसान पहुँचाने लगे तो मसला गंभीर हो जाता है.

शायद इसीलिए कहा जाता है कि चम्बल के डकैत संसद के डकैतों से कहीं ज्यादा बेहतर हैं. चम्बल के डकैत खुलकर स्वीकार तो करते हैं कि हम डकैत हैं, लेकिन संसद के डकैत खुद को सफ़ेद रंग में ढक कर जनता का सेवक कहते हैं. कथनी- करनी का इतना बड़ा अंतर ही सारी समस्या की जड़ है. हम बात देश के आम आदमी की करते हैं, लेकिन लाभ देश के खास आदमी को पहुंचाते हैं. आम आदमी के बीच हम चुनाव के वक़्त पांच मिनट के लिए जाते हैं और बाकी के पांच साल ख़ास आदमी के साथ गल बहियाँ करते हैं. सच्चाई यही है. वरना देश का आम आदमी इतनी महंगाई न झेल रहा होता. आम आदमी पर बिना बोझ बढ़ाये जब रेलवे मुनाफा कम सकता है, तो दूसरे मंत्रालय क्यों नहीं.

जब तक राजनीति को कॉर्पोरेट घरानों से चंदे की दरकार रहेगी तब तक आम आदमी के बारे में सरकार सोच ही नहीं पाएगी. करोड़ों के चुनावी खर्च को घटाकर जब तक हजारों में नहीं किया जायेगा तब तक कॉर्पोरेट घराने राजनीति कि नीतियाँ तय करते रहेंगे. जब तक महामहिम नेताजी उद्योगपतियों के निजी हेलीकाप्टर का मोह त्याग कर धरातल पर उतर कर चुनाव प्रचार नहीं करेंगे तब तक मंत्रिमंडल के चेहरे प्रधानमंत्री की जगह उद्योगपति ही करते रहेंगे. मीडिया और राजनीति का सीधा सा सिद्धांत है- जिसका खाते हैं, उसका गाते हैं. इसलिए मुझे लगता है कि इतना हंगामा उतारने की जरुरत नहीं है. राजा साहब ने उच्चतम राजनितिक परम्पराओं का निर्वहन किया है. उनसे गलती बस इतनी हो गयी है कि उनकी बात खुल गयी, वरना ९० प्रतिशत राजनीतिज्ञ इन्हीं परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं. और इन परम्पराओं पर विराम लगाना बेहद कठिन है.

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मौतों का हिसाब देना आसान है, पैसों का हिसाब देना बहुत मुश्किल...

फिर वही खून का मंजर, फिर वही अफरा-तफरी और फिर वही शब्दों के हेर-फेर.  आतंकी बनारस में एक बार फिर सफल रहे और हम एक बार फिर विफल हुए. एक बार फिर हमने खुद को झूठी तसल्ली दी. एक बार फिर हमने शब्दों के मल्हम लगाये.  

वो इतने सक्षम हैं हर बार सफल हो जाते हैं, हम इतने अक्षम हैं की हर बार विफल हो जाते हैं. वे इतने बेशर्म हैं कि बार बार अपनी हरकत दोहराते हैं और हम बेहया और बेशर्म दोनों हैं कि हर बार विफल होने के बावजूद बातें बनाते हैं. दिल्ली में बैठे लोगों को घटना का बड़ा दुःख है, लखनऊ में बैठे लोग इसे दिल्ली की विफलता बता रहे हैं, दिल्ली वाले कह रहे हैं कि हमने पहले ही आगाह कर दिया था. लेकिन फिर भी देश कि लोगों को ये समझ नहीं आता कि तुम साले न तो दिल्ली की जिम्मेदारी में आते हो और न लखनऊ की. तुम अपनी जिम्मेदारी खुद उठाओ, या फिर अपने माँ बाप से पूछो कि उन्होंने तुमको पैदा क्यों किया. क्या जरुरत थी तुमको इस दुनिया में लाने की. तुम्हारे माँ बाप ने तुमको अपने स्वार्थ के लिए पैदा किया तो फिर तुम सरकार की जिम्मेदारी कैसे हुए भला. अब मरो सालों कुत्ते-बिल्लियों की तरह.

तुम लोग आये दिन यूँ ही मरते रहते हो और दिल्ली वालों को दुखी होने के लिए वक़्त निकालना पड़ता है. बातों के परदे में चीज़ों को ढकने की कोशिश करने पड़ती है. बार बार आतंकियों को कायर कहकर पुकारना पड़ता है, इसके अलावा कोई शब्द मिल ही नहीं पा रहा है. कुछ नहीं तो ये कहकर अपनी खीज मिटाई जाती हैं कि देखो बनारस पर कोई असर नहीं पड़ा, बनारस अब भी वैसा ही है, वहां कि लोग कितने हिम्मती हैं, जिंदगी एक घंटे में ही पटरी पर लौट आई. खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे. तंत्र मंत्र के भरोसे २४ घंटे काट रही मीडिया को भी बढ़िया माल मिल जाता है. अब कुछ दिन बॉलीवुड कलाकारों की निजी जिंदगी में झाँकने की जरुरत नहीं पड़ेगी.  तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को ये लगने लगता है कि देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है. उन्हें मौतों का गम कम और सांप्रदायिक सौहार्द की चिंता ज्यादा सालती है. लेकिन बेचारे करें भी क्या बातें बनाने के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता. आखिर बातें बनाने के अब मौके भी तो कम मिलते हैं. इसलिए कुछ कुछ समय के अन्तराल पर पब्लिक का मरना बड़ा जरुरी है. कितने सारे लोगों को बैठे बिठाये काम मिल जाता है.

इन खोखली बातों में कितना दम है, ये तो ज्यादातर लोगों को पता ही है. लेकिन ये झूठ का पुलिंदा हर बार काम आता है. हम इस पुलिंदे को हर वक़्त तैयार रखते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि मौतों का ये कारवां रुकने वाला नहीं है. क्योंकि हम खुद नहीं चाहते कि ये कारवां रुके.  ये खुनी कारवां अगर रुक गया तो जनता दूसरी चीज़ों की तरफ ध्यान देने लगेगी. उसकी मांगें बढ़ने लगेंगी. इसलिए भलाई इसी में है कि जनता इन्हीं सब चीज़ों में उलझी रहे. मौतों का  हिसाब देना आसान है, पैसे का हिसाब देना बहुत मुश्किल....

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मेट्रो चिंतन: महिलाओं को सीट क्यों दें ?



शम्मी नारंग उवाचः: कृपया महिलाओं, विकलांगों और वरिष्ठ नागरिकों को सीट दें. अगला स्टेशन पुल बंगश है.

इतना सुनना था कि मेरे से एक सीट छोड़कर बैठे महोदय विफर पड़े. "हाँ सब कुछ महिलाओं को ही दे दो, पूरा का पूरा डिब्बा दे दिया अब सीट अलग से चाहिए. नाक में दम कर दिया है. पुरुषों के पास जो पुरुषत्व की निशानी है वो भी महिलाओं को ही क्यों नहीं दे देते."

दिल्ली मेट्रो में दिलशाद गार्डेन से रोहिणी तक की ४५ मिनट की यात्रा में आये दिन ऐसे विचारकों के दर्शन हो जाते हैं, जिनके सहारे ४५ मिनट कब कट जाते हैं पता ही नहीं चलता. लेकिन ये विचारक महोदय महिलाओं को पूरा का पूरा डिब्बा अलॉट कर देने से खासे नाराज़ थे. अपने बगल में बैठे मित्र को बार बार कोहनी मार मार कर सुना रहे थे. देखने में वे दोनों साथी किसी प्राइवेट कंपनी के एम्प्लोई लग रहे थे.

उन्होंने बात आगे बढाई- "अब बताओ यार पूरा एक डिब्बा महिलाओं के लिए अरक्षित कर दिया गया है. तो बाकी के डिब्बे पुरुषों के लिए होने चाहिए. चलो आपका बहुत मन है पुरुषों के बीच बैठने का तो बैठो, लेकिन इन डिब्बों में भी महिलाओं के लिए सीट अरक्षित करना कहाँ की तुक है. वैसे तो छाती ठोक-ठोक कर कहती हैं कि हम किसी से कम नहीं, हम पुरुषों के कंधे से कन्धा मिलाकर चल सकती हैं. दो मिनट खड़े रहने में तो तुम्हारी टांगे दुःख रही हैं, कंधे से कन्धा क्या ख़ाक मिलाओगी."

दूसरा साथी ज्यादा बोल नहीं रहा था बस हाँ में हाँ मिला रहा था- "सही बात है"

"अच्छा! चालाक भी बहुत होती हैं साहब ये लोग. जब डिब्बा खाली होगा तब अपनी रिज़र्व सीट पर नहीं बैठेंगी. लेकिन अगर डिब्बा भरा हो तो इन्हें अपनी सीट पर बैठे पुरुष को उठाने में इतनी संतुष्टि मिलती है कि पूछो मत. एकदम दादागिरी दिखाती हैं. अब जब पूरा डिब्बा अलॉट कर ही दिया है तो भला क्यों तुम मर्दों के बीच घुसती हो. कोई मर्द चला जाये तुम्हारे डिब्बे में तब देखो कैसे हेकड़ी दिखाती हैं."

दूसरा साथी- "सही बात है, हर जगह यही हाल है. "

"अरे हाल क्या दिमाग ख़राब कर दिया है इन लोगों का. अब संसद में और ३३ परसेंट आरक्षण दे दो. हद कर रखी है. या तो बात बराबरी की करो या फिर ये मानो कि तुम पुरुषों से कमजोर हो. तो बात बराबरी की भी करेंगी और खुद को स्पेशल जगह भी चाहिए. हवाई जहाज चलाती हैं, ट्रक चला के दिखाओ तो जानें. अब देखो अपनी इस मेट्रो ट्रेन को भी इस समय एक लड़की ही चला रही है. आपको साफ़ पता चल रहा होगो. ब्रेक तक लगाने नहीं आ रहे. कैसे झटके से रोकती है. ड्राइविंग में तो इन लोगों से भगवान ही बचाए."

दूसरा साथी- "हाँ ड्राइविंग तो बहुत ही ख़राब होती है औरतों की. कार लेकर निकल पड़ती हैं और सड़क पर जाम लगवा देती हैं. "

"और नहीं तो क्या? भाई ये बाकी के तीन डिब्बों में महिलाओं के लिए रिज़र्व सीट ख़त्म होने चाहिए. संविधान में लिख दिया गया है कि देश में लिंग भेद नहीं होना चाहिए, अब बताओ ये लिंग भेद नहीं है तो क्या है. पुरुषों के साथ साफ़ साफ़ लिंग भेद किया जा रहा है कि नहीं."

दूसरा साथी- "हा... हा... हा... सही बात."

"वैसे यार एक बात समझ नहीं आई? औरतों को सबसे आगे का डिब्बा क्यों दिया गया. हर चीज़ में तो ये पीछे हैं, तो पीछे का ही डिब्बा देना चाहिए था. दौड़ते-दौड़ते ट्रेन पकड़ती हैं तो आखिरी डिब्बा ही न हाथ आयेगा."

दूसरा साथी- "हा हा हा..."

इस गहन चिंतन के बीच शम्मी नारंग की आवाज़ फिर गूंजी - "अगला स्टेशन शाहदरा है, दरवाजे बायीं तरफ खुलेंगे. कृपया सावधानी से उतरें". दोनों साथी खड़े हुए और सावधानी के साथ उतर गए बिना किसी महिला से टकराए.

भाई महिलाओं से इतने भरे हुए थे कि अगर उस समय कोई महिला बोल पड़ती तो शायद हाथापाई हो जाती. उनका मेट्रो चिंतन काफी गहरा था. समाज में व्याप्त असमानता पर उनको गहरा दुःख था.

शनिवार, 20 नवंबर 2010

पामेला आंटी: पधारो म्हारे देस

पामेला एंडरसन सरीखे विश्व विख्यात दिग्गजों को उनकी मुंह मांगी कीमत पर भारत में नचाना कई चीज़ों की तरफ इशारा करता है.  

एक तो ये कि भारत की क्रय शक्ति काफी ऊंची हो गयी है. देश अब किसी को भी खरीदने का माद्दा रखता है, खासतौर से क्रिकेट और फ़िल्मी दुनिया में. देखिये न हम अपनी टीम के लिए हमेशा विदेशी कोच खरीदते हैं, आईपीएल में भी हमने दुनिया भर के खिलाडियों को खरीद डाला. मैच के दौरान कूल्हे मटकाने के लिए विदेशी चीयर लीडर खरीदने में भी पीछे नहीं रहे. वैसे राजकपूर ने भी अपनी फिल्म के लिए विदेशी कलाकार चुनी थी, लेकिन वो पामेला जितनी विख्यात नहीं थी. लेकिन इस बार कलर्स चैनल के "बिग बॉस" पर पामेला का आना चार दिन ठहरना ढाई करोड़ की रकम ऐंठना, सलमान के इशारों पर लहंगा पहन कर "मुन्नी बदनाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए" गाने पर नाचना और हिंदी बोलने की कोशिश करना थोडा हटके है. निश्चित तौर पर विदेशियों की नज़र में भारत अब वो भारत नहीं रह गया है जिस से परहेज किया जाए. 

पामेला के आने पर मीडिया ने काफी हो-हल्ला तो किया लेकिन ये उस हो-हल्ले के सामने बिलकुल कम था जो उस साल माइकल जैक्सन के आने पर हुआ था. आम लोगों में पामेला के आने का कोई खास असर नहीं दिखा. लोगों ने इसको आराम से पचा भी लिया. ये भूमंडलीकरण का ताज़ा उदाहरण है. दुनिया सिमट चुकी है.

भारतीय लोग अब विदेशियों को देखकर हैरत में नहीं पड़ते. और रही बात देश की "मॉरल पुलिस" की तो वो भी अब चिल्ला चिल्ला कर थक चुकी है. देश की मॉरल पुलिस जितना चिल्लाती है उतना ही उसको मुंह की खानी पड़ती है. संस्कृति के तथाकथित रक्षक क्यों अपना आधार खो चुके हैं ये उनको खुद देखना होगा. खैर मॉरल पुलिस भी क्या करे जब इस बार बेचारा सूचना प्रसारण मंत्रालय भी "बिग बॉस" के सामने "स्मॉल" नज़र आया और उसका प्रसारण नियत समय पर नहीं रोक पाया.

लिहाज़ा इस नए ट्रेंड के बारे में काफी कुछ कहा भी जा सकता और नहीं भी. ये नयी दौर की हवा है जो घर घर में घुस चुकी है. अब इसी हवा में जीने की आदत डालनी होगी. रही बात आपके बच्चों की तो जितना आप उनको रोकोगे, उतनी ही उनके मन में उस चीज़ को जानने की उत्सुकता बढ़ेगी. सो उनको सलमान अंकल से संग पामेला आंटी के लटके झटके देखने दीजिये. एक नकली दुनिया और उसके अजीब से रिश्तों में जीने दीजिये, जहाँ बात बात पर आंसू टपकते हैं और खुलेपन के नाम पर सबकुछ कैमरे के सामने होता है.

हालाँकि आप सब समझते हैं कि हर चीज़ के पीछे बाज़ार है, लेकिन फिर भी आप उसको समझा नहीं सकते उसका कोई इलाज नहीं कर सकते. क्योंकि अगर आप कुछ करेंगे तो पिछड़ जायेंगे.

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

ओबामा का जय हिंद

ओबामा आये और चले गए. अपने पीछे छोड़ गए हैं वादे, इरादे और यादें. वैसे तो उनकी यात्रा से जुड़ा हर पक्ष हर कोई जान चुका है. मीडिया ने ओबामा की यात्रा का ऐसा चित्रण किया कि हर कोई यही महसूस कर रहा था मानो ओबामा उसके बगल में है खड़े हैं. वैसे तो ओबामा ने पूरी यात्रा के दौरान एक गुड बॉय की तरह सब गुडी-गुडी बातें कीं, लेकिन मैं एक बात पर अटका. संसद के संयुक्त सदन को संबोधित करने के बाद ओबामा ने जब 'जय हिंद' कहा तो संसद का पूरा सदन तालियों की गडगडाहट से गूँज उठा. वैसे ओबामा के पूरे भाषण के दौरान सांसदों ने ३२ बार तालियाँ बजायीं. जाहिर है तालियाँ उनकी ख़ुशी का इजहार करती हैं. कहा भी यही गया कि ओबामा ने भारतियों का दिल जीत लिया.


मैं पूरी चीज़ में केवल 'जय हिंद' पर फोकस करना चाहता हूँ. जय हिंद भारत के गौरव का प्रतीक है, इन दो शब्दों में हिंद की जय छिपी है. वही हिंद की जय जिसका सपना नेताजी सुभाष ने देखा और जो हर एक भारतीय चाहता है. भारत की आन, मान और शान से जुड़ा है 'जय हिंद'. ओबामा ने भी 'जय हिंद' बोलकर भारत का मान बढ़ा दिया. लेकिन अब ज़रा इसी चीज़ को घुमा कर देखिये. अगर कोई भारत का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश की यात्रा पर गया होता और उसने इस तरह की कोई बात कर दी होती तो इस भारत में बवाल मच गया होता. ज्यादा दूर जाने की जरुरत नहीं है अतीत में ऐसे कई उदाहरण मिल भी जायेंगे. बड़ी सहजता से ओबामा ने 'जय हिंद' बोला और उसके बाद भी सब कुछ सहज है, यहाँ भी और अमेरिका में भी. लेकिन भारतीय राजनीति अपने नेताओं को ये छूट नहीं देती. हमारा कोई नेता अगर इस तरह की सोच का प्रदर्शन करने की कोशिश करे तो उसका इस्तीफ़ा ही मांग लिया जाए. बीजेपी नेता एलके अडवाणी का पाकिस्तान में जिन्नाह पर दिया गया वक्तव्य और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इंग्लैंड में अंग्रेजों द्वारा भारत में किये गए विकास की प्रशंसा वाले वक्तव्य पर कितना बवाल हुआ था ये सबको याद ही होगा. वो कुछ नहीं था केवल अपने मेजबानों का थोडा सम्मान मात्र था. लेकिन भारत में उस पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई कि पूछो मत. अंतर केवल हमारी सोच में है. अमरीकी राष्ट्रपति हमारे देश में हमारी तारीफ करे तो चलेगा लेकिन हमारे नेता किसी दूसरे देश में उसकी तारीफ करे तो नहीं चलेगा. आखिर ये हम किस तरह की सोच है का परिचय दे रहे हैं. जिस तरह ओबामा ने भारत में आकर भारतियों का दिल जीता है उसी तरह भारतीय नेताओं को भी खुलकर खेलने का मौका दिया जाना चाहिए. खुद को महान कह देने भर से काम नहीं चलने वाला है, कुछ कर के भी दिखाना होगा. अपनी सोच को थोड़े पंख देने होंगे, इतना संकुचित होकर चलेंगे तो दिक्कत होगी.

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

जयंती तो वाल्मीकि की है, फिर चौपाइयां तुलसी की क्यों?

आज महर्षि वाल्मीकि जी की जयंती है. अवकाश भी है और उल्लास भी. हर साल की तरह इस बार भी अख़बारों में विज्ञापन दिए गए हैं. वाल्मीकि जयंती पर दिए जाने वाले विज्ञापनों में जो गलती मैं  हर साल देखता हूँ वही इस बार भी दिखी, तो सोचा इस बारे में लिख ही दिया जाए.

दरअसल हर बार महर्षि वाल्मीकि जी के चित्र के साथ उनकी जयंती की बधाई दी जाती है. रामायण लिखते हुए उनका पारंपरिक चित्र. लेकिन उनके समक्ष जो रामायण होती है वो वाल्मीकि रामायण की जगह तुलसी रामायण होती है, जिसमें तुलसी की चौपाइयां लिखी होती हैं. ये चीज़ आपको तमाम जगह देखने को मिल जाएगी. भगवन वाल्मीकि के कैलेंडरों से लेकर उनकी जयंती पर दिए जाने वाली विज्ञापनों तक. आज भी दिल्ली सरकार का जो विज्ञापन दिया गया है (चित्र देखें हिंदुस्तान टाइम्स  में छपा विज्ञापन) उसमें महर्षि वाल्मीकि के समक्ष जो रामायण रखी है उस पर तुलसी की चौपाई- "रघुकुल रीत सदा चल आई..." लिखी है. जबकि महर्षि वाल्मीकि की रामायण संस्कृत में है.

इस कन्फ्यूज़न को दूर करना जरूरी है. क्योंकि छोटे बच्चे इन्हीं सब चीज़ों से अपनी संस्कृति के बारे में सीखते हैं. गोस्वामी तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि की रामायण में अंतर हमें पता होना चाहिए. तुलसी की रामचरितमानस अवधी में है और वाल्मीकि रामायण संस्कृत में. इसलिए महर्षि वाल्मीकि के चित्र में वाल्मीकि रामायण के श्लोकों का समावेश करना चाहिए. इससे वाल्मीकि रामायण की जानकारी  का भी प्रसार होगा. कम से कम सरकारी विज्ञापन में इस तरह की गलती की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए. उम्मीद है आगे इस बात का ख्याल रखा जायेगा. दिल्ली सफाई कर्मचारी कमीशन की ओर से जारी इस विज्ञापन में मुख्यमंत्री का चित्र लगा है साथ में कमीशन के चेयरमैन स्वरुप चंद राजन और सदस्य गण राजू सारसर और बीरपाल गहलोत का नाम छपा है. मुझे पूरी उम्मीद है कि ये गलती केवल दिल्ली सरकार के विज्ञापन में ही नहीं बाकि प्रदेश सरकारों और संस्थाओं द्वारा जारी विज्ञापनों में भी होगी.

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

हम अपने पिता का कहना नहीं मानते!

महात्मा गांधी का सपना था कि भारत में रामराज्य की स्थापना हो और उन्होंने ये सपना भारत के लोगों को भी दिखाया। १५ अगस्त १९४७ से लेकर अब तक भारत में गाहे-बगाहे राम राज्य की चर्चा किसी न किसी मंच से होती आई है। लेकिन अगर पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो 'राम राज्य' एक यूटोपिया है, एक ऐसा काल्पनिक शब्द जिसका इस्तेमाल कर राजनीतिज्ञ आवाम को भ्रम में रखते हैं। फिर भी राम राज्य आज भी भारत की आवाम का सपना है। एक ऐसा सपना जो दिमाग में खिंची धर्म की दीवारों को तोड़ चुका है। राम मंदिर पर भले ही तलवारें खिंची हों, लेकिन राम राज्य भारत में आए इसपर सब सहमत हैं। पहले ये सपना गांधी ने दिखाया और फिर भाजपा ने। लेकिन ये सपना केवल मंच, माइक और रैलियों तक ही सिमटा रहा। इसको हकीकत में बदलने की कोशिश न महात्मा गांधी की कांग्रेस ने ही की और न भाजपा ने। भाजपा भले ही केंद्र में लंबे समय तक न रही हो, लेकिन कई राज्यों में वह लगातार कब्जा जमाए है और वहां भी राम राज्य की दिशा में कोई ठोस प्रयोग होता नहीं दिखता। शायद यही कारण है कि राम राज्य को यूटोपिया का दर्जा दिया गया।

यहां संक्षेप में ये भी बताते चलें कि जिस राम राज्य की बात गांधी से लेकर आज तक के नेता करते आए हैं, आखिर उसमें ऐसा क्या था कि हम आज भी वैसे शासन की इच्छा रखते हैं। संदर्भ के लिए अगर केवल तुलसी की रामचरितमानस को ही लें तो हम पाएंगे कि राम के शासन में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। न तो कोई किसी से बैर रखता था और न किसी तरह का भेदभाव था। सभी को समान अधिकार प्राप्त थे। सब अपने-अपने धर्म (कर्तव्यों) का भली-भांति पालन करते थे। न वहां भय था न कोई रोग और न शोक. न तो शारीरिक कष्ट थे और न सांसारिक, प्राकृतिक आपदाएं भी नहीं आती थीं। समय से बारिश होती थी और पशु-पक्षी स्वच्छंद रूप से विहार करते थे। यानि प्रकृति एकदम संतुलित थी। सभी नागरिक ज्ञानी, चरित्रवान और परोपकारी थे। यानि शिक्षा व्यवस्था बेहद उच्च स्तर की थी। सबसे बड़ी बात जो कही वो ये कि अल्पमृत्यु भी नहीं थी। सुनने में ये सब शायद एक सपनों की दुनिया लगे, लेकिन जरा सोच कर देखें कि उस शासन का कैसा सिस्टम रहा होगा? अगर आज की जुबान में कहें तो एकदम फूलप्रूफ सिस्टम।

इसके उलट जरा आज के भारत पर नजर डालते हैं। आजादी से लेकर आज तक भारत सरकार के सामने समस्याओं का अटंबार लगता जा रहा है, लेकिन किसी भी समस्या का कोई ठोस निराकरण नहीं निकल पा रहा। प्राकृतिक आपदाएं हों, अंदरूनी समस्याएं या फिर बाहरी खतरे हर मोर्चे पर हम ढुलमुल खड़े हैं। न तो हम अपने लोगों की बीमारियों से रक्षा कर पा रहे हैं और न तरह-तरह के आतंकवादियों से। कश्मीर से लेकर आसाम तक, आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक हम हर समस्या के सामने घुटने टेक कर खड़े हैं। हम कोई समाधान नहीं निकाल पा रहे, न तो शक्ति के बल पर और न प्रीति के बल पर। ऊपर से तुर्रा ये कि हम विकास कर रहे हैं, विश्व में एक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। आर्थिक विकास का छद्‌म चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि हम एक मुगालते में जी रहे हैं। ये एकदम २००४ के इंडिया शाइनिंग के माफिक है।

राष्ट्र निर्माण करते-करते हम चरित्र निर्माण करना भूल गए। आज हमने नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर तो खड़ा कर लिया है लेकिन देश   के पास नेशनल कैरेक्टर नहीं बचा। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि तमाम योजनाओं में करोड़ों बहाने के बावजूद उसका लाभ आम लोगों तक नहीं पहुंच पाता। ये नेशनल कैरेक्टर की ही कमी है कि आज कॉमनवेल्थ खेलों में ७० हजार करोड का खजाने खोलने के बावजूद हमारे पांव थर-थर कांप रहे हैं और देश की इज्जत दाव पर है। इस सबकी जड में कहीं न कहीं हमारे एजुकेशन सिस्टम का ही दोष है। जिन बालकों के संग खेलते वक्त पंडित नेहरू उन्हें देश का भविष्य कहकर पुकारते थे, उन बालकों को हम अच्छा नागरिक बनने की दिशा ठीक से नहीं दे पाए। अब वही बालक विभिन्न पदों पर बैठे देश का बंटाधार कर रहे हैं।

गांधी ने अपने राम राज्य का खाका सत्य और अहिंसा की नींव पर खड़ा किया था। वो चाहते कि विकास की बयार गांव से शहर की ओर बहे। बेहूदे विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ खिलवाड न किया जाए। नागरिक तप और त्याग का जीवन जिएं। ऐसी अर्थव्यवस्था हो जो सबका पेट भर सके। लेकिन हुआ क्या? सत्ता मिलते ही गांधी के विचार को दरकिनार कर दिया गया और विकास का पश्चिमी मॉडल अपनाया गया। विकास शहरों से शुरू किया गया और गांव पिछडते चले गए, जिसका परिणाम निकला पलायन। स्थिति ये बन गई कि बार-बार दिल्ली की मुखयमंत्री को कहना पड़ा कि दिल्ली अब और लोगों को जगह नहीं दे सकती, कृपया दूसरे राज्यों से लोग यहां आकर न बसें।

हम अपनी नदियों, पहाड़ों और जंगलों को नहीं बचा पा रहे। गंगा-यमुना को साफ करने के नाम पर बार-बार प्रोजेक्ट लांच कर खानापूर्ति की गई लेकिन उनको गंदा करने वाली इंडस्ट्रीज के मालिकों से चुनावी फंड पाने के लिए राजनीतिज्ञ गलबहियां करते रहे। बाजारवाद और भोगवाद इतनी गहराई तक फैल गया कि तप और त्याग की बातें बेहद दकियानूसी लगीं। प्रकृति के साथ तो हमने ऐसा घिनौना बर्ताव किया कि हम उसको अपनी दासी मान बैठे हैं। हालांकि प्रकृति बार-बार अपनी ताकत का ऐहसास कराकर चेताने की कोशिश भी करती है, लेकिन हम उसके इशारे को नहीं समझ पाते। इस साल के मॉनसून ने समूचे उत्तर भारत को पानी पिला दिया। कॉमनवेल्थ की आयोजन कमेटी को तो ये मॉनसून खासतौर से याद रहेगा। खैर, जीव जंतुओं और पर्यावरण की रक्षा तो हम बाद में करेंगे, पहले तो हमारे नागरिक ही देश की सीमाओं में सुरक्षित नहीं हैं। हमको कोई भी, कभी भी, कहीं भी मार जाता है और सरकार के पास बयानों के मलहम के सिवा कुछ नहीं होता। शायद इसीलिए अब ये जुमला आम हो चला है कि भारत राम भरोसे चल रहा है।

जहां तक बात अल्पमृत्यु की है तो आज भारत में वह भी चर्म पर है। अल्पमृत्यु का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं तमाम तरह के हादसे और जानलेवा बीमारियां। हमने आज तक लड़े गए युद्धों में इतनी जानें नहीं गंवाई जितने नागरिक हमने देश की सडकों पर गंवा दिए। हमने ऐसी-ऐसी कारों को अपनी सडकों पर दौडने की इजाजत दे दी जिनके लिए भारतीय सडकें बिल्कुल अनुकूल नहीं हैं। हाईवे पर अधिकतम गति सीमा ६० किमी प्रति घंटा की है लेकिन गाडियों के अंदर २०० किमी प्रति घंटे तक का प्रावधान है। हाई स्पीड पर गाड़ी चलाने पर हम चालक का तो चालान काटते हैं, लेकिन गाड़ी में हाई स्पीड का प्रावधान देने वाली कंपनी के प्रति हमारा रवैया क्या होना चाहिए? वैसे इसपर कोई यह भी सवाल उठा सकता है कि देश का नागरिक कम उम्र में मरता है या उम्र पूरी करके, इसमें शासन की भूमिका कहां पर है। दरअसल यहीं पर राम राज्य का अंतर छिपा है। हम भारत पर भारतीयता की दृष्टि से शासन करने के बजाय एक विदेशी चश्मा लगाकर राज कर रहे हैं। गांधी के स्वदेशी मंत्र में केवल विदेशी चीज़ों की होली जलाना भर नहीं था, उनके 'स्वदेशी अपनाओ' में गहरा दर्शन छिपा था।

१९४७ से लेकर आज तक भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। पिछले ६३ सालों से हम अलग-अलग सुरों में देश के अंदर व्याप्त भ्रष्टाचार का रोना रो रहे हैं। लेकिन आज तक उसका खात्मा करने की दिशा में सिवाय असफलता के कुछ नहीं मिला। सर्वोच्च स्थानों से लेकर निचले तबके तक निजी हितों ने राष्ट्र हितों के ऊपर वरीयता प्राप्त कर ली है। उपभोक्तावाद ऐसा बढ़ा है कि हम अब केवल मुनाफे की भाषा बोलते और समझते हैं। बिना फायदे के तो अब हम ईश्वर को भी नहीं पूजते। राष्ट्रपिता ने तो बताया तप और त्याग का जीवन लेकिन राष्ट्र को दिया गया भोग और विलास का जीवन। धन और संपदा का लोभ इतना सिर चढ़ा कि जो धन राष्ट्र के विकास में लगना चाहिए था वह स्विस बैंकों में पड़ा सड़ रहा है। देश का शासक स्वयं देश के लिए घुन बन गया और लगातार उसको खोखला कर रहा है।

राम राज्य में दंड का भी प्रावधान था, लेकिन प्रजा इतनी अनुशासित थी कि दंड देने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पर राजा राम ने बार-बार इस बात पर बल दिया कि अगर उचित समय पर उचित दंड दे दिया जाए तो बाकी प्रजा में उसका गहरा असर होता है। लेकिन आजाद भारत में न्यायिक प्रक्रिया किस तरह काम करती है ये बताने की आवश्यकता नहीं। देश की अस्मिता पर हमला करने वाले आतंकवादियों को सजा सुनाई गई, लेकिन उसको अमलीजामा पहनाने में सरकार के हाथ कांप रहे हैं। ऐसे में आम लोगों का देश के कानून में विश्वास कैसे दृढ बने। इसीलिए लोग कानून तोडने से भी नहीं डरते।

राजा राम का एक और विशेष गुण था। चक्रवर्ती सम्राट होने के बावजूद वे स्वयं अयोध्या के लोगों के बीच जाकर उनकी समस्याओं का आकलन करते थे। लेकिन आज के शासक ने आम लोगों से बहुत बड़ी दूरी बना ली है। राजा राम के दरबार में हर रोज कार्यार्थियों के काम और शिकायतें सुनने का प्रावधान था। वे लक्ष्मण को द्वार पर देखने को भेजते कि कहीं कोई अपना काम लेकर तो नहीं आया। लेकिन लक्ष्मण को द्वार पर कभी कोई नहीं मिलता। इसका अर्थ ये नहीं कि लोगों को बोलने का अधिकार नहीं था। राजा राम के शासन में प्रजा की राय सर्वोपरि थी, जिसके कारण राम को सीता का भी परित्याग करना पड़ा। द्वार पर कोई फरियादी न होने का अर्थ है कि निचले पदों पर बैठे राजा राम के प्रशासक बखूबी अपने काम को निभा रहे थे। आज उसका उल्टा है। जिला स्तर पर देखें तो डीएम और एसएसपी के ऑफिस में सुबह से ही शिकायत लेकर आए लोगों का जमावड़ा लग जाता है। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि डीएम् एसएसपी से नीचे बैठे कर्मचारी अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन नहीं कर रहे।

इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर साइंटिफिक स्प्रिचुअलिज्म के संयोजक डॉ. गोपाल शास्त्री से जब मैंने राम राज्य के बाबत पूछा तो उनका कहना था कि राम राज्य तब आया जब अयोध्या के लोगों ने १४ वर्ष तक राम के इंतजार में कठिन तप किया। सभी अयोध्यावासियों ने कठोर तप करके राम के प्रति अपना समर्पण प्रदर्शित किया। उस १४ वर्ष के तप और त्याग ने अयोध्यावासियों को हर दृष्टि से एक श्रेष्ठ इंसान बनाया। जबकि उधर स्वयं राम वनवास में और अयोध्या के कार्यवाहक राजा भरत नंदिग्राम में तपस्वी का जीवन व्यतीत कर रहे थे। जब राजा और प्रजा दोनों ने १४ वर्ष तक कठोर तप और त्याग के जीवन का अनुसरण किया तो अयोध्या में राम राज्य की स्थापना हुई। एक ऐसा राज्य जो राम के पिता दशरथ के शासन से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुआ और एक मिसाल बन गया। आज तक लोग उस शासन का सपना देख रहे हैं।

हमने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन तप और त्याग के जीवन का जो उदाहरण गांधी ने पेश किया उसको न तो देश के शासक ने अपनाया, न प्रशासक ने और न आम लोगों ने। हमने अपने बीच से एक श्रेष्ठ पुरुष को चुन लिया और अखिल विश्व को दिखाने के लिए उसको राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया, लेकिन हम अपने राष्ट्रपिता की वे संतानें हैं जो अपने पिता का कहना मानने को तैयार नहीं।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

बातों के बतोले और राष्ट्रीय चिंतन

जिन्दगी में गपरचौथ  का बड़ा महत्व होता है. हर कोई कहीं न कहीं गपरचौथ जरूर  करता है. चाहे ऑफिस में या चाय की दुकान पर, गाँव हो तो किसी पेड़ के नीचे, कॉलेज में हो तो कैंटीन में, यानि सबके पास गपरचौथ के अपने अपने अड्डे हैं. अब आप पूछेंगे गपरचौथ क्या? तो जी हमारे यहाँ गपरचौथ यानि बातों के बतोले फोड़ना, खाली वक़्त की पंचायत या बैठकी. अमूमन इस तरह की गपरचौथ में इधर-उधर की बुराई और एक-दूसरे की टांग खिंचाई होती है. लेकिन अगर गंभीर विषय छिड़ जाये तो कई बार अच्छे अच्छे विचारों का भी आदान प्रदान हो जाता है. मेरठ में पत्रकारिता के दौरान इस गपरचौथ का आनंद लिया जाता था रात को अखबार निकालने के बाद. ऑफिस के पास चाय की दुकान पर. अमूमन १२-१ बजे से शुरू होकर ये गपरचौथ २-३ बजे तक चलती. इस गपरचौथ के मुखिया होते हमारे मकेश सर. इस बैठकी के सबसे बड़े रसिया थे अनुराग और कपिल जी. अन्य लोग जो साथ निभाते उनमें सुशील, संतोष, सचिन त्यागी,  कुशल जी, मैं और विवेक जी. इस गपरचौथ की संख्या ५ से कम कभी नहीं घटी. सबकी चाय का प्रबंध हर रोज मुकेश सर की ओर से रहता. इस बैठकी में मुख्य मुद्दा होता आज के दौर की पत्रकारिता और पत्रकार. इसके बाद नम्बर था समसामयिक मुद्दों और देश की अन्य समस्याओं का. हलकी-फुलकी चुहलें और थोड़ी टांग खिंचाई.

दिल्ली आकर एनजीओ से जुड़ने के बाद अब मुझे इस गपरचौथ के लिए नयी जगह मिल गयी. अब हमारी बैठकी अक्सर आंटी के घर जुटती है. अक्सर रात के खाने के बाद सबका उनके घर हालचाल जानने के बहाने आना होता है. और अगर बहस का मुद्दा गर्म हो तो समझो जम गयी पंचायत. अलग-अलग टेस्ट के लोग होने के कारण इस बहस में पक्ष और विपक्ष भी बन जाता है. आंटी के घर की गपरचौथ में भाग लेने वालों में हमारे अंकल जोकि डॉक्टर हैं और आंटी के अलावा, भगवन अंकल, तेजेश मामा, मैं और टीनू भैया. जिस दिन की बहस में टीनू भैया शामिल होते हैं उस दिन समझो रात को तीन बजने ही बजने हैं. बुधवार के दिन मेरी छुट्टी होती है तो मंगलवार रात को अगर बहस छिड़ जाए तो फिर मत पूछो. एक दिन मंगलवार को मृगांक भी आया हुआ था उस दिन फिल्मों से लेकर खाने-पीने तक के मुद्दों पर ऐसी चर्चा छिड़ी कि जब मैं रात को वहां से उठ कर अपने रूम की तरफ बढ़ा तो बहार पेड़ों पर चिड़ियाँ बोल रही थीं. घर जाकर समय देखा तो तडके के ४:३० बजे थे. चद्दर तान के ऐसा सोया कि सुबह १० बजे आँख खुली.

चलती बहस में से बार बार उठने की कोशिश भी करो लेकिन फिर सबका अनुग्रह-  "अरे बैठो अभी...", "घर जाकर सोना ही तो है...", "चले जाना, थोड़ी देर और रुको ज़रा....", ऐसा दबाव होता है कि उठ-उठ कर बैठना पड़ता है. टीनू भैया तो ऐसे चटकारे छोड़ते हैं कि बीच में छोड़ भी नहीं सकते. और फिर थोड़ी-थोड़ी देर के अंतर पर आंटी की चाय, साथ में उनकी रसोई के नए- नए प्रयोग. रात का खाली समय, चाय, नाश्ता और बातें करने के लिए रोचक लोगों की बैठक और भला क्या चाहिए. क्लीनिक से आकर अंकल भी फुल चर्चा करने के मूड में होते हैं. बस कोई कह दे एक बार ज़रा. अंकल के जो भी तर्क होते हैं वो विज्ञान और अध्यात्म का मिला-जुला मिश्रण होते हैं. मेरा पक्ष पूरी तरह अध्यात्मिक, आंटी का भावनात्मक और टीनू भैया का एकदम व्यावहारिक. जब भगवन अंकल होते हैं तो वे गरमा गर्मी हो जाने पर बीच-बचाव करते हैं, खासतौर से जब बात शाकाहार बनाम मांसाहार पर चल रही हो. मैं और भगवन अंकल शाकाहार का पक्ष लेते हैं और टीनू भैया और डॉक्टर अंकल मांसाहार के पक्ष में एक से बढ़कर एक तर्क पेश करते हैं. लेकिन जब बात राष्ट्रीय समस्याओं पर चल रही हो तो सबका व्यू-पॉइंट तकरीबन एक सा ही है. विचारधारा की दृष्टि से देखा जाए तो मोटे तौर पर इस बैठकी में सब दक्षिणपंथी ही हैं, मेरठ गपरचौथ में एक-दो वामपंथी भी थे तो बहस में छौंक ज्यादा तगड़ा लगता था.

खैर कल आंटी के घर आजकल के सबसे गर्म मुद्दे पर हलकी सी चर्चा छिड़ी- यानि कॉमनवेल्थ खेलों पर. टीनू भैया नहीं थे वरना  कल पूरी रात कम पड़ जाती. मामला था कि ऑस्कार के लिए इस बार भी जो फिल्म "पीपली लाइव" भेजी गयी है उसमें भी भारत की निगेटिव इमेज विश्व के सामने जाएगी. बाकी की इमेज पर कॉमनवेल्थ का आयोजन पानी फेर ही रहा है. हलकी सी बहस छिड़ी सबकी यही राय कि ऐसी फिल्मों को भेजने से बचा जाये जो भारत को पिछड़ा, गरीब और बेकार देश होने की छाप छोड़ती हों. इतने में आंटी ने एक बेहद तार्किक और व्यावहारिक बात कह डाली. उसी बात को लिखने के लिए मैंने ये पूरी पोस्ट लिखी है.

बात थी विश्व में ख़राब तस्वीर पेश करने वाली चीज़ों की. आंटी ने इसके लिए सबसे बड़ा दोष रेलवे के सर मढ़ा और वो भी पर्याप्त कारणों के साथ. उन्होंने कहा कि बाहरी लोगों के सामने देश की ख़राब तस्वीर पेश करने में यहाँ के रेलवे स्टेशनों का सबसे बड़ा हाथ है. वैसे तो रेलवे भारत की पूरी जी-जान से सेवा कर रहा है. उसकी सेवाओं में दिन-प्रतिदिन सुधार भी हो रहा है, लेकिन हर शहर में रेलवे स्टेशन से दो-तीन किलोमीटर पहले और बाद में ट्रैक के दोनों तरफ का एरिया इतना गन्दा और भद्दा होता है कि चाहकर भी आप उस शहर के बारे में अच्छा तो सोच ही नहीं सकते. भारत की राजधानी के मुख्य स्टेशन से लेकर छोटे से कसबे के हॉल्ट तक हर जगह पटरियों के आस-पास गंदगी का अटम्बार, झुग्गियां और अपने पेट को हल्का करते हुए भारतीय नज़र आएंगे. भला ऐसे में उस शहर के बारे में अच्छी इमेज कैसे बने. तमाम विदेशी पर्यटक भरता में ट्रेन से सफ़र करते हैं. रेल खिडकियों पर बैठे-बैठे अपने कैमरे से यही तसवीरें खींचकर वो अपने ब्लॉग पर, अपनी किताबों में या फिर प्रदर्शनियों में लगते हैं.

रेलवे अपनी पटरियों के आसपास से अवैध कब्जों को हटाने की तमाम दफै नाकाम कोशिश कर चुका है. लेकिन कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं इन अवैध कब्जों की. हटायें तो हटाये भी कैसे? किसी को इन कब्जों में वोट नज़र आते हैं, किसी को सर्वहारा, किसी को अपनी कौम,  तो किसी को बहुजन समाज. तमाम रेलवे स्टेशनों पर आपको पटरियों के बीचों-बीच मंदिर और मस्जिद भी मिल जायेंगे. इस सबके चक्कर में रेलवे का मनोबल इस दिशा में क्षीण पड़ जाता है. अब तो दिल्ली की मेट्रो ट्रेन ने इस मामले में भारतीय रेल के सामने एक नजीर भी पेश कर दी है. उससे भी गाइडलाइन ली जा सकती है. वैसे साफ़ सफाई के मामले में कुछ रेलवे स्टेशनों की भी स्थिति बेहतर है. रेलवे अपने ट्रैक के किनारे जट्रोफा के पेड़ उगाने का भी एक असफल प्रयास कर चुका है. लेकिन मुख्य बात है स्टेशन से कुछ किलोमीटर पहले और बाद में  पसरी गंदगी और अवैध कब्जों की. अगर इसका कोई उपाय खोज लिया जाए तो लोगों के मन में अपने शहर और अपने देश के बारे में नकारात्मक छवि न बने. किसी भी स्टेशन पर ट्रेन का स्वागत ग्रीनरी और अच्छी लाइटिंग से हो तो तस्वीर कुछ सुधरे.

खैर  ऊषा आंटी की ये चिंता कब तक दूर होगी ये तो नहीं कह सकते, फिलहाल तो रेलवे के ही सिपहसलार रेलवे स्टेशनों की दीवारों पर नारे लिख रहे हैं और दीवारों पर पीक मार रहे हैं.

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अयोध्या को बहुत कुछ चाहिए...

अयोध्या विवाद पर आने वाला फैसला एक बार फिर टाल दिया गया है. और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा, पिछले ६० सालों से ऐसा ही होता आ रहा है. हमारा सिस्टम इस मुद्दे को च्युइंगगम की तरह चबा रहा है. इशारा साफ़ मिल रहा है कि इस बार कॉमनवेल्थ के मद्देनज़र फैसला टाला गया है. अब कम से कम कॉमनवेल्थ ख़त्म होने तक तो इस फैसले को भूल ही जाइए. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने में तत्परता दिखाई उसको देख कर लगता है कि देश में बन रहे हालातों के मद्देनज़र कोर्ट से कहीं न कहीं भारत सरकार ने भी फैसला टालने की अलहदा से गुजारिश की है.

भारतीय सिस्टम की सबसे बड़ी  विडम्बना यही है की वह चीज़ों को टालने में विश्वास रखता है. चाहे कश्मीर हो या नक्सलवाद, अयोध्या हो या पूर्वोत्तर राज्यों की समस्या. भारतीय सरकारें सदा से ही समस्याओं को टालने की प्रवृत्ति अपनाती आई हैं. नतीजा ये कि पीढ़ी दर पीढ़ी समस्याएं विकराल होती चली गयी.   काश अगर हमने परेशानियों को टालने की जगह उनसे मुकाबला करने का जज्बा दिखाया होता तो न बाबरी मस्जिद गिराई जाती और न आज कश्मीर सुलगता. भारतीय लोकतंत्र में वोट खोने का इतना बड़ा खौफ है कि सत्ता-हित के सामने राष्ट्र-हित दरकिनार कर दिए जाते हैं. आज देश में तमाम सुलगती समस्याओं की जड़ में यही कारण है. हमारी हिम्मत को लकवा मार गया है, हम डरपोंक हो गए हैं, हमारी रीढ़ में पानी घुस गया है.

अयोध्या मसले पर ये मुकदमा पिछले ६० साल से चल रहा है. इतने लम्बे अन्तराल में न तो सरकार और न अदालत ये निर्णय देने की हिम्मत जुटा पा रही है कि ये ज़मीन किसकी है? हालाँकि पता दोनों को है कि ज़मीन पर असली हक किसका है. यही ढीला रवैया बाबरी गिराए जाने का सबसे बड़ा कारण बना. लेकिन ये २०१० है वो १९९२ था. तब से लेकर अब तक सरयू में बहुत पानी बह चुका है. आज लोगों को गुमराह करना मुश्किल है. लोग वोटों की माया को भी समझ गए हैं. दोनों धर्मों के संतों ने नेताओं से किनारा कर लिया है. दोनों पक्ष अब फैसला चाहते हैं. लेकिन नहीं! हमारा सिस्टम किसी मुद्दे को जड़ से ख़त्म करने की इज़ाज़त नहीं देता. हम उसको लटकाए रखना चाहते हैं. ताकि लोग इन सब चीज़ों से ऊपर उठ कर न सोच सकें. १९९२ वाला सीन भी भूल जाएँ क्योंकि तमाम धार्मिक संगठन तेजी से अपनी जमीन खो रहे हैं. नयी पीढ़ी नयी सोच के साथ आगे बढ़ रही है. कम से कम उसको तो कतई गुमराह नहीं किया जा सकता. गुमराह उन्हीं इलाकों को किया जा सकता है जहां शिक्षा का अभाव है, विकास का अभाव है और जहां बेकारी है.

खैर इसी बहाने मैं आपको अपने अयोध्या के संस्मरण भी सुना देता हूँ, जो मैंने अपनी पिछली यात्रा में अनुभव किये. बचपन में जब परिवार के साथ अयोध्या  गया था उस वक़्त उम्र बहुत कम थी. बस कुछ भीनी भीनी यादें हैं. उम्र तीन साल से भी कम रही होगी. उस समय की सबसे स्पष्ट याद है भाई के साथ हनुमान गढ़ी की ऊंची सीढ़ियों पर एक एक पैड़ी को हाथ से छूकर माथे से लगाकर चढ़ना. तब के बाद फिर कई बार सोचा कि अयोध्या चला जाए, लेकिन कभी मौका नहीं लग पाया. दिल्ली आने के बाद आखिरकार मौका लग ही गया और लखनऊ में दिव्य जी से मुलाकात के बहाने अयोध्या जाना हो गया. बीती अप्रैल में मेरी ये यात्रा थोड़ी जल्दी-जल्दी में जरूर रही लेकिन मैंने उद्देश्य को पूरा कर लिया. सरयू स्नान के बाद जल्दी में ही सही मैंने सभी मुख्य मंदिरों के दर्शन कर लिए.

पूरे संसार में अयोध्या के नाम पर जितना बड़ा बवाल है मुझे अयोध्या उतनी ही छोटा और दीन लगी. ये तुलसी की अयोध्या सरीखी कतई नहीं थी. अयोध्या में जिस वैभव का वर्णन तुलसी ने अपनी मानस में किया है ये अयोध्या तो उसके पैरों की धूल भी नहीं. मेरी आँखें एक अदद वैभवशाली मंदिर देखने को तरसती रहीं. हर जगह मुझे केवल छोटे छोटे मंदिर और छोटी छोटी दुकानें ही नज़र आयीं. एक मात्र हनुमान गढ़ी का मंदिर ही थोड़ी विशालता का अहसास कराता दिखा. वर्तमान अयोध्या से कहीं ज्यादा बड़े और वैभवशाली राम मंदिर भारत के दूसरे छोटे शहरों में हैं. वर्तमान अयोध्या में गरीबी भी जमकर अपना प्रदर्शन कर रही थी. आखिर क्यों?

न तो भगवान राम की अयोध्या ऐसी थी और न राजा राम की. फिर आज की अयोध्या इतनी दीन क्यों है. कहने को पर्यटन स्थल और देखने में इतनी दयनीय. इसका जिम्मेदार कौन है? और फिर ऐसा क्या किया जाना चाहिए कि वर्तमान अयोध्या भी वैसी ही वैभवशाली बने जैसा तुलसी ने अपनी रामायण में वर्णन किया है.

अगर अयोध्या विवाद को इतना लम्बा न खींचा गया होता तो आज यहाँ भी आर्थिक विकास जोरों पर होता. अयोध्या में भी वही वैभव देखने को मिलता जो तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी और शिर्डी में देखने को मिलता है. लेकिन वर्तमान अयोध्या तो संगीनों के साए में जीती है. विश्व पटल पर नाम इतना बदनाम कर दिया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन यहाँ अपनी पैठ भी नहीं बना पाया है. अगर जल्द ही इस विवाद का फैसला कर दिया गया होता तो आज शायद ये दिन न देखना पड़ता.

अदालत में इस विवाद पर २८ बिन्दुओं को लेकर मुकदमा चल रहा है. इनमें से विवादित स्थल पर मस्जिद के पक्ष में बहुत कम साक्ष्य मिले हैं. कोर्ट ने फैसला लिख कर रख लिया है, बस सुनाना बाकी है. लेकिन अचानक ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी रीढ़ की हड्डी दरकने लगी है. दर के मारे हवा ख़राब है. इसलिए कानूनी पेचों में मामले को फंसाने की कोशिश की जा रही है. किन्हीं राम भक्त त्रिपाठी जी को मोहरा बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है. उनका इस्तेमाल कौन कर रहा है. पता नहीं. हिन्दू कह रहे हैं कि वो कांग्रेस के आदमी हैं मुसलमान कह रहे हैं कि वो विहिप के आदमी हैं लेकिन वो कह रहे हैं कि मैं एक आम आदमी हूँ. 

खैर, अगर हिन्दुओं की भावना का ख्याल रखते हुए वहां समय रहते मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ कर दिया जाता और मस्जिद के लिए दूसरा स्थान दे दिया जाता तो आज तस्वीर दूसरी होती. पूरे संसार में साम्प्रदायिकता के नाम पर न तो भारत की छवि धूमिल होती और न किसी को राजनीति का मौका मिलता.

इस्लाम के मुताबिक विवादित स्थान पर मस्जिद नहीं बन सकती. सो, होना ये चाहिए कि वहां मंदिर का रास्ता साफ़ कर दिया जाए और मस्जिद के लिए अन्यत्र जगह प्रदान की जाये. भारत सरकार और प्रदेश सरकार दोनों पक्षों को अपने अपने धार्मिक स्थल बनाने के लिए बराबर की रकम प्रदान करे और फिर दोनों की धार्मिक स्थल इतने भव्य और दिव्य बनाये जाएँ कि वो एक मिसाल बन जाएँ. पर्यटन का ऐसा केंद्र बन जाएँ कि दूर दूर से सैलानी इनको देखने आयें. वहां पर्यटन का विकास हो, वहां के लोगों का विकास हो और गरीबी का नाश हो.

सोमवार, 20 सितंबर 2010

मेरा- "कॉमनवेल्थ सॉन्ग"

कॉमनवेल्थ खेलों के लिए जब सब गाने-वाने लिख रहे हैं तो मैंने भी सोचा एक गाना लिख दिया जाए. देश के इस महत्वपूर्ण पर्व में मेरा भी कुछ योगदान होना चाहिए. ऐसा मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है.  न न मुझे इस गाने के लिए कोई पैसा नहीं चाहिए. एकदम मुफ्त. पैसा तो खेल कमेटी के लिए ही कम पड़ रहा है, बेकार में क्यूँ उनकी वेल्थ में सेंध लगायी जाए. तो पेशे खिदमत है मेरा-  "कॉमनवेल्थ सॉन्ग" :   


 १. सडकें बन गईं स्विमिंग पूल,
कॉमनवेल्थ की हिल गईं चूल,
कैसे खेल करें.


२. बारिश कर रही हाहाकार,
यमुना दे रही है ललकार,
पानी कहाँ रखें.


३. डेंगू फैल रहा विकराल,
कैसे मरेंगे मच्छर यार,
बताओ क्या करें.


४. आतंकी बैठे होशियार,
अयोध्या सुलगन को तैयार,
कैसे शांत करें.


५. उड़ गई कलमाड़ी की धूल
शीला फिर भी दिख रहीं कूल
चिंता कौन करे.


६. पूरी दिल्ली में है जाम,
छुट्टी कर दी सबकी आम,
कैसे जाम खुले.


७. आ रहे भर-भर के त्योहार,
रावण फुकेंगे अपरम्पार,
इज्जत राम रखें.


८. करोड़ों बहा दिए सरकार,
फिर भी लटका कारोबार,
ढीली चाल चलें.


९. प्लेयर बैठे हैं हैरान,
गीले पड़े सभी मैदान,
कैसे पदक मिले.


१०. गाना किये एक रहमान,
कर गए हैं सबको परेशान,
कैसे मूड बने.


११. सीखें सॉरी, थैंक-यू, प्लीज़,
सब अंग्रेजों वाली तमीज,
हिंदी दूर रखें.


१२. बिछा दें सब सड़कों पर फूल,
सब कुछ दिखना चहिये कूल,
सच को साफ़ ढकें.

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

हे भगवान! कॉमनवेल्थ खेलों पर कृपा करो

लगता है मणिशंकर अय्यर की  (बद) दुआ सीधे दिल से निकली थी. बारिश तो सचमुच कॉमनवेल्थ खेलों पर पानी फेरने पर उतारू है. दिल्ली से लेकर देहरादून तक पानी ही पानी है. रक्षाबंधन की छुट्टी पर मैं नैनीताल घूमने चला गया. बारिश ने वो हाल किया कि कमरे से बहार नहीं निकलने दिया. बूँद रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. रास्ते में पड़ी कोसी, सोत, गांगन और रामगंगा  सरीखी नदियाँ सब की सब तट की मर्यादाएं भंग करती दिखी. कितनी भी बारिश क्यों न हुयी हो मैंने रामगंगा के पुल के नीचे कभी इतना पानी नहीं देखा. पुल के नीचे पहले पिलर से लेकर आखिरी पिलर तक पानी भरा था. दिल्ली में यमुना लगातार कई दिनों से खतरे के निशान से ऊपर बह रही है. लगता है इन्द्र को भी पता चल गया है कि कॉमनवेल्थ खेलों में करोड़ों की धांधली की गयी है. धरतीवासी सारा का सारा पैसा अकेले ही डकार गए, इन्द्र को उनका शेयर नहीं भेजा. आखिर किसी भी महान यज्ञ में देवताओं का भाग निकाला जाता है. फिर ये कॉमनवेल्थ खेल तो एक विश्व यज्ञ है.  तो लो अब भुगतो और कराओ कॉमनवेल्थ खेल.

लगता है उस दिन मणिशंकर अय्यर की जुबान पर सरस्वती बैठी थी. जो कहा सो हो गया. काश उन्होंने उस दिन कुछ और कहा होता. खैर असली मज़ा तो अब अक्टूबर में आने वाला है. कल कुछ फार्मर्स, आई मीन किसान लोग अपना अधिकार मांगने दिल्ली आ गए थे और दिल्ली उनको जगह नहीं दे पाई. किसानों के घुसते ही पूरी दिल्ली घुटनों के बल रेंगने लगी. सोचो कॉमनवेल्थ खेलों में क्या होगा? सुना है जितने दिन खेल चलेंगे तब तक दिल्ली के तमाम संस्थान बंद रहेंगे. मसलन स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, कुछ गैर जरूरी सरकारी संस्थान आदि इत्यादि. ताकि दिल्ली की सडकें खाली रहें. सड़कों पर जाम न लगे. विदेशियों के सामने सबकुछ ढक कर  रखना है. आखिर देश की इज्जत का सवाल है.

वैसे ३५ हजार करोड़ रूपए में एक नया शहर बसाया जा सकता था. जितनी रकम फूंक दी गयी है उतना तो कई राज्यों का साल का बजट होता है. खेलों के लिए सरकार खेल गाँव बनाती ही है तो फिर नया खेल गाँव बनाने की जगह देश के किसी छोटे से गाँव को ही खेलों के लिए क्यों नहीं चुनती. वहां पर इन्फ्रास्ट्रक्चर  खड़ा करके खेल कराये तो शायद देश के आम जन का भी भला हो. मुझे मेरठ में पत्रकारिता के दौरान वो खबर याद आती है जिसमें पता चला था कि जिन खिलाड़ियों से हम पदक की उम्मीद करते हैं उनकी एक वक़्त की डाईट के लिए सरकार की ओर से महज १७ रूपए ही पहुँचते हैं. खिलाड़ियों के खाने के लिए १७ रूपए और विदेशियों को दिखाने के लिए ३५ हज़ार करोड़, बढ़िया है. अब तक जो पदक ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ी लेकर आये हैं, वो केवल उनके निजी जूनून और उत्साह का नतीजा था. अभिनव बिंद्रा के पिता ने अगर उनको आर्थिक रूप से सहयोग न किया होता तो शायद ही वो रायफल शूटिंग जैसे महंगे खेल में स्वर्ण पदक ला पाते.
  
अगर ये खेल दिल्ली की जगह किसी छोटे शहर या किसी गाँव में कराये जाते तो बहुत से खिलाड़ियों का भला हो सकता था. दिल्ली तो सुरसा का मुंह है, जितना उड़ेलो उतना कम है.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

क्या करके मानेगी ये ओछी राजनीति!

वामपंथियों ने थोड़ी नज़रें टेढ़ी कीं तो अब नक्सलियों को ममता दीदी के आंचल में जगह मिल गयी है. दीदी नक्सलियों को इतना ज्यादा पुचकार रही हैं कि पूछो मत, दीदी के दिल में रह-रह कर नक्सलियों के लिए ममता उमड़ रही है. वो भी इतनी की नक्सलियों को ममता की नयी छत्र-छाया मिलती नज़र आ रही है. 


जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है वैसे ही भारतीय नेताओं को केवल और केवल कुर्सी दिखती है. और इस कुर्सी के लिए देश, धर्म, जाति, परिवार, भाषा सबको दाव पर लगा देते हैं. ऐसा ही ममता दीदी के साथ भी है. उनको केवल बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी दिख रही है. इस कुर्सी की चाह उनके दिल में इतनी घर कर गयी है कि वो अपने सिद्धांतों से भी समझौता कर बैठी है. एक वो कर्मठ ममता थी जिसने कभी वामपंथियों से हार नहीं मानी और जिंदगी भर उनके खिलाफ लड़ती रही और एक ये ममता है जो कुर्सी की खातिर वामपंथियों के ही दूसरे रूप से हाथ मिलाने को तैयार है. ममता ने नक्सलियों के माथे पे लगे सब के सब खून माफ़ कर दिए हैं.


आखिर देश के लोग सही और गलत की पहचान कैसे करें. एक ओर ममता उस नक्सली नेता का समर्थन कर रही हैं जो छत्तीसगढ़ में ७० से ज्यादा सीआरपीऍफ़ जवानों की मौत का जिम्मेदार है. दूसरी ओर उसी सरकार के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री नक्सलियों को देश के लिए बड़ा खतरा बता रहे हैं. देश की अवाम उलझन में है कि आखिर सही कौन है और गलत कौन. वैसे राजनीति तो यही चाहती है कि जनता उलझन में रहे, अँधेरे में रहे, गलत फहमी में रहे ताकि नेताओं की रोजी-रोटी चलती रहे.


अब तक इन नक्सलियों को बंगाल की वामपंथी सरकार दूध पिलाती रही. और जब इस नाग ने ज्यादा भयंकर रूप अख्तियार करके सरकार के लिए ही चुनौती खड़ी कर दी तो दूध की सप्लाई बंद कर दी गयी. सो अब नक्सलियों को ममता की छाँव मिल गयी है. वैसे ये सबकी समझ में अच्छी तरह से है कि ममता की ये दरियादिली केवल बंगाल में आने वाली चुनावों के चलते है. ममता जानती हैं कि केंद्र सरकार कितना भी प्रतिबन्ध क्यों न लगा ले लेकिन नक्सलियों को बंगाल के दबे, कुचले, पिछड़े वर्ग का भरपूर समर्थन है. शायद इसीलिए ममता की रैली में मेधा पाटकर, अरुंधती राय और आर्य समाज के भगवा चोले में खांटी वामपंथी स्वामी अग्निवेश भी नज़र आये.


एक बात का इतिहास गवाह है, जिसने भी हिंसक संगठनो को पाला-पोसा है अंत में वो खुद उस संगठन का शिकार बना है. चाहे वो अमेरिका हो, पाकिस्तान हो या फिर भारत के वामपंथी दल. जिन नक्सलियों का दीदी आज समर्थन कर रही है वही नक्सली एक दिन ममता के लिए खतरा बनेंगे. क्योंकि आसार ऐसे बन रहे हैं कि शायद ममता का सपना इस बार बंगाल में होने वाले चुनाव में पूरा हो जाये. मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता से ये नक्सली संभाले नहीं संभलेंगे.


कुल मिलाकर जनता को गुमराह किया जा रहा है. कुछ वैसे ही जैसे कश्मीर में किया गया. वहां के लोगों को आज़ादी का सपना दिखाकर. कश्मीर में आज जो भी हालात हैं उनके लिए अब्दुल्लाह परिवार पूरी तरह दोषी है. जिसने वहां की सत्ता की खातिर कश्मीरियों को जमकर गुमराह किया, अलगावादियों का समर्थन किया और आज परिणाम सामने हैं. मजेदार बात ये है कि वही अब्दुल्लाह परिवार कश्मीर में कुछ और बात करता है और दिल्ली में कुछ और. यही राजनीति का असली चेहरा है. इन सब चालों का शिकार भोली जनता बनती है. क्योंकि हिंसा में मरने वाले या तो सरकारी जवान होते हैं या फिर भोली अवाम. शर्म है ऐसी राजनीति पे.  

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

आखिर कैसी आज़ादी चाहते हैं कश्मीरी?

कश्मीर जल रहा है. लोग मरने पर आमादा हैं. वो आजादी चाहते हैं. केंद्र सरकार हैरान है, राज्य सरकार हैरान है, लेकिन इस बार शायद हैरान हैं अलगाववादी संगठन भी. आखिर कश्मीरियों के दिलों में उनके द्वारा भरे गए जहर ने इतना हिंसक रूप अचानक कैसे ले लिया. जिस खोखली आज़ादी के झूठे सपने अलगाववादियों ने उनको दिखाए थे वो सपने एक न एक दिन फूटेंगे ये तो उनको पता था, लेकिन ये नहीं पता था कि ऐसे भयंकर रूप में सामने आएंगे कि नौजवान अपनी जान की परवाह किये बगैर "भारत" के खिलाफ आग उगलेंगे. सच्चाई ये भी है कि ऊपरी तौर पर अलगाववादी संगठन भले ही हैरानी जता रहे हों, मन ही मन वे खुश हैं और भयभीत भी. खुश इसलिए कि इस बार की हिंसा से राज्य और केंद्र सरकार दोनों ही घुटनों पर आ गयी हैं. दोनों ही सरकारों की समझ नहीं आ रहा है कि इस बार की परिस्थिति से कैसे निबटा जाये. बयानबाजी के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं पा रही हैं. वैसे इससे ज्यादा भारतीय सरकारें कुछ कर भी नहीं पाती हैं. चाहे मामला नक्सलियों का हो या फिर कश्मीर का, हार्ड स्टैंड लेने में भारतीय सरकारें हमेशा से डरती रही हैं. यह रीढ़विहीन रवैया भारत के लिए सबसे नुकसानदायक साबित हुआ है.

कश्मीर में जो युवा आज जान देने पर आमादा हैं उन्होंने बचपन से लेकर जवानी तक का सफ़र हिंसा और केवल हिंसा के बीच बिताया है. उनके जेहन में बचपन से ही भरा जाता रहा कि कश्मीर भारत का गुलाम है. इसे आजाद कराना होगा. इन कोशिशों के विरुद्ध केंद्र और राज्य सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया. राज्य सरकार ने तो अन्दर खाने मदद ही की. फारूक अब्दुल्लाह तो स्वायत्ता की मांग हमेशा उठाते भी रहे. कश्मीरी जनता बुरी तरह कन्फ्यूज रही. चंद लोगों के प्रोपैगैंडा के चलते कश्मीरियों को पूरी तरह भ्रम हो गया कि आखिर उनका भला किसमें है. भारत के साथ रहने में, पाकिस्तान के साथ रहने में या फिर अलग देश के रूप में. इस बीच कश्मीरी पंडितों का सूपड़ा साफ़ करने का अभियान भी जारी रहा. दिन दहाड़े चुन चुन कर उनकी हत्याएं की गयीं. बस्तियों की बस्तियां साफ़ कर दी गयीं. बचेकुचे लोग जान बचाकर वहां से पलायन कर गए और अब भी देश की सरकारें चुप रहीं. पहले कश्मीरियों के जेहन में भरा गया कि पंडितों की वजह से वहां सारी प्रॉब्लम है. अब तो वहां पंडित भी नहीं, लेकिन अब वहां फ़ौज की वजह से प्रॉब्लम बताई जा रही है. थोड़े दिनों बाद वहां जम्मू और लद्दाख के लोगों की वजह से प्रॉब्लम होने लगेगी. पाकिस्तान की शह पर वहां घटिया खेल खेला जा रहा है. हूबहू पंजाब जैसा. 

आखिर जिस आज़ादी की बात वहां के लोग कर रहे हैं अगर वो आज़ादी उन्हें मिल भी गयी तो क्या कश्मीर की सूरत बदल जाएगी. जी नहीं. वो तथाकथित आज़ादी मिलने के बाद कश्मीर की हालत क्या होगी इस बात का अंदाज़ा शायद वहां किसी को नहीं है. बुनियादी सुविधाओं के लिए भी लोग तरस जायेंगे. जो पाकिस्तान उनका बड़ा हिमायती बन रहा है उसने यहाँ से गए मुसलमानों के साथ कैसा व्यव्हार किया ये सबके सामने है. आज भी उन लोगों को मुजाहिर कहकर बुलाया जाता है. पाक अधिकृत कश्मीर में वहां की अवाम को पाकिस्तान क्या मुहैया करा पा रहा है. कोई विकास कराने से तो गया वहां आतंकी कैंप चलवा रहा है. वहां के नौजवानों को रोजगार देने के बजाय उनको बरगलाकर आतंकी बना रहा है. क्या कश्मीरी लोग अपने बच्चों के लिए ऐसे ही भविष्य की खातिर आज़ादी की मांग कर रहे हैं. वास्तविकता ये है कि भारत से अलग होते ही कश्मीर भरभरा जायेगा. उसकी हालत बद से बदतर हो जाएगी. जो ऊँचाइयाँ कश्मीर आज भारत के साथ रहकर छू सकता है वो किसी और तरह से संभव नहीं है. बस जरूरत सोच को बदलने की है.

कर्म फल

बहुत खुश हो रहा वो, यूरिया वाला दूध तैयार कर कम लागत से बना माल बेचेगा ऊंचे दाम में जेब भर बहुत संतुष्ट है वो, कि उसके बच्चों को यह नहीं पीन...